(गुप्त नवरात्र के अवसर पर विशेष) प्रत्येक वर्ष शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा की तिथि से आरंभ होने वाले गुप्त नवरात्र के दिन से (इस वर्ष 26 जून से) पूरे देश में देवी दुर्गा की दस महाविद्याओं का पूजन-अनुष्ठान शुरू हो जाता है। देवी के दस महाविद्याओं में मां काली, मां षोडशी, मां भुवनेश्वरी, मां भैरवी, मां छिन्नमस्तिका, मां धूमावती, मां बगलामुखी, मां मातंगी तथा मां कमला के साथ मां तारा के नाम शामिल हैं जिनके मंत्रोच्चारों से गुप्त नवरात्र के नवों दिन गूंजायमान रहते हैं। साल के बारहों महीने भक्त श्रद्धालुओं की आवाजाही से गुलजार तारापीठ में गुप्त नवरात्र के दिनों में देश के अन्य शक्तिपीठों की तरह खास चहल-पहल रहती है। देवी के दस महाविद्याओं में मां तारा का विशेष महात्म्य है जिनका सिद्धपीठ पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिला के रामपुर हाट स्टेशन के निकट अवस्थित है। नील सरस्वती, एकजटा भवानी, तारा तारिणी आदि नामों से संबोधित मां तारा परम कल्याणी मानी जाती हैं। करुणामयी तारा मां की एक खास विशेषता यह है कि ये भक्त-वत्सल हैं तथा सबकी मनोकामनाएं पूरी करती हैं।तभी तो तारापीठ मंदिर परिसर में मां तारा के साथ उनके परम भक्त बामा खेपा की भी पूजा होती है। ऐसा उदाहरण विरले ही मिलेगा कि एक ही स्थान पर भगवान के साथ उनके भक्त की भी पूजा होती हो। कहते हैं कि तारा मां और उनके अनन्य भक्त बामा खेपा के बीच माता और पुत्र का संबंध था जिनकी कई रोचक कहानियां आपको तारापीठ में प्रवेश करने के साथ ही सुनने को मिलेंगी। तारापीठ बंगाल के साथ पूर्वोत्तर भारत का एक प्रमुख शक्ति-स्थल है जो पटना-हावड़ा लूप रेल लाईन पर झारखंड-बंगाल की सीमा पर रामपुर हाट स्टेशन (बीरभूम जिला, पश्चिम बंगाल) से करीब 8 किमी दूर द्वारिका नदी के तट पर स्थित है। एक खास बात यह है कि बंगाल में शक्ति-पूजा की प्राचीन परम्परा है। यहां के घर-घर में देवी काली की पूजा होती है जिनके मंदिर यहां के हर गली-मुहल्लों में देखने को मिल जायेंगे। तारापीठ (बीरभूम) के अलावे कालीघाट (कोलकाता), कंकाली तल्ला व नलहट्टी (बीरभूम) और किरीतेश्वर (मुर्शिदाबाद), तामलुक (मेदिनीपुर), खीरग्राम व केतुग्राम (कटवा), वक्रेश्वर व फूल्लरा (बीरभूम) तथा रत्नाबली (हूगली) पश्चिम बंगाल के प्रमुख शक्ति-स्थल और शक्तिपीठ हैं। तारापीठ में आद्या देवी शक्ति की अवतार मां तारा विराजती हैं। इस स्थल की मान्यता एक जाग्रत शक्ति पीठ एवं तंत्रपीठ के रूप में है जहां आराधकों और साधकों की विनती शीघ्र सुनी जाती है। मां तारा सुख, समृद्धि, स्वास्थ्य-आरोग्य व ज्ञान-साधना की देवी मानी जाती हैं। यही कारण है कि बिहार, बंगाल और झारखंड सहित देश के कोने-कोने से प्रतिदिन हजारों श्रद्धालु तारा मां के दर्शन हेतु यहां आते हैं एवं भक्ति पूर्वक पूजन-अर्चन कर मनोवांछित फल पाते हैं। शक्ति-पीठ तारापीठ के बारे में ऐसी मान्यता है कि यहां देवी की आंखों का तारा गिरा था जिसकी कथा दक्ष