लेख
05-Jun-2025
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जब महात्मा गांधी ने ग्राम स्वराज की बात की थी, तो उनका सपना केवल प्रशासन के विकेंद्रीकरण तक सीमित नहीं था। वे एक ऐसी ग्राम-व्यवस्था की परिकल्पना कर रहे थे, जहाँ सत्ता, संस्कृति और समाज की जड़ें गहराई तक मिट्टी से जुड़ी हों। जहाँ आत्मनिर्भरता जीवन का मूलमंत्र हो, सामाजिक न्याय व्यवहार का आधार बने और लोकतंत्र का स्वरूप सबसे नीचे से शुरू होकर ऊपर तक विस्तृत हो। गांधी के लिए ग्राम स्वराज सत्ता का ढाँचा नहीं, बल्कि संपूर्ण जीवन-दर्शन था। वे चाहते थे कि भारत का हर गाँव एक स्वतंत्र गणराज्य की तरह कार्य करे—जहाँ हर नागरिक का मत मायने रखे, हर व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति सामूहिक सहयोग और स्वाभिमान से कर सके, और हर गाँव अपने संसाधनों, संस्कृति और निर्णयों में आत्मनिर्भर हो। परंतु जब हम भारत के आदिवासी बहुल इलाकों की तरफ देखते हैं—झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र की पहाड़ियों की ओर—तो पाते हैं कि गांधी जिस आदर्श गाँव की बात कर रहे थे, वह यहाँ पहले से अस्तित्व में था। आदिवासी समाजों में ग्राम ही सर्वोच्च इकाई रही है। गाँव केवल एक भौगोलिक क्षेत्र नहीं, बल्कि एक सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक इकाई होता है। इन समाजों में निर्णय ग्रामसभा द्वारा लिए जाते हैं, जहाँ सभी वयस्क पुरुष और महिलाएँ भाग लेते हैं। कोई भी बड़ा फैसला—जैसे कि विवाह का अनुमोदन, भूमि विवाद का निपटारा, या जंगल के उपयोग की अनुमति—ग्रामसभा के विचार-विमर्श और सामूहिक सहमति से होता है। अर्थव्यवस्था भी यहाँ निजी स्वामित्व पर नहीं, बल्कि सामूहिक श्रम और साझी संपत्ति पर आधारित रही है। खेतों की जोताई, बीज बोने, फसल काटने और भंडारण तक की प्रक्रिया में पूरा गाँव सहभागी होता है। उत्पादन का वितरण भी सामूहिक होता है। जल, जंगल और जमीन को समाज की साझा संपत्ति माना जाता है, जिस पर हर व्यक्ति का समान हक होता है। कोई व्यक्ति या परिवार इन संसाधनों पर निजी स्वामित्व का दावा नहीं कर सकता। यह दृष्टिकोण गांधी की उस कल्पना से मेल खाता है जिसमें उन्होंने निजी संपत्ति की बजाय ट्रस्टीशिप का सिद्धांत दिया था। संस्कृति आदिवासी समाजों की आत्मा है। यह कोई जड़ या बीते हुए समय की वस्तु नहीं, बल्कि आज भी जीवंत और क्रियाशील है। गीत, गाथाएँ, नृत्य, त्योहार और अनुष्ठान केवल मनोरंजन के साधन नहीं, बल्कि सामाजिक अनुशासन, ज्ञान के संप्रेषण और सामूहिक चेतना के वाहक हैं। संस्कृति का यह जीवंत स्वरूप ग्राम समाज को एकजुट रखता है, नई पीढ़ी को मूल्य देता है और गाँव की स्मृति को पीढ़ियों तक संजोए रखता है। गांधी भी मानते थे कि किसी भी समाज की आत्मा उसकी संस्कृति में बसती है, और जब तक वह संस्कृति जीवित है, समाज की चेतना भी जीवित रहती है। औपनिवेशिक शासन ने इस ग्राम स्वराज की आत्मा को खंडित करने का प्रयास किया। 