लेख
05-Jul-2025
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(मुहर्रम विशेष (रविवार,6 जुलाई ) पूरी दुनिया में इन दिनों इस्लामी कैलेंडर के पहले महीने मुहर्रम के दौरान करबला की दास्तान याद की जा रही है। 680 ईस्वी अर्थात मुहर्रम 61 हिजरी में इराक़ में करबला स्थित मैदान फ़ुरात नदी के किनारे पैगंबर हज़रत मुहम्मद के नवासे इमाम हुसैन व उनके परिवार के लगभग 72 सदस्यों को सीरिया के तत्कालीन तानाशाह यज़ीद की सेना ने उसके आदेश पर बड़ी ही बेरहमी से 10 मुहर्रम यानी आशूरा के दिन तीन दिन का भूखा प्यासा क़त्ल कर दिया था। उसके बाद उनके परिवार के तंबुओं को जलाया व लूटा गया । बाद में इमाम हुसैन के परिवार, विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों को बंदी बनाकर कूफ़ा और फिर सीरिया ले जाया गया। इस दौरान उनके साथ क्रूर व्यवहार किया गया। उन्हें रास्ते भर यातनायें दी गयीं उनके सरों से चादरें छीनी गयीं,हाथों में हथकड़ियां,रस्सियां व पैरों में बेड़ियाँ डाली गयीं। ग़ौरतलब है कि हज़रत मुहम्मद के घराने के साथ घोर अत्याचार करने वाला उस समय का तानाशाह यज़ीद पुत्र मुआविया स्वयं भी मुसलमान था और उसकी सेना के अत्याचारी सदस्यों में भी अनेक हाफ़िज़,क़ारी और लंबी लंबी दाढ़ियों वाले धर्मगुरु सरीखे अनेक मौलवी शामिल थे। यज़ीद अपने समय का एक शक्तिशाली परन्तु क्रूर,अधर्मी,अय्याश शासक था। वह अपनी ताक़त के बल पर अपनी सत्ता चलने के लिये हज़रत इमाम हुसैन का समर्थन चाहता था। परन्तु हज़रत हुसैन ने उसकी दुष्ट की ताक़त की परवाह नहीं की और उसके हाथों पर बैयत करने से इंकार कर दिया। हज़रत हुसैन की शहादत और करबला की घटना को पूरे विश्व के सभी धर्मों व विश्वास के लोग पूरी श्रद्धा व सम्मान से देखते हैं। इस घटना को धर्म के बजाय इतिहास से जुड़ी विश्व की अभूतपूर्व घटना होने के नाते पूरी दुनिया के में साहस, बलिदान और अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। यही वजह है कि विभिन्न धर्मों के लोग हज़रत हुसैन की नैतिकता, मानवता और सत्य के लिए उनके बलिदान की प्रशंसा करते हैं। भारत में मुहर्रम पर हिंदुओं की मुहर्रम में भागीदारी व उनके द्वारा श्रद्धा पूर्वक की जाने वाली ताज़ियादारी की परंपरा देश की सांस्कृतिक और धार्मिक समन्वयता को दर्शाती है। ताज़िया, इमाम हुसैन के मक़बरे का प्रतीकात्मक स्वरूप है जो भारत में हिंदू-मुस्लिम एकता का भी प्रतीक है। मुहर्रम में ताज़ियादारी की परंपरा को ग्वालियर के सिंधिया परिवार जैसे हिंदू राजघरानों ने भी पूरी श्रद्धा के साथ अपनाया। वे न केवल ताज़िया बनवाते थे, बल्कि जुलूसों में भी शामिल होते व इसे अपनी मन्नतों और आस्था से जोड़कर देखते थे। जबकि मुस्लिम शासक होने के बावजूद औरंगज़ेब ने अपने शासनकाल में मोहर्रम के जुलूसों पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास किया था। मध्य प्रदेश (ग्वालियर) के अलावा भी भारत में कई क्षेत्रों, विशेषकर उत्तर प्रदेश, राजस्थान, और दक्षिण भारत के कई हिस्सों में हिंदू समुदाय ताज़ियादारी में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं। इसी तरह इतिहास में हिंदू समुदाय, से जुड़े हुसैनी ब्राह्मण, का ज़िक्र मिलता है। कहा जाता है कि हुसैनी ब्राह्मण करबला की जंग में हज़रत इमाम हुसैन के पक्ष में लड़े थे। इसीलिये इनके वंशज आज भी मुहर्रम में मजलिस मातम करते हैं व हुसैन की याद में ताज़िया निकालते हैं। बताया जाता है कि सिंध के हिन्दू राजा राहिब दत्त निःसंतान थे। वे संतान हेतु दुआओं की आस लेकर हज़रत इमाम हुसैन की सेवा में हाज़िर हुये। हज़रत इमाम हुसैन के आशीर्वाद से राहिब दत्त के घर एक दो नहीं बल्कि सात पुत्रों की प्राप्ति हुई। इसके कारण राजा राहिब दत्त की इमाम हुसैन के प्रति अटूट श्रद्धा हो गयी। बाद में जब राजा राहिब दत्त को पता चला कि करबला में