लेख
12-May-2025
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देश की न्यायिक प्रणाली उस मोड़ पर खड़ी है, जहां नैतिकता, जवाबदेही और संवैधानिक मूल्यों की कसौटी पर हाईकोर्ट के एक वरिष्ठ न्यायाधीश का आचरण परखा जा रहा है। दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश यशवंत वर्मा के आवास पर भारी मात्रा में नकदी बरामद होने और उसके बाद शुरू हुई जांच ने न्यायपालिका की छवि पर गहरा असर डाला है। जब मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने व्यक्तिगत रूप से हस्तक्षेप कर उनसे इस्तीफा देने को कहा, तो यह स्पष्ट था, कि यह मामला सिर्फ कानूनी नहीं, नैतिक दृष्टि से न्यायपालिका के लिए गंभीर मामला है। न्यायमूर्ति वर्मा ने यह कहते हुए इस्तीफा देने से इनकार कर दिया कि यह उनके आत्मसम्मान के खिलाफ है। उनके खिलाफ साजिश रची गई है। यह बयान उस विश्वास को और चोट पहुंचाता है, जो देश की जनता न्यायपालिका पर भगवान के समान आस्था रखती है। जब आरोप इतने गंभीर हों, हाईकोर्ट के तीन मुख्य न्यायाधीशों की जांच समिति की रिपोर्ट भी आरोप की पुष्टि करे, तब यह तर्क कि “यह साजिश है। एक जिम्मेदार संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के लिए अपर्याप्त कारण प्रतीत होता है। अब सवाल उठता है क्या न्यायमूर्ति वर्मा महाभियोग के जरिए हटाए जाएंगे, या अंतिम समय पर इस्तीफा देंगे? भारत का संविधान इस प्रक्रिया को स्पष्ट करता है। किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाना अत्यंत कठिन और दीर्घ कालीन प्रक्रिया है, जिसके लिए संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है। यह लोकतंत्र की मजबूती और न्यायपालिका की स्वायत्तता का प्रतीक है। ऐसे मामलों में यह प्रक्रिया विलंब का कारण भी बन जाती है। वहीं वर्तमान संदर्भ में दोषियों को संरक्षण देने का काम भी करती है। इस संकट के समय में हमें यह नहीं भूलना चाहिए, कि संविधान सर्वोपरि है। न्यायपालिका ही सर्वोच्च संस्था है जो संविधान के अनुसार गुण और दोष के आधार पर फैसला करती है। न्यायपालिका की सर्वोच्चता का अर्थ यह नहीं कि वह जवाबदेही से मुक्त है। एक न्यायाधीश का आचरण न केवल उसके पद के अनुरूप गरिमा तय करता है बल्कि पूरे न्यायिक तंत्र की विश्वसनीयता से जुड़ा हुआ होता है। आज देश की निगाहें इस घटनाक्रम पर हैं। अगर न्यायमूर्ति वर्मा स्वयं त्यागपत्र देकर उच्च नैतिक मानदंड स्थापित करते, तो यह एक उदाहरण बनता। यदि उन्होंने त्यागपत्र नहीं दिया, तो महाभियोग ही वह रास्ता है जो यह सिद्ध करेगा, भारत में कानून से ऊपर कोई नहीं है। यह अवसर है, न्यायपालिका के आत्ममंथन का, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने न्यायपालिका की सर्वोच्चता को बरकरार रखने के लिए राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को कार्रवाई करने के लिए पत्र लिखा है। न्यायपालिका की जवाबदेही को मजबूत बनाए रखने के लिए संसद के पास यह मामला भेजा है। वह जज के मामले में उपयुक्त निर्णय लें। अगर न्याय के मंदिर को लेकर अविश्वास आ जाए, तो लोकतंत्र की नींव डगमगा सकती है। न्यायपालिका के प्रति आम नागरिकों की आस्था बनी रहे। विधायिका और कार्यपालिका के साथ-साथ न्यायपालिका भी अपना काम संविधान की भावना के अनुरूप आचरण करते हुये संविधान के नैतिक सिद्धांतों के आधार पर निर्णय करेंगे, तभी संविधान की रक्षा हो सकेगी। न्यायपालिका ने यह कार्यवाही कर साबित कर दिया है, न्यायपालिका की भी जवाबदेही संविधान के प्रति है। उसे भी संविधान के अनुसार अपने अधिकारों और कर्तव्यों के साथ कार्य करना होता है। न्यायाधीश यदि अपने पद और अधिकारों का दुरुपयोग करते हैं, तो वह भी दंडित होने के पात्र हैं। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश 13 मई को सेवानिवृत होने जा रहे हैं। उसके पहले उन्होंने राष्ट्रपति को पत्र भेजकर अपने संवैधानिक दायित्व को पूरा किया है। उन्होंने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को हाईकोर्ट के न्यायाधीश यशवंत वर्मा पर उपयुक्त कार्यवाही करने के लिए लिखा है। निश्चित रूप से इससे न्यायपालिका की साख बनी रहेगी। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की सर्वोच्चता को बनाए रखने के लिए यह जरूरी था। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जज संविधान के न्याय सिद्धांतों के आधार पर बिना किसी दबाव, बिना किसी भय और लालच के न्याय कर सकें। संविधान ने जो दायित्व न्यायपालिका को सोंपा है, उसके अनुसार नागरिकों के मूल अधिकारों को संरक्षित कर पाएंगे, यह आशा की जाती है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने यशवंत वर्मा द्वारा इस्तीफा नहीं दिए जाने पर, अब यह मामला संसद के ऊपर छोड़ दिया है। वह उपयुक्त निर्णय कर यदि महाभियोग के जरिये न्यायमूर्ति वर्मा को हटाया जाये। यह भारत की पहली घटना होगी, जिसमें किसी हाईकोर्ट के न्यायाधीश को महाभियोग के माध्यम से हटाया जाएगा। हो सकता है कि इसके पहले यशवंत वर्मा इस्तीफा देकर महाभियोग का सामना ना करें। ईएमएस / 12 मई 25