लेख
11-Jul-2025
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पिछले दशक में भारत ने तिलहन पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित करते हुए कृषि क्षेत्र में एक परिवर्तनकारी यात्रा का आगाज किया। 2014-15 से 2024-25 के बीच, तिलहन का उत्पादन 5 प्रतिशत से अधिक की मजबूत चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) के साथ 275 लाख टन से 55 प्रतिशत बढ़कर 426 लाख टन हो गया है। तिलहन की खेती के तहत आने वाले क्षेत्र में 18 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जो 25.60 मिलियन हेक्टेयर से बढ़कर 30.27 मिलियन हेक्टेयर हो गया, जबकि उत्पादकता 1,075 किलोग्राम/हेक्टेयर से 31 प्रतिशत बढ़कर 1,408 किलोग्राम/हेक्टेयर हो गई। खाद्य तेल उत्पादन में भी 44 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जो 87 लाख टन से बढ़कर 123 लाख टन हो गया, जो खाद्य सुरक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता की दिशा में एक महत्वपूर्ण छलांग है। इमेज तिलहन क्षेत्र में वृद्धि क्षेत्र उत्पा्दन उपज तालिका: भारत के तिलहन क्षेत्र के 2014-2024 तक के महत्वपूर्ण मानदंड मानदंड 2014-15 2024-25* परिवर्तन का प्रतिशत क्षेत्रफल (लाख हेक्टेयर) 256.0 302.7 +18 प्रतिशत उत्पादन (लाख टन) 275.1 426.1 +55 प्रतिशत उपज (किलो/हेक्टेयर) 1075 1408 +31 प्रतिशत खाद्य तेल उत्पादन (लाख टन) 87 125.2 +44 प्रतिशत स्रोत: तीसरा अग्रिम अनुमान, डीए एंड एफडब्ल्यू कृषि क्षेत्र में सफलताओं का दशक: भारत के तिलहन क्षेत्र ने 2014-15 से सभी प्रमुख मापदंडों में उल्लेखनीय परिवर्तन का अनुभव किया है। इसके उत्पादन में 55 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जो 275.1 लाख टन से बढ़कर 426.1 लाख टन हो गया। ऐसा उच्चम उपज देने वाले बीजों की किस्मों को व्यापक रूप से अपनाने, सिंचाई सुविधाओं में सुधार और सरकार से निरंतर मिलने वाले नीतिगत समर्थन के कारण हुआ। इसके परिणामस्वरूप खाद्य तेल उत्पादन में भी 44 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जो 87 लाख टन से बढ़कर 125 लाख टन हो गया। खेती का रकबा 256 लाख हेक्टेयर से 18 प्रतिशत बढ़कर 302.7 लाख हेक्टेयर हो गया, जो किसानों के बढ़ते आत्मविश्वास तथा परती और कम उपयोग में लाई जाने वाली भूमि को तिलहन की खेती में लाने के रणनीतिक प्रयासों को दर्शाता है। उत्पादकता में सुधार और भी अधिक उल्लेखनीय रहा, जो तकनीकी प्रगति और बेहतर कृषि पद्धतियों के कारण 1,075 किग्रा/हेक्टेयर से 31 प्रतिशत की वृद्धि के साथ 1,408 किग्रा/हेक्टेयर तक पहुँच गयी। रेपसीड-सरसों, सोयाबीन और मूंगफली जैसी प्रमुख तिलहन फसलों ने उत्पादन में अग्रणी भूमिका निभाई, जबकि नारियल, बिनौला और चावल की भूसी जैसे द्वितीयक स्रोतों ने उत्पादन को बढ़ावा दिया। किसानों को सशक्त बनाना: न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और खरीद क्रांति कृषि के क्षेत्र में इस परिवर्तन का आधार तिलहन के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में पर्याप्त वृद्धि होना रहा है, जिससे किसानों को उनकी उपज के लिए लाभकारी मूल्य मिलना सुनिश्चित हुआ है। तिलहन के लिए एमएसपी में नाटकीय वृद्धि देखी गई, जिसमें नाइजर बीज 142.14 प्रतिशत (3,600 रुपये प्रति क्विंटल से 8,717 रुपये प्रति क्विंटल), तिल 101.46 प्रतिशत (9,267 रुपये प्रति क्विंटल) और रेपसीड-सरसों (91.94 प्रतिशत ) और मूंगफली (69.58 प्रतिशत ) जैसे अन्य 2014-15 के मुकाबले बढ़े, जिससे किसानों की आय में पर्याप्त वृद्धि हुई, जिससे तिलहन की खेती लाभदायक बन गई। