लेख
05-Jul-2025
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भारतीय संविधान का प्रास्तावना वाक्य — “हम भारत के लोग...” — न केवल इस देश की संप्रभुता और लोकतंत्र का परिचायक है, बल्कि यह उस जनभावना की पुष्टि करता है जो भारत को उसकी विविध भाषाओं और संस्कृतियों के माध्यम से जीवंत बनाती है। इस विशाल बहुभाषिक राष्ट्र में जहाँ सैकड़ों भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं, वहाँ यह प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या भारत का न्याय तंत्र आज भी जनमानस की भाषा से जुड़ा है? आज भी देश के अधिकतर न्यायालयों में निर्णयों की भाषा अंग्रेज़ी है, जो केवल एक सीमित तबके की भाषा है। बहुसंख्यक भारतीय आज भी निर्णय की पंक्तियाँ पढ़कर उस पर मौन रहते हैं, क्योंकि वे उसकी भाषा समझ नहीं पाते। यह स्थिति न केवल भाषिक अन्याय को दर्शाती है, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की आत्मा — समावेशन — पर एक गहरी चोट भी है। यह तथ्य चौंकाता है कि संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित 22 भाषाओं को राजभाषा का दर्जा तो प्राप्त है, किंतु जब बात न्याय की आती है, तो यह अधिकार शिथिल हो जाता है। संविधान के अनुच्छेद 348(2) में स्पष्ट प्रावधान है कि उच्च न्यायालयों में राज्य सरकार, राष्ट्रपति की सहमति से, अपनी भाषा का प्रयोग कर सकती है, किंतु अब तक केवल कुछ राज्यों ने इस दिशा में आंशिक कदम उठाए हैं। इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 19(1)(a), 14 और 21 भाषिक न्याय को सशक्त वैधानिक आधार प्रदान करते हैं — फिर भी इस अधिकार को जनमानस तक नहीं पहुँचने दिया गया। सवाल यह है कि जब प्रशासन, शिक्षा, विज्ञान और पत्रकारिता की भाषा अब भारतीय भाषाओं में सहज हो चुकी है, तब न्याय जैसी मूलभूत प्रणाली क्यों अब भी उपनिवेशकालीन ढांचे में बंधी हुई है? भाषा और न्याय के बीच की दूरी : क्या यह सचमुच लोकतंत्र है? : भारत के संविधान में समानता, स्वतंत्रता और न्याय को सर्वोच्च मूल्य के रूप में स्थान प्राप्त है, लेकिन जब कोई पीड़ित व्यक्ति न्यायालय में प्रवेश करता है और अपने जीवन की सबसे गंभीर समस्या पर सुनवाई किसी ऐसी भाषा में होती है जो उसके समझ के बाहर है, तो क्या यह समानता और न्याय की भावना के अनुरूप है? वास्तविकता यह है कि भाषा की बाधा न्याय की सुलभता में सबसे बड़ा अवरोध बन चुकी है। एक साधारण ग्रामीण व्यक्ति, जो केवल अपनी मातृभाषा जानता है, वह न्यायालय के परिसर में आते ही असहाय हो जाता है। वकील से बात करने के लिए दुभाषिए की ज़रूरत पड़ती है, याचिका की भाषा उसे समझ नहीं आती और न्यायाधीश का निर्णय भी उसके लिए एक ‘कूटभाषा’ बना रहता है। यह स्थिति केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि करोड़ों भारतवासियों की है। कई बार यह भी देखा गया है कि गरीब, अशिक्षित, ग्रामीण अथवा भाषिक अल्पसंख्यकों को न्याय की प्रक्रिया से इसलिए वंचित कर दिया जाता है क्योंकि वे ‘उचित भाषा’ में अपनी बात नहीं रख पाते। यह भाषिक भेदभाव संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का स्पष्ट उल्लंघन है। संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित ‘न्याय – सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक’ की भावना तब तक अधूरी रहेगी, जब तक भाषाई बाधाओं को दूर नहीं किया जाएगा। यह विरोधाभास इसलिए भी विडंबनापूर्ण है क्योंकि संसद में अधिकांश कानून हिंदी अथवा अंग्रेज़ी में प्रस्तुत होते हैं, राज्य विधानसभाओं में बहुसंख्यक कार्य स्थानीय भाषाओं में होते हैं, लेकिन न्यायालयों में अभी भी अंग्रेज़ी का आधिपत्य है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि डिजिटल इंडिया, ई-कोर्ट्स और तकनीकी सुलभता के इस युग में भारतीय भाषाओं में न्याय उपलब्ध कराना न तो असंभव है, न ही तकनीकी रूप से जटिल। देश के पास ऐसा डिजिटल तंत्र और अनुवाद संसाधन मौजूद हैं जिससे सर्वोच्च न्यायालय में भी तुरंत भारतीय भाषाओं में निर्णय लिखे जा सकते हैं। लेकिन इच्छाशक्ति की कमी और परंपरागत संरचना के दबावों ने इसे बाधित कर रखा है। यह स्थिति केवल तकनीकी समाधान से नहीं, जन-जागरण और जन-दबाव से ही बदलेगी। संवैधानिक आधार और भाषिक न्याय की गूंज : अधिकार का दस्तावेज़, केवल काग़ज़ नहीं : भारतीय संविधान को केवल एक कानूनी दस्तावेज़ मान लेना उसकी आत्मा का अपमान है। यह ग्रंथ उन लाखों-करोड़ों आवाज़ों की प्रतिनिधि है, जिनमें से अधिकांश भारतीय भाषाओं में बोलती, सोचती और महसूस करती हैं। जब संविधान निर्माताओं ने आठवीं अनुसूची के अंतर्गत 14 भाषाओं को स्थान दिया और बाद में यह संख्या बढ़कर 22 हो गई, तो उनका उद्देश्य यह था कि भारत की विविध भाषाएँ शासन, प्रशासन और न्याय की मुख्यधारा में हों। अनुच्छेद 343 से लेकर अनुच्छेद 351 तक जो भाषा संबंधी व्यवस्थाएँ की गईं, वे किसी एक भाषा को थोपने के लिए नहीं, बल्कि देश की भाषिक विविधता को सम्मान देने के लिए थीं। परंतु विडंबना यह है कि इन प्रावधानों को न्यायपालिका में लागू करने की दिशा में नीतिगत और व्यवहारिक कोताही अब तक बनी हुई है। अनुच्छेद 348(2) के तहत राज्य सरकारें उच्च न्यायालयों में अपनी भाषा के प्रयोग की अनुमति राष्ट्रपति से ले सकती हैं। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और पश्चिम बंगाल जैसे कुछ राज्यों ने इस दिशा में पहल भी की, लेकिन यह पहल केवल आंशिक और औपचारिक रही। सर्वोच्च न्यायालय अब भी अंग्रेज़ी के एकाधिकार से बंधा है, जबकि संविधान में ऐसा कोई स्पष्ट निषेध नहीं है कि उच्चतम न्यायालय केवल अंग्रेज़ी में ही कार्य करे। वास्तव में, यह एक प्रशासनिक और ऐतिहासिक परंपरा बन गई है, न कि संवैधानिक बाध्यता। अनुच्छेद 14 में समानता की बात की गई है, लेकिन जब एक पक्षकार को अपने ही मुकदमे का फैसला समझ में न आए, तो वह समानता की भावना कैसे महसूस करेगा? अनुच्छेद 21, जिसमें जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात की गई है, वह ‘न्यायिक सुनवाई’ के बिना अधूरा है और यदि सुनवाई ऐसी भाषा में हो जिसे व्यक्ति समझ ही न पाए, तो वह जीवन के अधिकार का उपहास है। इसी तरह अनुच्छेद 350 यह सुनिश्चित करता है कि हर नागरिक को किसी भी सरकारी कार्य में, जिसमें न्यायिक कार्य भी शामिल हैं, अपनी भाषा में आवेदन देने का अधिकार है। लेकिन व्यवहार में अदालतों में इस अधिकार को न केवल