हज़रत इमाम हुसैन को उनके परिवार के 72 लोगों के साथ ज़ालिम यज़ीद ने घेर लिया है। तो राजा राहिब दत्त अविलंब हिन्दू सैनिकों की अपनी सेना लेकर करबला के लिये प्रस्थान कर गये। परन्तु उनके करबला पहुँचने तक देर हो चुकी थी। हज़रत इमाम हुसैन अपने साथियों के साथ शहीद किये जा चुके थे। इस घटना से अत्यंत दुखी व आहत राहिब दत्त ने यज़ीद से बदला लेने का फ़ैसला किया। उन्होंने वहाँ के हुसैन समर्थक एक बहादुर योद्धा अमीर मुख़्तार को साथ लिया। जब उन्हें सूचना मिली कि यज़ीदी फ़ौज लुटे हुये हुसैनी क़ाफ़िले के साथ इमाम हुसैन का कटा हुआ सिर लेकर कूफ़ा (इराक़ी शहर ) की तरफ़ जा रही है। उस समय राहिब दत्त की सेना ने कड़ा संघर्ष कर इमाम हुसैन का सिर पुनः प्राप्त कर लिया। मोहयाल अथवा कश्मीरी ब्राह्मण, हज़रत इमाम हुसैन से अपने इसी संबध के कारण स्वयं को आज भी बड़े गर्व से हुसैनी ब्राह्मण कहते हैं। संयोग से पिछले दिनों मुझे भी इराक़ में कूफ़ा स्थित उस ऐतिहासिक स्थान पर जाने का अवसर मिला जिसे मस्जिद-ए-हनाना के नाम से जाना जाता है। यह वही जगह है जहां इमाम हुसैन की शहादत के बाद उनका कटा सिर करबला से यज़ीद के दरबार (दमिश्क, सीरिया) ले जाया जा रहा था.उसी समय नजफ़ के क़रीब इसी जगह पर इमाम हुसैन का कटा हुआ पवित्र सिर रखा गया था। आज यह मस्जिद सभी धर्मों के लोगों के लिये एक पवित्र तीर्थस्थल है, क्योंकि यह करबला की मार्मिक घटना की याद दिलाती है।यहाँ प्रतिदिन विभिन्न धर्मों व देशों के लाखों तीर्थ यात्री आते हैं श्रद्धापूर्वक अपना शीश नवाते व प्रार्थनाएं करते हैं। इसी तरह सिख धर्म में भी इमाम हुसैन के बलिदान को पूरा सम्मान दिया जाता है। कई सिख इतिहासकारों और विद्वानों ने करबला की घटना को सिख धर्म के सिद्धांतों से मेल खाने वाली सत्य और न्याय के लिए लड़ी गयी लड़ाई के रूप में वर्णित किया है। इसीलिये पंजाब में कुछ गुरुद्वारों में मोहर्रम के दौरान इमाम हुसैन की याद में विशेष आयोजन किए जाते हैं। इसी तरह विशेष रूप से मध्य पूर्व और भारत में कुछ ईसाई समुदाय के लोग भी इमाम हुसैन की शहादत को एक सार्वभौमिक बलिदान के रूप में देखते हैं। लेबनान जैसे देश में, जहाँ विभिन्न धर्मों के लोग एक साथ रहते हैं यहां ईसाई समुदाय के लोग भी आशूरा के आयोजनों में शामिल होते हैं और इमाम हुसैन के बलिदान को पूरा सम्मान देते हैं। इतना ही नहीं बल्कि भारत में पारसी और जैन समुदाय के कुछ लोग भी मोहर्रम के दौरान इमाम हुसैन के बलिदान को याद करते हैं। पंजाब के होशियारपुर में सूफ़ी राज जैन नामक एक हुसैनी भक्त ने तो अपनी क़ीमती ज़मीन बेचकर इमामबाड़ा निर्मित कराया है। और उनका पूरा परिवार हुसैन की याद में यहाँ मजलिस मातम जुलूस व ताज़ियादारी सब कुछ पूरी श्रद्धा से करता है। वास्तव में इमाम हुसैन की शहादत एक ऐसी घटना है जिसे धार्मिक संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठकर मानवता, सत्य, और न्याय के लिए उनके बलिदान के रूप में पूरी दुनिया में स्वीकार किया जाता है। दास्तान -ए-करबला को कई ग़ैर-मुस्लिम लेखकों, कवियों और विचारकों ने अपनी रचनाओं में स्थान दिया है। महात्मा गांधी ने तो कहा था कि उन्होंने इमाम हुसैन से ही अन्याय के खिलाफ अहिंसक प्रतिरोध की प्रेरणा ली। नेल्सन मंडेला भी अपने संघर्ष के लिये हज़रत हुसैन को ही अपना प्रेरणा स्रोत मानते थे। इनके अतिरिक्त रबिन्द्र नाथ टैगोर,पंडित जवाहरलाल नेहरू,डॉ राजेंद्र प्रसाद,डॉ. राधाकृष्णन, श्रीमती सरोजिनी नायडू ,मुंशी प्रेमचंद,,अंटोनी बारा -एडवर्ड ब्राउन,थॉमस कार्लाईल जैसे अनेकानेक चिंतक व विचारक शहीद -ए-करबला हज़रत इमाम हुसैन से प्रेरित थे व इन्हें अपना आदर्श मानते थे। यही वजह है कि 1450 वर्षों बाद भी आज हर क़ौम कह रही है हमारे हुसैन हैं। (यह लेखक के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) .../ 5जुलाई /2025