1793 के स्थायी बंदोबस्त से लेकर 1865 के वन अधिनियम और फिर 1871 के आपराधिक जनजाति कानून तक, आदिवासी समाजों के सामूहिक ढांचे को विध्वंसित करने की कोशिशें होती रहीं। जंगलों पर से उनका अधिकार छीना गया, भूमि को राजस्व की वस्तु बना दिया गया और परंपरागत नेतृत्व को अवैध घोषित कर दिया गया। परंतु यह समूची प्रक्रिया ग्रामसभा और समाज की जड़ों को पूरी तरह मिटा नहीं सकी। वे मौन रहीं, किन्तु जीवित रहीं। स्वतंत्र भारत में गांधी के ग्राम स्वराज का अनुवाद पंचायती राज व्यवस्था के रूप में हुआ। परंतु यह व्यवस्था गांधी की कल्पना से काफी भिन्न थी। इसमें सत्ता का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर होता है, जबकि गांधी चाहते थे कि निर्णय नीचे से ऊपर की ओर आएं। संविधान की पाँचवीं अनुसूची, 1996 का पेसा कानून और 2006 का वन अधिकार अधिनियम ऐसे प्रयास थे जो आदिवासी ग्राम स्वराज को वैधानिक मान्यता देते हैं, परंतु इनका क्रियान्वयन अभी तक अधूरा और इच्छाशक्ति से विहीन है। ग्रामसभा को केवल सलाहकार संस्था मान लिया गया, जबकि उसे विधायी शक्तियाँ मिलनी चाहिए थीं। गांधी का ग्राम स्वराज केवल पंचायतों या चुनावों का ढाँचा नहीं था। उनके लिए यह एक दर्शन था—संपूर्णता का दर्शन। उनका कहना था—“गाँव को ऐसा बनाना है कि वह स्वयं एक छोटा गणराज्य हो, जिसमें पूर्ण स्वराज्य की अनुभूति हो।” गांधी के ग्राम स्वराज के मूल तत्व—आत्मनिर्भरता, सामूहिकता, पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता, संवाद पर आधारित निर्णय और हिंसा से परहेज़—ये सभी आदिवासी समाज की रचनात्मक बुनियाद में पहले से मौजूद हैं। इस संगति को पहचानना, गांधी के विचारों को नयी जमीन देना है—जो न केवल आदिवासी भारत को सम्मान देता है, बल्कि शेष भारत को भी एक नया मार्ग सुझाता है। गांधी के ग्राम स्वराज के प्रमुख तत्व थे: • आत्मनिर्भरता: गाँव खुद अपने अनाज, कपड़े, शिक्षा, और बुनियादी जरूरतों की पूर्ति करे। • सामाजिक समरसता: जाति, लिंग, धर्म के आधार पर कोई भेदभाव न हो। • अहिंसा और संवाद: निर्णय सहमति और संवाद से हो, हिंसा और दमन से नहीं। • स्थानीय स्वशासन: सत्ता की संरचना नीचे से ऊपर बने, ऊपर से नीचे नहीं। अब यदि हम इन तत्वों को आदिवासी समुदायों की परंपरा से जोड़ें, तो पाते हैं कि इनमें से कई बातें वहाँ पहले से विद्यमान थीं। आज आवश्यकता है कि गांधी के ग्राम स्वराज के विचार को आदिवासी दृष्टिकोण से पुनः देखा जाए। विकास के मापदंडों को इन समाजों की सहजीविता, सामूहिकता और लोकशक्ति की कसौटी पर परखा जाए। ग्राम पंचायत की औपचारिकता से आगे बढ़कर ग्रामसभा की आत्मा को केंद्र में लाया जाए। यह केवल आदिवासी अधिकारों की बात नहीं है, बल्कि भारतीय लोकतंत्र को उसकी जड़ों से जोड़ने का प्रयास है। गांधी ने जो सपना देखा था, वह केवल एक वैचारिक अवधारणा नहीं थी। वह भारत की जमीनी हकीकत थी, जो आदिवासी समाजों में युगों से जिया जा रहा था। यह विडंबना है कि जिसे हमने सभ्यता से बाहर माना, वही हमें सभ्यता की मूल शिक्षा दे रहा था। अब समय आ गया है कि हम आदिवासी समाजों की परंपरा को केवल संरक्षण की दृष्टि से नहीं, बल्कि सीखने की दृष्टि से देखें। ग्राम स्वराज कोई बीता हुआ सपना नहीं है। वह आज भी भारत की पहाड़ियों, जंगलों और गाँवों में साँस ले रहा है। गांधी का ग्राम स्वराज कोई जड़ दर्शन नहीं था; वह एक जीवंत, गतिशील और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध लोकतांत्रिक कल्पना थी। परंतु भारत ने इस सपने को राजनीतिक नारे में बदल दिया—न कि एक वैकल्पिक शासन व्यवस्था में। आज जब हम लोकतंत्र की जड़ों को फिर से खोजने का प्रयास कर रहे हैं, तब हमें गांधी के ग्राम स्वराज को आदिवासी नजरिये से समझने की ज़रूरत है—क्योंकि यही वह नजरिया है जो जमीन से जुड़ा है, लोक के साथ गूंथा हुआ है और सामूहिक चेतना से संचालित होता है। ईएमएस / 06 जून 25