नकारा जाता है, बल्कि ऐसी कोई प्रणाली ही नहीं विकसित की गई है जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्रत्येक याचिकाकर्ता, प्रतिवादी या गवाह अपनी भाषा में बात कह सके और समझ सके। यही कारण है कि “न्याय अपनी भाषा में” आंदोलन आज केवल भाषिक स्वाभिमान का नहीं, बल्कि संवैधानिक पुनर्स्मरण का आंदोलन बन गया है — एक ऐसा आंदोलन जो संविधान के उस वास्तविक आत्म को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहा है, जिसे समय और सत्ता की सुविधाओं ने कुंद कर दिया है। न्यायिक संरचना में अंग्रेज़ी प्रभुत्व का उपनिवेशवादी शेष : स्वराज्य अधूरा क्यों है? : 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिली, लेकिन न्यायिक भाषा में आज भी वही उपनिवेशकालीन मानसिकता जीवित है जिसने भारत के आम नागरिक को ‘प्रशासित’ वस्तु के रूप में देखा, न कि ‘सहभागी’ के रूप में। भारतीय न्याय प्रणाली की संरचना ब्रिटिश औपनिवेशिक ढांचे पर आधारित रही है, जो स्पष्ट रूप से शासक और शासित के बीच भाषा की दीवार खड़ी करता है। अंग्रेज़ों ने भारतीयों को उनकी ही भाषा में न्याय देने की अवधारणा को अस्वीकार किया था, क्योंकि इससे सत्ता के केंद्रीकरण को खतरा होता। दुर्भाग्यवश, स्वतंत्र भारत ने इस एकतरफा भाषा नीति को उसी रूप में अपनाया और आज भी न्यायपालिका अंग्रेज़ी भाषा की ऊँची दीवार के भीतर ही कार्य कर रही है। इस स्थिति से सबसे अधिक प्रभावित वे लोग होते हैं जो समाज के हाशिये पर हैं — अनुसूचित जातियाँ, जनजातियाँ, ग्रामीण, महिलाएँ, अशिक्षित और गरीब वर्ग — जो अपने मामलों को पूरी तरह न तो कह पाते हैं, न ही समझ पाते हैं। यह एक गहरे स्तर का बहिष्कार है, जो न दिखता है, न स्वीकार किया जाता है, लेकिन जिसकी पीड़ा हर उस भारतीय के दिल में है जो न्यायालय की चौखट पर अपनी मातृभाषा में रोता है। क्या यह संविधान की मूल भावना का उल्लंघन नहीं है? क्या यह उन सपनों का हनन नहीं है जो गांधी, अंबेडकर, नेहरू और हजारों स्वतंत्रता सेनानियों ने देखे थे, जिन्होंने भारतीय नागरिक को उसके अधिकारों का वास्तविक स्वामी मानने की कल्पना की थी? आज जब देश ‘डिजिटल इंडिया’, ‘इंडिया@100’, ‘आत्मनिर्भर भारत’ और ‘विश्वगुरु’ की बात कर रहा है, तब क्या यह उचित है कि हमारी न्यायपालिका अब भी जनता से संवाद करने में असमर्थ हो? भाषा केवल माध्यम नहीं, बल्कि संपर्क और समानता का सेतु है। न्यायपालिका की भाषा अगर जनता की भाषा से नहीं जुड़ती, तो वह अपनी वैधता खो देती है। भारत में भाषिक विविधता को बाधा नहीं, बल्कि लोकतंत्र की शक्ति के रूप में देखे जाने की आवश्यकता है। अपनी भाषा में न्याय आंदोलन : एक जन-जागरण की नई लहर : “अपनी भाषा में न्याय” आंदोलन कोई आकस्मिक प्रतिक्रिया नहीं है; यह वर्षों से दबे उस असंतोष का जन-अभिव्यक्ति है, जो अब स्पष्ट और सशक्त रूप में सामने आ रहा है। यह आंदोलन न केवल भाषिक समानता की मांग करता है, बल्कि न्याय को हर भारतीय की पहुँच तक लाने का संकल्प है। 