बिहार विधानसभा चुनाव के पूर्व चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची मैं संशोधन के लिए जो नियम लागू किए हैं। उसके बाद एक बार फिर 2016 की नोटबंदी चर्चा में आ गई है। नोटबंदी ने देश को जिस आर्थिक अस्थिरता और अव्यवस्था में झोंका था। उसकी गूंज आज भी गरीबों और मध्यम वर्ग की स्मृतियों में ताजा है। उस समय सरकार ने कहा था, नोटबंदी, काला धन और भ्रष्टाचार खत्म करने की दिशा में ‘ऐतिहासिक’ कदम है। नोटबंदी हुई लोगों को वर्षों तक इसका खामयिजा भुगतना पड़ा। नोटबंदी का कोई नतीजा नहीं निकला। जितने नोट प्रचलन में थे, वह सब वापस आ गए। ना काला धन कम हुआ, नाही भ्रष्टाचार खत्म हुआ। उल्टे भ्रष्टाचार बढ़ गया, काला धन भी बड़ी तेजी के साथ बढ़ता जा रहा है। स्विस बैंक में तीन गुना ज्यादा काला धन जमा है। नतीजा? जीरो बटा सन्नाटा रहा। अब उसी तर्ज पर बिहार में ‘मतदाता सूची पुनर्निरीक्षण’ की प्रक्रिया शुरू की गई है। इसको देखकर यह कहने में कोई हिचक नहीं रहा है। देश मैं जिस तरह से नोटबंदी लागू की गई थी। अब ‘वोटबंदी’ के रूप में फिर एक बार उसी तरह की कार्यवाही सामने आ गई है। मतदाता के अधिकार को बनाए रखने के लिए अपने जन्म से लेकर माता-पिता के जन्म के कागज एकत्रित करना पड़ रहे हैं। मां बाप ने गलती करी,उनका जन्म प्रमाण पत्र नहीं बना। लाखों माता-पिता स्कूल पढ़ने भी नहीं गए। 2003 के पहले और बाद का जन्म प्रमाण पत्र कहीं से नहीं मिल रहा है। अब उन्के बच्चों को मत के अधिकार से वंचित किया जा रहा है। पूर्णिया से सांसद पप्पू यादव द्वारा इस मुद्दे को जिस आक्रामकता से उठाया गया है। वह सिर्फ एक राजनीतिक प्रतिक्रिया नहीं है। बल्कि लोकतंत्र की रक्षा तथा नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा का बिगुल पप्पू यादव ने बिहार में बजा दिया है। चुनाव आयोग द्वारा वोटर लिस्ट से कथित फर्जी मतदाताओं को हटाने के नाम पर नागरिकों से ऐसे दस्तावेजों की मांग की जा रही है। जो बिहार जैसे गरीब और पिछड़े राज्य के 50 फीसदी नागरिकों के पास उपलब्ध नहीं हैं। आधार कार्ड, राशन कार्ड और मनरेगा जॉब कार्ड को चुनाव आयोग ने अमान्य कर दिया है। चुनाव आयोग द्वारा ऐसे दस्तावेज मांगे जा रहे हैं।जो या तो सरकारी नौकरी करने वालों के पास हैं। या शहरी पढ़े-लिखे वर्ग के मिडिल और धनाड्य वर्ग के पास हैं। चुनाव आयोग की इस कार्रवाई से करोड़ों गरीबों के मत देने के अधिकार छिनने का खतरा बिहार में पैदा हो गया है। चुनाव आयोग का यह नियम संविधान के अनुच्छेद 326 के उस मूलभूत सिद्धांत पर हमला है। जो हर भारतीय नागरिक को मताधिकार का अधिकार देता है। सवाल यह है, जब आधार को सरकार हर स्कीम के लिए मान्य करती है। जब 3 महीने के अंदर बिहार विधानसभा के चुनाव होने हैं। उस समय आधार कार्ड को नकारना और मताधिकार छीनना चिंता का विषय है। यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है। चुनाव आयोग की इस कार्रवाई से 20% मतदाता सूची से बाहर किये जाने की आशंका जताई जा रही हैं। यह बिहार के विधानसभा चुनाव परिणाम को निर्णायक रूप से प्रभावित करने वाली कार्यवाही मानी जाएगी। ‘वोटबंदी’ शब्द शाब्दिक चमत्कार नहीं, बल्कि इसे एक चेतावनी के रूप में देखा जाना चाहिए। लोकतंत्र के सबसे मजबूत स्तंभ मताधिकार को अपारदर्शिता और पक्षपात कर चुनाव की निष्पक्षता को प्रभावित किया जाता है। इससे देश में जनता का भरोसा लोकतंत्र और संविधान से उठते देर नहीं लगेगी। पिछले दो-तीन वर्षों से चुनाव आयोग की कार्य प्रणाली और निष्पक्षता को लेकर विपक्षी दल चुनाव आयोग को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। 50 से अधिक याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जा चुकी हैं। कुछ लंबित हैं, कुछ में फैसला हो गया है। ऐसे समय पर चुनाव आयोग द्वारा बिहार में जो नवीन प्रयोग किया जा रहा है। उसके कारण चुनाव आयोग की निष्पक्षता संदिग्ध हो गई है। विपक्षी दलों ने चुनाव आयोग को भाजपा का एजेंट कहना शुरू कर दिया है। जो चिंता का कारण है। चुनाव आयोग को अपना अस्तित्व और निष्पक्षता को बरकरार रखना होगा। मतदाताओं और सभी राजनीतिक दलों को चुनाव आयोग के ऊपर विश्वास हो, इसके लिए पूरी पारदर्शिता के साथ चुनाव आयोग काम करे। गरीबों, दलितों और पिछड़े वर्गों को मताधिकार से वंचित करने वाली कार्यवाही को तुरंत रोका जाए। 1975 की तरह एक बार फिर लोकतंत्र की लड़ाई का केंद्र बिहार बनने जा रहा है। 1975 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार से जो लड़ाई शुरू हुई थी। उसने इंदिरा गांधी की सत्ता को हिला कर रख दिया था। यदि ऐसा हुआ तो वर्तमान सरकार के लिए खतरे की घंटी है। गरीबों के पास सिवा वोट देने के अलावा और कोई अधिकार नहीं है। यदि यह अधिकार छीनने की कोशिश की गई। ऐसी स्थिति में बिहार की कानून व्यवस्था को बनाए रखना केंद्र एवं राज्य सरकार के लिए बहुत मुश्किल हो सकता है। पप्पू यादव ने नोटबंदी की तरह वोटबंदी की बात कहकर गंभीरता के साथ सभी वर्ग के लोगों को जोड़ने का प्रयास किया है। चुनाव आयोग को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए। गरीबों के पास सिवाय मताधिकार के अन्य कोई अधिकार नहीं है। उस अधिकार को बचाने के लिए गरीब किसी भी हद तक जा सकता है। इस बात का ध्यान सभी को रखना होगा। एसजे/ 6 जुलाई /2025