तिब्बत हमेशा अपनी आजादी के लिए लगभग 70सालों से चीन के चंगुल से अपने आप को छुड़ाने की गुहार विश्व पटल पर लगा रहा हैदुनिया में आज कोई ऐसा देश खोजना मुश्किल है, जिस पर इतिहास के किसी दौर में किसी विदेशी ताक़त का प्रभाव या अधिपत्य न रहा हो. तिब्बत के मामले में विदेशी प्रभाव या दखलंदाज़ी तुलनात्मक रूप से बहुत ही सीमित समय के लिए रही थी इस शोध पत्र में उनके स्वायित्व व चीन के अमानवीय व्यवहार जो भगवान बुद्ध के शांति के मार्ग पर चलने के लिए तिब्बत शरणार्थी शिविरों जो भारत में अपने देश की आजादी के लिए संघर्षरत है उस पर विश्व पटल पर मानवाधिकार हनन के लिए बहुत ही मुश्किल लेकिन उनकी आजादी की मांग करें क्योंकि इससे मानवता की रक्षा होती है. हिमालय के उत्तर में स्थित तिब्बत 12 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ और अशांति से भरा एक कटा हुआ इलाका है. इसका इतिहास कई तरह के झटकों और परेशानियों से भरा हुआ है. 1013 ई0 में नेपाल से धर्मपाल तथा अन्य बौद्ध विद्वान् तिब्बत गए। 1042 ई0 में दीपंकर श्रीज्ञान अतिशा तिब्बत पहुँचे और बौद्ध धर्म का प्रचार किया। शाक्यवंशियों का शासनकाल 1207 ई0 में प्रांरभ हुआ। मंगोलों का अंत 1720 ई0 में चीन के माँछु प्रशासन द्वारा हुआ। तत्कालीन साम्राज्यवादी अंग्रेंजों ने, जो दक्षिण पूर्व एशिया में अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सफलता प्राप्त करते जा रहे थे, यहाँ भी अपनी सत्ता स्थापित करनी चाही, पर 1788-1792 ई0 के गुरखों के युद्ध के कारण उनके पैर यहाँ नहीं जम सके। परिणाम स्वरूप 19 वीं शताब्दी तक तिब्बत ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थिर रखी यद्यपि इसी बीच लद्दाख़ पर कश्मीर के शासक ने तथा सिक्किम पर अंग्रेंजों ने आधिपत्य जमा लिया। अंग्रेंजों ने अपनी व्यापारिक चौकियों की स्थापना के लिये कई असफल प्रयत्न किया। इतिहास के मुताबिक तिब्बत को दक्षिण में नेपाल से भी कई बार युद्ध करना पड़ा और नेपाल ने इसको हराया। नेपाल और तिब्बत की सन्धि के मुताबिक तिब्बत को हर साल नेपाल को ५००० नेपाली रुपये हरज़ाना भरना पड़ा। इससे आजित होकर नेपाल से युद्ध करने के लिये चीन से मदद माँगी चीन के मदद से उसने नेपाल से छुटकारा तो पा लिया लेकिन इसके बाद 1906-07 ई0 में तिब्बत पर चीन ने अपना अधिकार कर लिया और याटुंग ग्याड्से एवं गरटोक में अपनी चौकियाँ स्थापित की। 1912 ई0 में चीन से मांछु शासन अंत होने के साथ तिब्बत ने अपने को पुन: स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया। सन् 1913-14 में चीन, भारत एवं तिब्बत के प्रतिनिधियों की बैठक शिमला में हुई जिसमें इस विशाल पठारी राज्य को भी भागों में विभाजित कर दिया गया: 23 मई, 1951 को तिब्बत ने चीन के इस विवादित समझौते पर साइन किए थे. 13वीं शातब्दी में तिब्बत, मंगोल साम्राज्य का हिस्सा था और जीत के बाद से इसे हमेशा स्वायत्तता हासिल रही. इस सरकार की विस्तारवादी नीतियों के चलते 1950 में चीन ने हजारों सैनिकों के साथ तिब्बत पर हमला कर दिया। करीब 8 महीनों तक तिब्बत पर चीन का कब्जा चलता रहा। आखिरकार तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा ने 17 बिंदुओं वाले एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के बाद तिब्बत आधिकारिक तौर पर चीन का हिस्सा बन मुख्यतः बौद्ध धर्म को मानने वाले लोगों के तिब्बत सुदूर इलाके को संसार की छत के नाम से भी जाना जाता है. चीन में तिब्बत का दर्जा एक स्वायत्तशासी क्षेत्र के तौर पर है.