4 जुलाई को जंतर मंतर, नई दिल्ली में आयोजित होने वाली सभा केवल एक प्रदर्शन नहीं, बल्कि संविधान की मूल भावना को पुनर्स्थापित करने का प्रयास है। यह आंदोलन उन लाखों भारतीयों की ओर से उठ रही आवाज़ है जो वर्षों से न्यायालय की भाषा से कटे हुए हैं। यह शुद्ध भाषिक स्वाभिमान का आंदोलन नहीं, यह लोकतंत्र को पुनः जनता के हाथों में सौंपने का प्रयास है। इस आंदोलन की विशेषता यह है कि इसमें केवल विद्वान, वकील या शिक्षाविद नहीं, बल्कि आम किसान, छात्र, गृहिणी, लेखक, मजदूर, साहित्यकार, रंगकर्मी, सामाजिक कार्यकर्ता — सभी शामिल हैं। यह आंदोलन इस तथ्य को उजागर करता है कि भारत का नागरिक अब मूक नहीं रहना चाहता; वह अब अपने अधिकारों के लिए बोलना चाहता है — और अपनी ही भाषा में। आंदोलन के नारे जैसे — “न्याय वही, जो अपनी भाषा में हो!”, “पराई भाषा में नहीं, अब न्याय अपनी ज़ुबान में चाहिए!”, “संविधान का सम्मान – भाषिक न्याय का अभियान!” — लोगों के हृदय में उतर रहे हैं और नई पीढ़ी को जागृत कर रहे हैं। महत्वपूर्ण यह भी है कि यह आंदोलन केवल हिंदी या किसी एक भाषा की बात नहीं कर रहा, बल्कि सभी 22 संवैधानिक भाषाओं के लिए न्याय की मांग कर रहा है। यह भारत की भाषाई विविधता को उसकी वास्तविक शक्ति के रूप में देखता है और न्यायपालिका से यही अपेक्षा करता है कि वह इस विविधता को सम्मान दे। यह आंदोलन न्याय को केवल अदालतों की दीवारों तक सीमित नहीं रखना चाहता, बल्कि उसे जनमन की गहराइयों तक पहुँचाना चाहता है — उसी भाषा में जिसे जनता अपने स्वप्नों और संघर्षों में जीती है। जिस देश में संविधान ने “न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता” को राष्ट्र की आधारशिला घोषित किया हो, वहाँ न्यायपालिका की भाषा यदि नागरिकों को पराई लगे, तो यह केवल प्रशासनिक असुविधा नहीं, बल्कि एक लोकतांत्रिक विफलता है। “न्याय वही, जो समझ में आए” — यह एक आमजन की स्वाभाविक मांग है, जिसे अब तक ‘व्यवस्थागत परंपरा’ के नाम पर अनदेखा किया गया है। स्वतंत्रता के 77 वर्षों बाद भी अगर एक नागरिक अपनी ही अदालत में न्याय की भाषा को समझने से वंचित है, तो इसका अर्थ यह है कि स्वतंत्रता केवल औपचारिक रह गई है, वह व्यक्ति की चेतना तक नहीं पहुँची है। किसी भी राष्ट्र की न्यायपालिका तब तक पूर्ण नहीं मानी जा सकती, जब तक उसकी भाषा उसके नागरिकों की भाषा न हो। अब समय आ गया है कि इस बहस को केवल भाषाई रेखाओं के पार ले जाया जाए। यह कोई “हिंदी बनाम अंग्रेज़ी” या “एक भाषा बनाम बहुभाषा” की संकीर्ण चर्चा नहीं है। यह उन करोड़ों भारतवासियों के मौलिक अधिकारों की बात है, जो संविधान द्वारा प्रदत्त तो हैं, पर व्यवहार में अनुपलब्ध हैं। यह किसी एक वर्ग, समुदाय या क्षेत्र की नहीं, पूरे भारतवर्ष की मांग है कि उन्हें उनकी भाषा में न्याय मिले — उसी भाषा में जिसमें वे जीते हैं, संघर्ष करते हैं और संविधान की प्रस्तावना को अपने मन में धारण करते हैं। “हम भारत के लोग” केवल एक घोषवाक्य नहीं, बल्कि इस राष्ट्र की आत्मा है और जब तक यह आत्मा न्यायिक व्यवस्था में परिलक्षित नहीं होती, तब तक भारत का लोकतंत्र अधूरा है। आज तकनीक ने वह सब कुछ संभव बना दिया है जो कभी एक स्वप्न मात्र था। तत्काल अनुवाद प्रणाली, AI आधारित वॉयस-टू-टेक्स्ट सिस्टम, बहुभाषिक ई-कोर्ट्स, वर्चुअल न्याय मंच — ये सब अब कल्पना नहीं, वास्तविकताएँ हैं। यदि सरकार और न्यायपालिका इस