लेख
24-Jun-2025
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भारतीय जनता पार्टी 25 जून को आपातकाल की 50वीं बरसी को संविधान हत्या दिवस के रूप में मनाने जा रही है। इस अवसर पर भारतीय जनता पार्टी देशभर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर किए गए हमले को लेकर संविधान हत्या दिवस के रूप में कार्यक्रम करने जा रही है। वहीं कांग्रेस भी 25 जून को अघोषित आपातकाल को संविधान बचाओ दिवस के रूप में मनाने जा रही है। मध्य प्रदेश के ग्वालियर हाईकोर्ट में संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की मूर्ति नहीं लगने देने पर 25 जून को कांग्रेस उपवास कर रही है। देशभर में बाबा साहेब आंबेडकर की प्रतिमा के समक्ष संविधान बचाओ के कार्यक्रम कांग्रेस द्वारा आयोजित किए जा रहे हैं, जिसके कारण देश में संविधान को लेकर एक नई सियासत देखने को मिल रही है। भारत के संविधान में आपातकाल लगाने की शक्तियां सरकार को मिली हैं। संविधान के अंतर्गत अनुच्छेद 352, 356 और 360 के तहत संवैधानिक आपातकाल लागू किया जा सकता है। युद्ध, बाहरी आक्रमण, सशस्त्र विद्रोह, राज्य में संवैधानिक संकट होने पर संवैधानिक रूप से आपातकाल लागू किया जा सकता है। 1975 में इंदिरा गांधी ने अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रीय आपातकाल घोषित किया था। संवैधानिक रूप से जब आपातकाल लागू होता है तो हर 6 माह में उसका नवीनीकरण होता है। यह एक नियमानुसार पारदर्शी प्रक्रिया है। घोषित आपातकाल में अनुच्छेद 19 के मूल अधिकार निलंबित हो जाते हैं। प्रेस, सेंसरशिप, बिना मुकदमा के किसी को गिरफ्तार करना तथा विरोध प्रदर्शनों पर रोक लगाई जाती है। 1975 में जो आपातकाल घोषित हुआ था उसमें मीडिया के ऊपर सेंसरशिप लगाई गई थी। विपक्षी नेताओं छात्र-नेताओं और कर्मचारी संगठनों के पदाधिकारियों को गिरफ्तार किया गया था। घोषित आपातकाल लगभग 21 माह का था। अब भारत में अघोषित आपातकाल की चर्चा जोरों पर हो रही है। सबसे पहले अघोषित आपातकाल का उल्लेख पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने किया था। जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद की शपथ लेकर सत्ता में आए थे। पिछले कुछ वर्षों में अघोषित आपातकाल को लेकर लगातार आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है। अघोषित आपातकाल में संविधान के प्रति कोई जवाब देही नहीं होती है। सरकार सामान्य कानूनों तथा अपनी विशेष शक्तियों का उपयोग कर नियम बना देती हैं, अथवा मुकदमें बना देती हैं। पिछले कुछ वर्षों में यूएपीए, एएफएसपीए जैसे कानूनों के बेजा इस्तेमाल को इस अघोषित आपातकाल के रूप में देखा जाता है। अघोषित आपातकाल के दौरान ऐसी कोई प्रक्रिया नहीं होती है, जिससे मौलिक अधिकारों और नागरिकों के स्वतंत्र अधिकारों के बारे में संसद में समीक्षा हो सके। इसके लिए आम नागरिकों को न्यायालय का ही सहारा लेना पड़ता है। यह सारी प्रक्रिया कानूनी जामा पहनाकर की जाती है, जिसके कारण जनता को इसका आभास लंबे समय बाद होता है। अघोषित आपातकाल के दौरान इंटरनेट पर बार-बार प्रतिबंध लगाया गया है। नागरिक अधिकारों और मौलिक अधिकारों का हनन गैर संवैधानिक तरीकों से किया गया है। मीडिया पर शिकंजा कसा गया है। सरकार ने आर्थिक आधार पर मीडिया को अपने नियंत्रण में ले लिया गया। मीडिया को लेकर कोई निश्चित प्रदर्शिता भी नहीं रही है। ईड़ी, सीबीआई, जांच एजेंसियों और पुलिस द्वारा समय-समय पर सरकार के निर्देश पर जो कार्रवाई की जाती है उसमें बुलडोजर संस्कृति और एनकाउंटर भी चर्चाओं में हैं। अघोषित आपातकाल के इस दौर में मीडिया तथा सोशल मीडिया पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं। अघोषित आपातकाल के दौरान जो असंवैधानिक कार्यवाही आम नागरिकों के ऊपर होती है, उसके ऊपर सरकार और संबंधित एजेंसी की कोई जिम्मेदारी तय नहीं हो पाती है। अघोषित आपातकाल में नागरिकों के मौलिक अधिकार और उनकी स्वतंत्रता को लेकर कोई पारदर्शिता नहीं होती है, जिसके कारण अघोषित आपातकाल को सबसे खतरनाक माना जाता है। 1975 के आपातकाल को ही असंवैधानिक मानते हुए बड़े पैमाने पर उसका विरोध होता रहा है। हालांकि घोषित आपातकाल के दौरान संविधान के अनुरूप हर 6 माह में संसद के अंदर इसकी समीक्षा होती रही है। एक साल के लिए इसे बढ़ाया गया था और 21 माह के अंदर ही आपातकाल को समाप्त करते हुए चुनाव कराए गए थे। घोषित आपातकाल में पूरी तरह से पारदर्शिता और तत्कालीन सरकार की जवाब देही तय थी। संसद के अंदर खुलकर चर्चा होती थी। अघोषित आपातकाल के दौरान बार-बार विपक्षी दल यह आरोप लगाते हैं कि संवैधानिक संस्थाओं और कार्यपालिका के अधिकारियों पर सरकार का दबाव है। अब यह आरोप न्यायपालिका को लेकर भी लगने लगा है। संविधान में प्रावधान होते हुए भी सरकार उनका पालन नहीं कर रही है, जिसके कारण अब संविधान बचाओ जैसे अभियान विपक्षी दल संचालित कर रहे हैं। भाजपा और कांग्रेस के बीच में घोषित आपातकाल और अघोषित आपातकाल को लेकर जो सियासत चल रही है उसमें नई पीढ़ी को भी अब आपातकाल के बारे में जानकारी मिल रही है। मौलिक अधिकारों को लेकर भी अब चर्चाएं होने लगी हैं। बाबा साहेब आंबेडकर ने जो चिंता जताई थी आज वह वास्तविक रूप में सामने दिख रही है। संविधान में प्रावधान होते हुए भी यदि सरकार और संवैधानिक संस्थाएं उनका पालन सुनिश्चित नहीं करेंगी ऐसी स्थिति में संविधान का कोई औचित्य नहीं रहेगा। तानाशाही और राजशाही का खतरा बना रहेगा। यह चिंता उन्होंने संविधान बनाते समय व्यक्त की थी। ईएमएस / 24 जून 25