चीन का कहना है कि इस इलाके पर सदियों से उसकी संप्रभुता रही है जबकि बहुत से तिब्बती लोग अपनी वफादारी अपने निर्वासित आध्यात्मिक नेता दलाई लामा के प्रति रखते हैं.दलाई लामा को उनके अनुयायी एक जीवित ईश्वर के तौर पर देखते हैं तो चीन उन्हें एक अलगाववादी ख़तरा मानता है.तिब्बत का इतिहास बेहद उथल-पुथल भरा रहा है. कभी वो एक खुदमुख़्तार इलाके के तौर पर रहा तो कभी मंगोलिया और चीन के ताक़तवर राजवंशों ने उस पर हुकूमत की. लेकिन साल 1950 में चीन ने इस इलाके पर अपना झंडा लहराने के लिए हज़ारों की संख्या में सैनिक भेज दिए. तिब्बत के कुछ इलाकों को स्वायत्तशासी क्षेत्र में बदल दिया गया और बाक़ी इलाकों को इससे लगने वाले चीनी प्रांतों में मिला दिया गया.लेकिन साल 1959 में चीन के ख़िलाफ़ हुए एक नाकाम विद्रोह के बाद 14वें दलाई लामा को तिब्बत छोड़कर भारत में शरण लेनी पड़ी जहां उन्होंने निर्वासित सरकार का गठन किया. साठ और सत्तर के दशक में चीन की सांस्कृतिक क्रांति के दौरान तिब्बत के ज़्यादातर बौद्ध विहारों को नष्ट कर दिया गया. माना जाता है कि दमन और सैनिक शासन के दौरान हज़ारों तिब्बतियों की जाने गई थीं.चीन और तिब्बत के बीच विवाद, तिब्बत की क़ानूनी स्थिति को लेकर है. चीन कहता है कि तिब्बत तेरहवीं शताब्दी के मध्य से चीन का हिस्सा रहा है लेकिन तिब्बतियों का कहना है कि तिब्बत कई शताब्दियों तक एक स्वतन्त्र राज्य था और चीन का उसपर निरंतर अधिकार नहीं रहा. मंगोल राजा कुबलई ख़ान ने युआन राजवंश की स्थापना की थी और तिब्बत ही नहीं बल्कि चीन, वियतनाम और कोरिया तक अपने राज्य का विस्तार किया था.फिर सत्रहवीं शताब्दी में चीन के चिंग राजवंश के तिब्बत के साथ संबंध बने. 260 साल के रिश्तों के बाद चिंग सेना ने तिब्बत पर अधिकार कर लिया. लेकिन तीन साल के भीतर ही उसे तिब्बतियों ने खदेड़ दिया और 1912 में तेरहवें दलाई लामा ने तिब्बत की स्वतन्त्रता की घोषणा की. फिर 1951 में चीनी सेना ने एक बार फिर तिब्बत पर नियन्त्रण कर लिया और तिब्बत के एक शिष्टमंडल से एक संधि पर हस्ताक्षर करा लिए जिसके अधीन तिब्बत की प्रभुसत्ता चीन को सौंप दी गई. दलाई लामा भारत भाग आए और तभी से वे तिब्बत की स्वायत्तता के लिए संघर्ष कर रहे हैं.जब 1949 में चीन ने तिब्बत पर क़ब्ज़ा किया तो उसे बाहरी दुनिया से बिल्कुल काट दिया.तिब्बत में चीनी सेना तैनात कर दी गई, राजनीतिक शासन में दख़ल किया गया जिसकी वजह से तिब्बत के नेता दलाई लामा को भाग कर भारत में शरण लेनी पड़ी.फिर तिब्बत का चीनीकरण शुरू हुआ और तिब्बत की भाषा, संस्कृति, धर्म और परम्परा सबको निशाना बनाया गया.किसी बाहरी व्यक्ति को तिब्बत और उसकी राजधानी ल्हासा जाने की अनुमति नहीं थी, इसीलिये उसे प्रतिबन्धित शहर कहा जाता है. विदेशी लोगों के तिब्बत आने पर ये पाबंदी 1963 में लगाई गई थी. हालांकि 1971 में तिब्बत के दरवाज़े विदेशी लोगों के लिए खोल दिए गए थे.