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) विवरण तिलहन का न्यूनतम समर्थन मूल्य रु./क्विंटल फसल 2014-15 2024-25 पूर्ण परिवर्तन परिवर्तन का प्रतिशत 1 मूंगफली 4000.00 6783.00 2783.00 69.58 2 नाइजर बीज 3600.00 8717.00 5117.00 142.14 3 रेपसीड/ सरसों 3100.00 5950.00 2850.00 91.94 4 कुसुम 3050.00 5940.00 2890.00 94.75 5 तिल 4600.00 9267.00 4667.00 101.46 6 सोयाबीन पीला 2560.00 4892.00 2332.00 91.09 7 सूरजमुखी के बीज 3750.00 7280.00 3530.00 94.13 स्रोत: डीएएंडएफडब्ल्यू ग्राफ तिलहनों के एमएसपी की तुलना (2014-15 बनाम 2024-25) मूंगफली नाइजर बीज रेपसीड/ सरसों कुसुम तिल सोयाबीन पीला सूरजमुखी के बीज एमएसपी में इस जबरदस्त वृद्धि के साथ-साथ सरकारी खरीद कार्यों में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई। 2014-15 में तिलहन की सरकारी खरीद न्यूनतम थी, जो कि मात्र 4,200 मीट्रिक टन थी और एक या दो फसलों तक सीमित थी। 2024-25 तक, यह खरीद बढ़कर 41.8 लाख मीट्रिक टन से अधिक हो गई है, जिसमें मूंगफली (17.7 लाख मीट्रिक टन), सोयाबीन (20 लाख मीट्रिक टन) और रेपसीड/सरसों (4 लाख मीट्रिक टन) जैसी प्रमुख फसलें शामिल हैं। यह उल्लेखनीय वृद्धि, विशेष रूप से पीएम-आशा जैसी योजनाओं के माध्यम से हुई है। यह एमएसपी हस्तक्षेपों के सार्थक पैमाने पर संचालन को दर्शाती है, जो बाजार की अस्थिरता के बीच किसानों के लिए आय सुरक्षा सुनिश्चित करती है। एमएसपी और खरीद समर्थन में वृद्धि को पूर्णता प्रदान करते हुए और खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता में तेजी लाने के लिए, सरकार ने दो प्रमुख मिशन शुरू किए: राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन - तिलहन (2024) और राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन – ऑयल पाम (2021)। 10,103 करोड़ रुपये के बजट के साथ, एनएमईओ-तिलहन का लक्ष्य 2030-31 तक उत्पादन को दोगुना करके 69.7 मिलियन टन करना है, 40 लाख हेक्टेयर परती भूमि में खेती का विस्तार करना और उच्च उपज देने वाले बीजों की किस्मों और क्लस्टर-आधारित मॉडल को बढ़ावा देना है। इस बीच, 11,040 करोड़ रुपये से समर्थित एनएमईओ-ओपी, किसानों की आय बढ़ाने और आयात पर निर्भरता को कम करने के लिए इसकी उच्च उत्पादकता और आय क्षमता का लाभ उठाते हुए विशेष रूप से पूर्वोत्तेर और अंडमान क्षेत्रों में ऑयल पाम की खेती का विस्तार करने पर ध्यान केंद्रित करता है। खपत, आयात और स्वास्थ्य पर गौर करना घरेलू उत्पादन में प्रभावशाली वृद्धि होने के बावजूद, बढ़ती आय, शहरीकरण और लोगों द्वारा प्रसंस्कृत और पैकेज्ड खाद्य पदार्थों का रुख किए जाने ने भारत के खाद्य तेल की खपत को 2023-24 में 27.8 मिलियन टन तक पहुंचा दिया है, जिससे प्रति व्यक्ति सेवन 19.3 किलोग्राम तक पहुंच गया है - जो भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के 12 किलोग्राम के अनुशंसित स्तर से लगभग 60 प्रतिशत अधिक है। 