भारत सरकार का जीएम (जेनेटिकली मोडिफाइड) सोयाबीन आयात की अनुमति देना, लेकिन घरेलू खेती पर प्रतिबंध लगाना, एक गंभीर नीतिगत विरोधाभास है। यह नीति 70 लाख सोयाबीन किसानों को नुकसान पहुंचा रही है। विदेशी जीएम उत्पादकों को भारतीय बाजार में प्रवेश की छूट है, लेकिन स्थानीय किसानों को ऐसी फसलें उगाने से रोका जा रहा है। यह दोहरा मानक न केवल किसानों की आजीविका को खतरे में डालता है, बल्कि आर्थिक वास्तविकताओं को नजरअंदाज करता है तथा गैर-जीएम बाजार में भारत की संभावनाओं को कमजोर कर रहा है। तिलहन में आत्मनिर्भरता और किसानों की सुरक्षा के लिए एक सुसंगत, विज्ञान-आधारित नीति की तत्काल जरूरत है। :: नीतिगत विरोधाभास :: अगस्त 2021 में, पोल्ट्री फीड की कमी को पूरा करने के लिए सरकार ने 12 लाख टन जीएम सोयाबीन मील आयात की अनुमति दी, यह दावा करते हुए कि डी-ऑयल्ड केक में कोई जीवित जीएम तत्व नहीं होते। अक्टूबर 2021 तक केवल 6.5 लाख टन आयात होने पर, सरकार ने सितंबर 2025 तक 5.5 लाख टन और आयात की मंजूरी दी है एक तरफ भारत में जीएम सोयाबीन की खेती पर सख्त पाबंदी है, वहीं दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट जीएम सरसों की मंजूरी पर जैव-सुरक्षा जोखिमों और अपर्याप्त परामर्श के कारण सुनवाई कर रहा है। जीएम सोयाबीन आयात को हरी झंडी देना, लेकिन इसकी खेती पर रोक की यह नीति भारतीय किसानों के हितों की अनदेखी करते हुए बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्राथमिकता दे रही है। अमेरिका के साथ इस महीने होने वाले संभावित व्यापार समझौता में सरकार को समझना होगा कि इस समझौते से भारतीय किसानों के हितों की अनदेखी ना हो। :: आर्थिक और लॉजिस्टिक चुनौतियाँ :: जीएम सोयाबीन आयात करके, देश में तेल निकालने और मील को निर्यात करने का प्रस्ताव आर्थिक रूप से अव्यवहारिक है। भारत के ज्यादातर सॉल्वेंट एक्सट्रैक्शन प्लांट मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में बंदरगाहों से 800–1,500 किमी दूर हैं। सोयाबीन को इन प्लांटों तक और मील को वापस बंदरगाहों तक ले जाने में प्रति टन ₹5,000–7,000 की लागत आती है, जिससे भारतीय मील वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाता। बंदरगाहों पर प्रसंस्करण संयंत्रों की कमी इस मॉडल को और मुश्किल बनाती है। निर्यात को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए सरकार को या तो ट्रांसपोर्ट और निर्यात सब्सिडी देनी होगी या बंदरगाहों पर प्रसंस्करण संयंत्र स्थापित करने होंगे। :: बदलता बाजार परिदृश्य :: पोल्ट्री फीड में डिस्टिलर्स ड्रायड ग्रेन्स विथ सॉल्यूबल्स (DDGS) के बढ़ते उपयोग ने भारत के फीड बाजार को बदल दिया है। मक्का और चावल से इथेनॉल उत्पादन का यह उप-उत्पाद अब 25% सोयाबीन मील की जगह ले रहा है, जिससे सालाना 3 लाख टन मांग कम हो गई है। DDGS, सोयाबीन मील से 30–40% सस्ता होने के कारण, सोपा ने 2024–25 के लिए घरेलू खपत अनुमान को 80 लाख टन से घटाकर 63 लाख टन कर दिया है। इसको मद्देनजर रखते हुए देश में अब जीएम सोयाबीन का आयात अप्रासंगिक प्रतीत होता है क्योंकि मील के इस घटते मांग को स्थानीय आपूर्ति एवं विकल्प से पूरा किया जासकता है। :: गैर-जीएम : भारत का अनदेखा अवसर :: भारत का गैर-जीएम सोयाबीन उत्पादन वैश्विक बाजार में एक रणनीतिक संपत्ति है। यूरोप और अमेरिका में गैर-जीएम उत्पादों को प्रीमियम कीमत मिलती है। हालांकि, 283.91% की काउंटरवेलिंग ड्यूटी ने अमेरिकी बाजार में भारत की पहुंच को अवरुद्ध कर दिया है। सोयाबीन एक्सट्रैक्टर्स एसोसिएशन इस पहुंच को बहाल करने की मांग कर रहा है ताकि निर्यात और किसानों की आय बढ़ सके। जैसा कि विदित है गैर-जीएम खेती बीज संप्रभुता को बनाए रखती है, जिससे छोटे किसानों को बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों को रॉयल्टी देने से मुक्ति मिलती है। :: किसान-विरोधी नीति :: उपरोक्त तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए सरकार द्वारा जीएम आयात की अनुमति देना, लेकिन खेती पर प्रतिबंध लगाना, वैज्ञानिक सुसंगतता और निष्पक्षता की कमी को दर्शाता है। ऐसे आयात ना सिर्फ किसानों को सोयाबीन उगाने से हतोत्साहित करेंगे, उनकी आजीविका को खतरे में डालेंगे बल्कि तिलहन में भारत के आत्मनिर्भरता के राष्ट्रीय लक्ष्य को कमजोर करेंगे। बिना बंदरगाह-आधारित प्रसंस्करण संयंत्रों के आयात-प्रसंस्करण-निर्यात मॉडल अव्यवहारिक है, और अस्थायी आयात अनुमतियाँ मूलभूत समस्याओं का समाधान नहीं करती। :: विज्ञान-आधारित जीएम नीति की जरुरत :: भारत सरकार को एक सुसंगत, विज्ञान-आधारित जीएम नीति अपनाने की आवश्यकता है जो आयात और घरेलू खेती पर समान जैव-सुरक्षा मानक लागू करे। बंदरगाह-आधारित प्रसंस्करण संयंत्रों में निवेश से सोयाबीन प्रसंस्करण व्यवहार्य हो सकता है। गैर-जीएम बाजारों तक पहुंच बढ़ाने से निर्यात को बल मिलेगा। गैर-जीएम लाभ का उपयोग करके और नीतिगत विरोधाभासों को दूर करके, भारत अपने किसानों की रक्षा कर सकता है, अर्थव्यवस्था को मजबूत कर सकता है और वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर सकता है। अस्थायी समाधान अब काम नहीं करेंगे—भारत के सोयाबीन क्षेत्र को किसान-केंद्रित सुधारों की तत्काल जरूरत है। (के.के. झा, इन्दौर के वरिष्ठ पत्रकार हैं) पीएम/01 जुलाई 2025