चीन और दलाई लामा का इतिहास ही चीन और तिब्बत का इतिहास है. सन 1409 में जे सिखांपा ने जेलग स्कूल की स्थापना की थी. इस स्कूल के माध्यम से बौद्ध धर्म का प्रचार किया जाता था.यह जगह भारत और चीन के बीच थी जिसे तिब्बत नाम से जाना जाता है. इसी स्कूल के सबसे चर्चिच छात्र थे गेंदुन द्रुप. गेंदुन आगे चलकर पहले दलाई लामा बने. बौद्ध धर्म के अनुयायी दलाई लामा को एक रूपक की तरह देखते हैं. इन्हें करुणा के प्रतीक के रूप में देखा जाता है. दूसरी तरफ इनके समर्थक अपने नेता के रूप में भी देखते हैं. दलाई लामा को मुख्य रूप से शिक्षक के तौर पर देखा जाता है. लामा का मतलब गुरु होता है. लामा अपने लोगों को सही रास्ते पर चलने की प्रेरणा देते हैं. तिब्बती बौद्ध धर्म के नेता दुनिया भर के सभी बौद्धों का मार्गदर्शन करते हैं.1630 के दशक में तिब्बत के एकीकरण के वक़्त से ही बौद्धों और तिब्बती नेतृत्व के बीच लड़ाई है. मान्चु, मंगोल और ओइरात के गुटों में यहां सत्ता के लिए लड़ाई होती रही है. अंततः पांचवें दलाई लामा तिब्बत को एक करने में कामयाब रहे थे. इसके साथ ही तिब्बत सांस्कृतिक रूप से संपन्न बनकर उभरा था. तिब्बत के एकीकरण के साथ ही यहां बौद्ध धर्म में संपन्नता आई. जेलग बौद्धों ने 14वें दलाई लामा को भी मान्यता दी. दलाई लामा के चुनावी प्रक्रिया को लेकर ही विवाद रहा है. 13वें दलाई लामा ने 1912 में तिब्बत को स्वतंत्र घोषित कर दिया था. करीब 40 सालों के बाद चीन के लोगों ने तिब्बत पर आक्रमण किया. चीन का यह आक्रमण तब हुआ जब वहां 14वें दलाई लामा के चुनने की प्रक्रिया चल रही थी. तिब्बत को इस लड़ाई में हार का सामना करना पड़ा. कुछ सालों बाद तिब्बत के लोगों ने चीनी शासन के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया. ये अपनी संप्रभुता की मांग करने लगे.हालांकि विद्रोहियों को इसमें सफलता नहीं मिली. दलाई लामा को लगा कि वह बुरी तरह से चीनी चंगुल में फंस जाएंगे. इसी दौरान उन्होंने भारत का रुख किया. दलाई लामा के साथ भारी संख्या में तिब्बती भी भारत आए थे. यह साल 1959 का था. चीन को भारत में दलाई लामा को शरण मिलना अच्छा नहीं लगा. तब चीन में माओत्से तुंग का शासन था. दलाई लामा और चीन के कम्युनिस्ट शासन के बीच तनाव बढ़ता गया. दलाई लामा को दुनिया भर से सहानुभूति मिली लेकिन अब तक वह निर्वासन की ही ज़िंदगी जी रहे हैं.चीन-तिब्बत संबंधों से जुड़े कई सवाल हैं जो लोगों के मन में अक्सर आते हैं. जैसे कि क्या तिब्बत चीन का हिस्सा है? चीन के नियंत्रण में आने से पहले तिब्बत कैसा था? और इसके बाद क्या बदल गया? तिब्बत की निर्वासित सरकार का कहना है, इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि इतिहास के अलग-अलग कालखंडों में तिब्बत विभिन्न विदेशी शक्तियों के प्रभाव में रहा था. मंगोलों, नेपाल के गोरखाओं, चीन के मंचू राजवंश और भारत पर राज करने वाले ब्रितानी शासक, सभी की तिब्बत के इतिहास में कुछ भूमिकाएं रही हैं. लेकिन इतिहास के दूसरे कालखंडों में वो तिब्बत था जिसने अपने पड़ोसियों पर