1950 के दशक से मांग में पाँच गुना वृद्धि है, जिसने देश में तिलहन के उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज होने के बावजूद आयातित तेलों पर हमारी निर्भरता बरकरार रखी है। इसके अलावा, खाद्य तेलों की अधिक खपत से अवांछनीय स्वास्थ्य परिणाम भी होते हैं, जो मोटापे की दर और गैर-संचारी रोगों (एनसीडी) को बढ़ाने में योगदान करते हैं। एनसीडी, आंशिक रूप से अत्यधिक आहार वसा से प्रेरित है, जिससे भारत को 2030 तक 4.58 ट्रिलियन रुपये का नुकसान होने का अनुमान है। इसे पहचानते हुए प्रधानमंत्री ने तेल की खपत में 10 प्रतिशत कमी लाने का आह्वान किया है, जो मोटापे, मधुमेह और हृदय रोगों पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से एक साहसिक कदम है। स्वास्थ्य के अलावा, यह घरेलू आपूर्ति-मांग की गतिशीलता को संतुलित करने और आयात के दबाव को कम करने में मदद कर सकता है। आत्मनिर्भरता को मजबूत करना: आर्थिक और पर्यावरणीय लाभ खाद्य तेलों-खासकर पाम और सोयाबीन-पर बड़े पैमाने पर भारत की निर्भरता ने एक बड़ी आर्थिक कमजोरी को जन्म दिया है। 2024-25 तक, लक्षित सरकारी सहायता और सक्षम टैरिफ उपायों के संयोजन ने घरेलू तेलों को और अधिक प्रतिस्पर्धी बनाते हुए सभी को समान अवसर दिलाने में मदद की है। इस बदलाव ने सरसों, मूंगफली और तिल की खेती को प्रोत्साहित किया है, जो भारत के विविधतापूर्ण कृषि-जलवायु क्षेत्रों के लिए उपयुक्त हैं। इसके अतिरिक्त, चावल की भूसी और बिनौले जैसे स्वास्थ्यवर्धक तेल मिश्रणों को बढ़ावा देने से भारत के चावल और कपास के प्रचुर उत्पादन का लाभ मिलता है - एक ऐसी रणनीति जिस पर एक दशक पहले सीमित ध्यान दिया गया था। ये प्रयास न केवल आयात पर निर्भरता को कम करके और विदेशी मुद्रा भंडार को संरक्षित करके आर्थिक मजबूती बढ़ाने की दिशा में प्रयास करते हैं, बल्कि पर्यावरणीय सह-लाभ भी उत्पन्न करते हैं। परती भूमि में तिलहन की खेती पर जोर, छोटे किसानों द्वारा संचालित ऑयल पाम के विस्तार के साथ मिलकर, पारिस्थितिकीय व्यवधान को कम करता है और जैव विविधता को बनाए रखने में मदद करता है। इसके अलावा, इस तरह की भूमि-उपयोग की पद्धतियाँ व्यापक जलवायु लक्ष्यों के साथ संरेखित होकर कार्बन सिंक के रूप में काम कर सकती हैं। स्वदेशी तेल मिश्रणों को बढ़ावा देने से भारत की प्राकृतिक शक्तियों में निहित टिकाऊ कृषि प्रथाओं को मजबूती प्रदान करने से उपभोक्ताओं को स्वस्थ विकल्प भी मिलते हैं। प्रगति के एक दशक से निर्मित लाभकारी चक्र असाधारण प्रगति और रणनीतिक हस्तक्षेप से भरपूर एक दशक में गहराई से निहित भारत की तिलहन क्रांति, देश की कृषि संबंधी सुदृढ़ता और नीतिगत प्रतिबद्धता का प्रमाण है। एनएमईओ-तिलहन और एनएमईओ-ओपी जैसे केंद्रित मिशनों के माध्यम से घरेलू उत्पादन को बढ़ाकर, टिकाऊ कृषि प्रथाओं को अपनाकर और विवेकपूर्ण उपभोग को बढ़ावा देकर, भारत न केवल अपने भारी आयात बोझ को कम करने का लक्ष्य निर्धारित कर रहा है, बल्कि एक स्वस्थ, अधिक आत्मनिर्भर और आर्थिक रूप से मजबूत भविष्य की ओर भी अग्रसर है। ************ ( लेखकों के बारे में: • श्री पूर्ण चंद्र किशन, भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के राजस्थान कैडर के 2005 बैच के अधिकारी हैं, जो वर्तमान में भारत सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण विभाग में संयुक्त सचिव के पद पर कार्यरत हैं। इस पद पर, वह तिलहन और विपणन प्रभाग की देखरेख के लिए उत्तवरदायी हैं। • श्री ऋषि कांत भारतीय आर्थिक सेवा (आईईएस) के 2012 बैच के अधिकारी हैं, जो कृषि एवं किसान कल्याण विभाग में अपर आर्थिक सलाहकार के पद पर तैनात हैं। इस पद पर, वह तिलहन प्रभाग और कृषि एवं आर्थिक अनुसंधान इकाई का कार्यभार संभाल रहे हैं।) ईएमएस / 11 जुलाई 25