प्रजापति के यज्ञ और माता पार्वती के हवन-कुंड में दाह से जुड़ी है। जब पिता दक्ष द्वारा अपने पति शंकर की अवहेलना से व्यथित पार्वती ने हवन-कुंड में कूदकर आत्मदाह कर लिया और इससे उन्मत्त होकर शिव उनके शव को लेकर तीनों लोक में फिरने लगे तो भगवान विष्णु ने श्रृष्टि के नियमों के रक्षार्थ देवी के शव को सुदर्शन चक्र से काट डाले जिसके 51 टुकड़े होकर विभिन्न 51 स्थानों में गिरे जिनकी मान्यता 51 शक्तिपीठों में हुई। तारापीठ में देवी की आंखों के तारे गिरे थे, इस कारण इसकी प्रसिद्धि तारापीठ के नाम से हुई। ऐसे एक मान्यता यह भी है कि यह स्थल बिहार के महेशी में है। देवी तारा के आविर्भाव के संबंध में कालिका पुराण में वर्णित है कि शुंभ व निशुंभ दानवों से पराजय के बाद जब देवतागण हिमालय में जाकर देवी मातंगी का आह्वान करने लगे तो देवी के शरीर से महासरस्वती स्वरूप श्वेत वरणवाली कौशिकी के साथ काले वरणवाली काली अथवा उग्रतारा प्रकट् हुई थीं। देवी तारा नील वरण की चार भुजाओं वाली होती हैं जिसमें वे तलवार, खप्पर, कटार और नील कमल धारण करती हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार वशिष्ठ मुनि ने तारा मंदिर के निकट द्वारिका नदी के तट पर स्थित श्मशान में तारा माँ की आराधना की थी जिसके कारण ये वशिष्ट आराधित तारा के नाम से भी जानी जाती हैं। डेविड आर. किंसले कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से प्रकाशित अपनी पुस्तक तांत्रिक विज़न ऑफ द डिवाइन फेमिनिन:द टेन महाविद्यास में बताते हैं कि स्थानीय परम्परा के अनुसार मुनि वशिष्ठ ने इस स्थान को इस कारण अपनी साधना के लिये चुना क्योंकि इसकी प्रसिद्धि सिद्ध पीठ के रूप में थी। वशिष्ट मुनि ने यहां कठोर तपस्या करते हुए 3 लाख तारा मंत्रों के जाप किये थे जिससे प्रसन्न होकर देवी तारा उनके समक्ष पकट् हुई। वशिष्ठ के अनुरोध पर देवी ने उन्हें भगवान शिव को दुग्ध-पान कराते हुए मातृ स्वरुप में दर्शन दिये जिसके उपरांत वे शिलामूर्ति में परिवर्तित हो गईं। बाद में द्वारिका नदी के तट पर स्थित श्मशान, जहां वशिष्ट मुनि ने तपस्या की थी, से प्राप्त तारा माँ की इस शिलामयी प्रस्तर मूर्ति को मुख्य तारा मंदिर में लाकर प्रतिष्ठित किया गया है जिसके उपर देवी की चांदी की मुखाकृति आवेष्ठित कर दी गई है जिसका दर्शन-पूजन श्रद्धालुगण करते हैं। प्रतिदिन देर रात्रि में भक्तों को देवी तारा के शिलारुप का दर्शन कराया जाता है। मुख्य तारा मंदिर के निकट स्थित श्मशान में, जहां वशिष्ट मुनि ने तपस्या की थी, परिसर में वशिष्ठ मंदिर तथा पंचमुंडी मंदिर निर्मित है जहां साधना करते साधकों को देखा जा सकता है। हिंदू धर्मावलंबियों की तरह बौद्ध धर्म में भी देवी तारा का अत्यंत महात्यम है। बौद्ध धर्म में भी ये शाक्त देवी के रूप में पूजी जाती हैं। बौद्ध धर्म की तिब्बती मान्यताओं में आर्यतारा महायान में नारी बोधिसत्व और वज्रयान में नारी बुद्ध के रूप में पूजा की जाती है जो मुक्ति व सफलता प्रदान करती हैं। मां तारा के महात्म्य की चर्चा उनके अनन्य भक्त बामाखेपा अर्थात बामदेव का उल्लेख किये बिना अधूरी है। मां की भक्ति में सुध-बुध खोकर सदैव लीन रहनेवाले बामदेव ऐसे रम गये कि लोग उनको खेपा अर्थात् पागल कहकर पुकारने लगे। आज उनकी प्रसिद्धि बामा खेपा के नाम से है। बामा खेपा का जन्म तारापीठ से 8 कि.