लेख
11-Jul-2025
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बिहार में मतदाता सूची की गहन समीक्षा को लेकर कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गईं थीं। सुप्रीम कोर्ट में गुरुवार को याचिकाओं पर सुनवाई हुई, जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस जायमाल्या की खंडपीठ ने सभी पक्षों को सुनने के पश्चात चुनाव आयोग को सुझाव दिया, कि आधार कार्ड, वोटर आईडी और राशन कार्ड को मान्यता दें। सुप्रीम कोर्ट में लगभग साढ़े 3 घंटे बहस चली। दोनों पक्षों ने अपने-अपने तर्क रखे। चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है। इसको ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने वोटर लिस्ट की गहन समीक्षा करने पर कोई रोक नहीं लगाई है। सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव के रूप में कहा है, चुनाव आयोग बिहार मतदाता सूची की गहन समीक्षा पर, आधार कार्ड, वोटर आईडी और राशन कार्ड को भी शामिल करे। सुप्रीम कोर्ट ने 28 जुलाई को मामले की फिर सुनवाई करने की तारीख नियत की है। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट कोई फैसला कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा जो सुझाव दिए गए हैं उसको लेकर तरह-तरह की आशंकायें व्यक्त की जा रही हैं। राजनीतिक हल्कों में कहा जा रहा है, सुप्रीम कोर्ट जब भी इस तरह के सुझाव देती है सरकार और चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट के सुझाव और आदेशों को नहीं मानता है। चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने इसी तरह से याचिकाओं का निपटारा किया था। जो आदेश और सुझाव दिये, उसे सरकार ने नहीं माना। चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को नजर अंदाज कर दिया। मनमाने तरीके से चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की। सुप्रीम कोर्ट में अभी भी याचिका लंबित है, जिस पर सुनवाई होनी है। सरकार द्वारा जिस मनमाने तरीके से चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की गई। उसके बाद से ही चुनाव आयुक्तों की भूमिका सरकार परस्त होकर रह गई है। विपक्षी दलों द्वारा लगातार चुनाव आयोग के निर्णय और कार्यवाही का विरोध जताया जा रहा है। सरकार ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए जो कानून बनाया उसमें 2014 के बाद के किसी भी चुनाव आयुक्त के ऊपर कोई भी अपराधिक मुकदमा दायर नहीं हो सकता है। जब से यह प्रावधान कानून में किया गया है, उसके बाद से चुनाव आयोग के ऊपर सरकार के इशारे पर काम करने के आरोप लग रहे हैं। चुनाव आयुक्त को अब कोई डर और भय नहीं रहा, जिसके कारण चुनाव आयोग विपक्षी दलों की शिकायतों और उनके द्वारा मांगी गई जानकारी नहीं दे रहे हैं। चुनाव आयुक्त के ऊपर अब कोई जिम्मेदारी या कानूनी कार्रवाई तय नहीं हो सकती है। जिसके कारण चुनाव आयुक्त सरकार के ऊपर पूरी तरह से निर्भर हो गए हैं। पिछले लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव में चुनाव आयोग की भूमिका से एक तरह से सत्ता पक्ष के राजनीतिक दल को फायदा मिला है। सरकार ने चुनाव आयोग के लिए समय-समय पर नियमों में बदलाव किए हैं। चुनाव आयोग अब कोई भी डेटा विपक्षी दलों को उपलब्ध नहीं करा रहा है। चुनाव के दौरान की गई शिकायतों पर कोई कार्यवाही नहीं कर रहा है। चुनाव का रिकॉर्ड रखने की 45 दिन की समय सीमा तय कर दी है। ऐसे नियमों से राजनीतिक दलों को जो जानकारी प्रमाण के रूप में चहिए होती है, वह नहीं मिल रही है। इस कारण वो चुनावी गड़बड़ियों को लेकर अपनी लड़ाई न्यायालय में नहीं