दिशा में ठोस नीतिगत निर्णय ले, तो अगले कुछ वर्षों में भारत के सभी उच्च न्यायालयों और अंततः सर्वोच्च न्यायालय में भी बहुभाषिक न्यायिक व्यवस्था लागू की जा सकती है। इसके लिए राष्ट्रीय न्यायिक भाषा नीति, बहुभाषिक विधिक शब्दावली का डिजिटलीकरण, न्यायिक अधिकारियों और अधिवक्ताओं के भाषा प्रशिक्षण कार्यक्रम, अनुवादकों का संवैधानिक स्तर पर समावेश और प्रत्येक निर्णय को भाषिक रूपांतरण हेतु एक केंद्रीकृत तंत्र का निर्माण आवश्यक होगा। यह भी ज़रूरी है कि न्यायपालिका यह माने कि भाषा केवल औजार नहीं है — यह सामाजिक न्याय का माध्यम है। जिस प्रकार आरक्षण केवल नौकरी का अवसर नहीं, बल्कि सामाजिक बराबरी का यंत्र है; उसी प्रकार अपनी भाषा में न्याय, केवल सुविधा नहीं बल्कि गरिमा की पुनर्स्थापना है। यह केवल शब्दों की बात नहीं, यह ‘सम्मान’ की बात है। जब एक महिला घरेलू हिंसा की शिकायत दर्ज कराती है, जब एक मजदूर मज़दूरी के लिए केस करता है, जब एक किसान ज़मीन के अधिकार के लिए लड़ता है, या जब एक छात्र विश्वविद्यालय के अन्यायपूर्ण निर्णय के खिलाफ अपील करता है — और ये सब यदि अपनी मातृभाषा में कहने और समझने में सक्षम नहीं हैं — तो यह लोकतंत्र की बुनियाद को कमजोर करता है। इसलिए अब प्रश्न यह नहीं कि “क्या अपनी भाषा में न्याय संभव है?” बल्कि प्रश्न है — “कब और क्यों यह अभी तक लागू नहीं हुआ?” यदि 22 भाषाएँ संसद में बोली जा सकती हैं, यदि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति कई भाषाओं में देश को संबोधित कर सकते हैं, यदि सर्वोच्च न्यायालय अपने फैसलों को अब वेबसाइट पर हिंदी, तमिल, गुजराती आदि में डालना शुरू कर चुका है — तो फिर मूल सुनवाई और आदेश उसी भाषा में क्यों नहीं? यही कारण है कि “अपनी भाषा में न्याय आंदोलन” आज एक नई राष्ट्रीय चेतना को जन्म दे रहा है। यह आंदोलन वह सेतु बन रहा है जो संवैधानिक अधिकारों और उनके वास्तविक क्रियान्वयन के बीच की खाई को पाट सकता है। यह आंदोलन न्यायिक क्षेत्र में उसी प्रकार का परिवर्तनकारी दबाव बना सकता है जैसा शिक्षा के अधिकार या सूचना के अधिकार आंदोलनों ने किया था। यह केवल एक याचना नहीं, यह नागरिकों का सामूहिक संकल्प है। यह एक आह्वान है उन सभी संवेदनशील न्यायाधीशों, वकीलों, विधायकों और नीति निर्माताओं से जो मानते हैं कि न्याय का पहला और अंतिम उद्देश्य है — “हर नागरिक को यह अनुभव कराना कि वह सुना गया, समझा गया और सम्मानित किया गया।” अंततः यह आंदोलन उस गांधीवादी कल्पना का साकार रूप है जिसमें भारत का सबसे अंतिम व्यक्ति भी, अपनी भाषा में, अपनी समस्या को न्यायपालिका के समक्ष रख सके और न्याय उसी भाषा में प्राप्त करे। यह अंबेडकर की उस चेतना की पुष्टि है, जिसमें “न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता” केवल संविधान की किताबों में नहीं, भारत के हर कोने में जीवंत हो। यह संविधान के अनुच्छेदों को केवल दस्तावेज़ से जीवंत यथार्थ में बदलने का प्रयास है। और इसलिए — अब और नहीं इंतज़ार! हमें चाहिए : न्याय — अपनी भाषा में। संविधान की आत्मा को बचाना है, तो न्याय को लोगों की भाषा में लाना ही होगा। यही लोकतंत्र का असली विजय होगा। ईएमएस/05/07/2025