मी. की दूरी पर आटला नामक ग्राम में हुआ था। कहते हैं उन्हें मा का दर्शन प्राप्त हुआ था। तारापीठ में मा तारा के मंदिर परिसर में ही बामदेव का भी मंदिर है। ऐसा विरले होता है कि एक ही स्थान पर भक्त के साथ उनके भगवान की भी पूजा होती हो। बामाखेपा एक सिद्ध तांत्रिक थे तथा मंदिर के बगल में स्थित श्मशान रहकर साधना करते थे। बामा खेपा मां तारा की आराधना किसी देवी की तरह नहीं, वरन् मां के रूप में करते थे तथा उनके साथ पुत्र की तरह उन्मुक्त व्यहवार करते थे जिसके कारण मंदिर के पुजारी उन्हें बीच-बीच में प्रताड़ित करते रहते थे। इस संबंध में अपनी पुस्तक में डेविड आर.किंसले एक घटना का जिक्र करते हुए कहते हैं कि एक बार बामा ने तारा मां को भोग लगाने के पहले ही उसके फल को उठाकर खा लिया जिससे क्रोधित होकर पुजारियों ने उन्हें मंदिर से निकाल बाहर कर दिया। मां के वियोग में बामा बगल के श्मशान में एक एक पेड़ के नीचे बामा खेपा मां की रट लगाते हुए विलाप करने लगे। कहते हैं अपने पुत्र की इस दशा से मां तारा ने विह्वल होकर नाटोर स्टेट की रानी, जिनके राज में तारापीठ पड़ता था, को स्वप्न दिया है कि मेरा पुत्र श्मशान में भूखा पड़ा है, तो मैं तुम्हारा भोग कैसे स्वीकार कर सकती हूं, पहले उसको भोजन दो। उन दिनों नाटोर स्टेट की रानी की तरफ से मां तारा को प्रतिदिन भोग चढ़ाने की परंपरा थी। देवी के आदेश का रानी ने तत्काल पालन किया और मां को भोग लगाने के पहले श्मशान में मां की रट लगाते बेसुध बामा खेपा को भोजन कराया। तब से देवी को भोग लगाने के पूर्व बामा को भोजन देने की परिपाटी चल पड़ी। ऐसी मान्यता है कि मां तारा ने बामा खेपा को दर्शन दिये थे। तारापीठ आनेवाले हर श्रद्धालु मां तारा के साथ उनके अनन्य भक्त बामा खेपा के प्रति श्रद्धा निवेदित करते हैं। तारा मां को को जवा, कमल और नीले अपराजिता के फूल अत्यंत प्रिय हैं, इस कारण श्रद्धालुगण इन फूलों को आवश्यक रूप से माँ को अर्पित करते हैं और तत्पश्चात मंदिर परिसर में स्थित बामा खेपा के मंदिर में पूजन-दर्शन करते हैं। ऐसे तो यहां सालों भर भक्तों का तांता लगा रहता है, किंतु शनिवार और रविवार-सोमवार को माँ तारा का दर्शन-पूजन परम आनन्ददायक तथा फलदायी माना जाता है। श्रावण के महीने में देश विभिन्न स्थानों से देवघर वैद्यनाथ धाम (झारखंड) आकर वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग को सुल्तानगंज (भागलपुर जिला, बिहार) की उत्तर वाहिनी गंगा का जल अर्पित करनेवाले लाखों कांवरियां शिवभक्त तारापीठ आकर मां तारा के दर्शन-पूजन करते हैं। (लेखक पूर्व जनसंपर्क उपनिदेशक एवं इतिहासकार हैं) ईएमएस/27/06/2025