लड़ पा रहे हैं। चुनाव और मतदान के समय मतदान केंद्र के बाहर की वीडियो ग्राफी भी विपक्षी दलों को उपलब्ध नहीं कराई जा रही है। इसको लेकर चुनाव आयोग के ऊपर अविश्वास बढ़ता चला जा रहा है। चुनाव आयोग को लेकर आम जनता और राजनीतिक दलों को अब वह विश्वास नहीं रहा जो चुनाव आयोग की निष्पक्ष भूमिका के लिए होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में आदेश के स्थान पर चुनाव आयोग को सुझाव दिया है। सुप्रीम कोर्ट के सुझाव को चुनाव आयोग मानेगा या नहीं, यह चुनाव आयुक्तों के ऊपर निर्भर करेगा। चुनाव आयोग की किसी भी कार्यवाही पर कोई रोक नहीं लगाई गई है। ना ही सुप्रीम कोर्ट ने कोई स्पष्ट आदेश दिए हैं। ऐसी स्थिति में बिहार में चुनाव प्रक्रिया एक बार शुरू हो गई उसके बाद सुप्रीम कोर्ट हस्तक्षेप करने से इनकार कर सकती है। ऐसा पहले भी हो चुका है। इस बात को लेकर राजनीतिक दलों में संशय और आशंका देखने को मिल रही है। यह आमधारणा बनती चली जा रही है कि न्यायपालिका पर सरकारी दवाब है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से सरकार के खिलाफ आदेश देने में जज डरने लगे हैं। ऐसी स्थिति में मामलों को टाल दिया जाता है। जिसके कारण अब राजनीतिक दल भी आक्रामक होते चले जा रहे हैं। चुनाव आयोग के खिलाफ जो अविश्वास देखने को मिल रहा है, उसे देखते हुए राजनीतिक दलों ने जन आंदोलन की शुरुआत करके नई रणनीति बनाना शुरू कर दिया है। लोकतंत्र बचाने के लिए अब राजनीतिक दल और जनता सड़कों पर आने लगी है। बिहार से यह शुरुआत हो गई है। चुनाव आयोग ने यदि आधार कार्ड, वोटर आईडी और राशन कार्ड को आधार नहीं माना। मतदाता सूची के परीक्षण कार्य में निष्पक्ष भूमिका और विपक्षी दलों को विश्वास में नहीं लिया। तो इसकी परणति एक जन आंदोलन के रूप में हो सकती है। बांग्लादेश में शेख हसीना के चुनाव में वहां के चुनाव आयोग ने एकतरफा चुनाव कराया था। विपक्षी दलों ने चुनाव का बहिष्कार किया था। शेख हसीना की पार्टी को चुनाव में वहां के चुनाव आयुक्त ने भारी बहुमत से जितवा दिया था। उसके बाद एक जन-आंदोलन खड़ा हुआ। शेख हसीना को जान बचाने के लिए बांग्लादेश छोड़कर भागना पड़ा। वह भारत में शरणागत हैं। बांग्लादेश के चुनाव आयुक्त को वहां की जनता ने सड़क पर घसीट कर मारा पीटा। अब उनके खिलाफ बांग्लादेश में मुकदमा चल रहा है। भारत में पिछले 75 वर्षों में लोकतांत्रिक व्यवस्था और चुनाव को लेकर आम नागरिकों में हमेशा भरोसा रहा है। यदि यह भरोसा नहीं रहेगा, तो आगे चलकर कुछ भी हो सकता है। चुनाव को लेकर जिस तरह से मतदाताओं में संशय की स्थिति बन गई है। चुनाव आयोग के खिलाफ लगातार विरोध और आंदोलन सड़कों पर देखने को मिल रहे हैं। जो विरोध बिहार से शुरू हुआ है उसने 1975 के छात्र आंदोलन की याद दिला दी है। देखते ही देखते 1975 का छात्र आंदोलन बिहार से चलकर राष्ट्रीय स्तर के आंदोलन में परिवर्तित हो गया था। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाकर अपनी सत्ता को बचाना पड़ा था। जब 1977 में चुनाव हुए, तब इंदिरा गांधी की कांग्रेस को करारी पराजय का सामना करना पड़ा था। पहली बार 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी थी। सरकार, सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग, राजनीतिक दलों और मतदाताओं को अपनी-अपनी जिम्मेदारी को समझना होगा। चुनाव निष्पक्ष तरीके से हों। आम जनता का विश्वास चुनाव पर बना रहे। इसके लिए सभी को अपनी-अपनी भूमिका का जिम्मेदारी से निर्वहन करना होगा। यदि ऐसा नहीं हुआ तो देश में अराजकता की स्थिति बन सकती है। ईएमएस / 11 जुलाई 25