सरकार की रिपोर्टें कहती हैं, देश में गरीबी घटी है। रोजगार के अवसर बढ़े हैं। यदि यह सच है, तो यह परिवर्तन देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक जीवन में क्यों नहीं दिख रहा है। आंकड़ों की चमकदार प्रस्तुति के बावजूद देश की युवा आबादी बेरोजगारी की मार झेल रही है। रोजगार के मोर्चे पर वास्तविक सुधार तब नजर आएगा जब मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में लघु एवं मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) को ध्यान में रखकर केंद्र सरकार द्वारा नीति बनाई जाएगी। भारत की कुल खपत का 95 प्रतिशत हिस्सा लघु एवं मध्यम उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुओं से पूरा होता था। इसके बावजूद इन क्षेत्रों को वह प्रोत्साहन नहीं मिला, जो उन्हें मिलना चाहिए। वैश्विक बाजार में भारत की हिस्सेदारी बढ़ाने, निर्यात को बढ़ावा देने और स्थानीय रोजगार सृजन के लिए लघु एवं मध्यम उद्योगों को तकनीकी और वित्तीय सहयोग जो जरूरी था वह नहीं मिला। इन क्षेत्रों में यदि उत्पादन होता तो रोजगार भी यहीं से आता। यही गरीबी उन्मूलन रोजगार और आर्थिक विकास की असली कुंजी बन सकता था। कागजों पर गरीबी घटाना आसान है। आंकड़ों के जरिए मन माफिक तरीके से रिकॉर्ड तैयार कर लिया जाता है। इस रिकॉर्ड के आधार पर दावा भी कर दिया जाता है, लेकिन यह वास्तविक हकीकत से दूर होता है। असली जरूरत तो गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई को जमीनी सच्चाई की हकीकत में बदलना है। यह काम कागजों से नहीं होगा। वास्तविक हकीकत के लिए सिर्फ सेवा क्षेत्र या डिजिटल इंडिया जैसे अभियानों पर निर्भर रहना पर्याप्त नहीं है। भारत को उत्पादन प्रधान अर्थव्यवस्था की ओर लौटना होगा। पिछले एक दशक में चीन के उत्पाद भारत में आकर बिक रहे हैं। भारत के लघु और मध्यम उद्योग खत्म होते चले जा रहे हैं। भारत एक ट्रेडिंग का हब बन गया है। बाहर से सामान आता है और यहां बिकता है। ग्रामीण एवं छोटे नगरों में छोटे कारखाने, हस्तशिल्प, कृषि आधारित उद्योग और नवाचार आधारित उत्पादक भारतीय अर्थव्यवस्था की रीड की हड्डी हैं। इसी हड्डी को पिछले 1 साल में कमजोर किया गया है। लघु एवं मध्यम उद्योगों को छोटे-छोटे रोजगार को ध्यान में रखते हुए केंद्र और राज्य सरकार यदि नियम एवं कानून बनाती हैं तो उससे बेरोजगारी और महंगाई से निजात मिलेगी। लोगों की आर्थिक स्थिति बेहतर होगी। 2014 में जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार आई है उसके बाद सभी क्षेत्रों में 100 फ़ीसदी विदेशी निवेश को अनुमति दे दी गई है। उसके बाद भारत में लघु एवं मध्यम दर्जे के उद्योग बुरी तरह से चरमरा गए हैं। केंद्र एवं राज्य सरकारों ने जो नियम और कानून तैयार किए हैं उसके कारण ग्रामीण और शहरी क्षेत्र में लाखों रोजगार के अवसर हर साल बंद होते जा रहे हैं। अब तो मिठाई की दुकान में भी डिब्बा बंद सामग्री मिलती है। यह सामग्री या तो मशीनों से तैयार होती है या विदेश से आती है। स्थानीय उत्पाद पूरी तरह से खत्म हो गया है। छोटे-छोटे उद्योग धंधे पूरी तरह से खत्म हो गए हैं, जिसके कारण बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है। केंद्र सरकार पिछले एक दशक से यह कहती आ रही है कि हमने रोजगार के लिए बैंक से ऋण उपलब्ध कराया है, जिससे रोजगार बढा है। बैंकों से जिन्होंने कर्ज लिया वह कर्ज की किस्त भी नहीं अदा कर पाए। बैंक ने उन्हें डिफाल्टर घोषित कर दिया है। बैंक अब सख्ती से पैसे वसूल कर रहे हैं। वास्तविकता यही है जिसे सरकार देखकर भी अनदेखा कर रही है। आज भारत के पास युवा जनसंख्या है। डिजिटल कौशल और घरेलू मांग भी है। यदि इन तीनों को लघु उद्योगों और निर्माण क्षेत्र से स्थानीय आधार पर जोड़ा जाएगा तो इससे न केवल रोजगार बढ़ेगा, बल्कि गरीबी भी सही मायने में तेजी के साथ घटेगी। सरकार की नीतियां तब ही सफल मानी जाएंगी, जब नीतियों के लाभ आम जन जिसमें गरीब और मध्यम वर्ग दोनों हों। तभी देश का तेजी के साथ विकास होता है। हर हाथ को काम मिलता है। लोगों की क्रय शक्ति बढ़ती है। वर्तमान स्थिति में सरकार को वास्तविक स्थितियों के साथ नीतियां बनानी होंगी। सरकार अपनी लोकप्रियता को देखते हुए सच से मुंह छुपाती है। आंकड़ों के जरिए अपने चेहरे को चमकाने का प्रयास करती है। लेकिन यह प्रयास ज्यादा समय तक नहीं चलता है। वर्तमान में अमीरों के पास धन बड़ी तेजी के साथ बढ़ रहा है। गरीब और गरीब होता चला जा रहा है। आम जनता के ऊपर कर्ज का बोझ बढ़ता चला जा रहा है। आम जनता के पास खर्च करने के लिए पैसे नहीं हैं। गरीबों के पास बच्चों को खिलाने के लिए पोषण आहार नहीं है। छोटे और मध्यम रोजगार पूरे देश भर में पिछले कुछ वर्षों में बड़ी तेजी के साथ बंद हुए हैं। सरकार को वास्तविकता को समझते हुए नीति बनाने की जरूरत है। शेयर बाजार और बड़े लोगों के ढंग से बड़ी हुई जीडीपी कोई काम नहीं आती है। इसे भी सरकार को ध्यान में रखना होगा। ईएमएस / 26 जून 25