ताक़त और प्रभाव का इस्तेमाल किया और इन पड़ोसियों में चीन भी शामिल था.1951में चीन ने एक शांति प्रिय देश को गुलाम बनाकर भगवान बुद्ध की पावन नगरी को तहस नहस कर दिया है सन्1961 में तिब्बत के 14वें धर्म गुरु दलाई लामा ने लगभग 85हजार अनुयाई के साथ भारत के धर्मशाला( एचपी) में अपना अस्तित्व को बनाए रखने के लिए अपना अस्थाई स्ट्रक्चर सीटीए के रूप में अपने वजूद को बचाने के लिए बहुत ही मुश्किल समय में सरकार चला रहा है और भारत भी उनके साथ हिम्मत से खड़ा है 48मंत्रिमंडल बाले तिब्बत के अस्थाई सरकार को चलाने के लिए विश्व से अपनी आजादी की मांग कर रहा है हालांकि भारत ने मैत्रीपूर्ण संबंध में कोई कमी नहीं होने दिया है संसदीय मामलों के केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा कि मौजूदा दलाई लामा के अलावा किसी को भी 15वें दलाई लामा के बारे में फैसला करने का अधिकार नहीं है। उन्होंने यह टिप्पणी 14वें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो द्वारा 6 जुलाई को 90 वर्ष पूरे करने के बाद की, जिसके बाद उन्होंने दलाई लामा को पूर्ण अधिकार सौंपे। दलाई लामा ने चीन को सीधी चुनौती देते हुए कहा है कि उनके नाम से संचालित सदियों पुरानी आध्यात्मिक संस्था उनकी मृत्यु के बाद भी जारी रहेगी और उनके उत्तराधिकारी की पहचान करने का अधिकार केवल उनके करीबी लोगों को होगा न कि बीजिंग को। इस सप्ताहांत अपने 90वें जन्मदिन से पहले प्रार्थना समारोह के दौरान 19 जून बुधवार को धर्मशाला, में संदेश में 14वें दलाई लामा ने कहा कि उनके मामलों का प्रबंधन करने वाला गदेन फोडरंग ट्रस्ट उनके पुनर्जन्म की खोज की देखरेख करेगा। उन्होंने धर्मशाला में कहा, इस मामले में किसी और को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। धर्मशाला उत्तर भारत का पहाड़ी शहर है, जो निर्वासित तिब्बती सरकार की सीट है। पिछली परंपरा के अनुसार, मेरे पुनर्जन्म की खोज और 15वें दलाई लामा के नामकरण का काम किया जाएगा। दलाई लामा ने पहले संकेत दिया था कि वे इस कतार में सबसे आखिरी हो सकते हैं, लेकिन उन्होंने कहा कि वरिष्ठ आध्यात्मिक नेताओं के साथ परामर्श और चीनी शासित तिब्बत सहित तिब्बती जनता की अपील ने उन्हें इसके विपरीत समझा दिया है। उन्होंने वरिष्ठ बौद्ध भिक्षुओं की सभा में कहा, इन सभी अनुरोधों के अनुसार, मैं पुष्टि करता हूं कि दलाई लामा की संस्था जारी रहेगी। उन्होंने कहा कि स्पष्ट लिखित निर्देश छोड़े जाएंगे, लेकिन उन्होंने उनकी विषय-वस्तु के बारे में विस्तार से नहीं बताया।एशिया में बहने वाली कई बड़ी नदियां तिब्बनत से ही निकलती हैं. ऐसे में जब भी पानी की किल्लत होगी ये इलाका भारत के लिए फायदे साबित होगा. यहां पर लिथियम, यूरेनियम और सबसे अहम यहां भरपूर मात्रा में पाया जाता है अयस्कों के खनन के लिए तिब्बित बहुत महत्वपूर्ण है यूरेनियम के भंडार होने के कारण तिब्बत परमाणु उद्योग के लिए अच्छा साबित होगा. तिब्बत भारत और चीन के बीच मुख्य मुद्दा है. मगर इसका हल शांति से हो. तिब्बरत समस्यां का हल निकलने के बाद भारत और चीन के बीच जो सीमा विवाद है, उसका हल भी निकल आएगा। ईएमएस / 07 जुलाई 25