लेख
14-Jul-2025
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बिहार के पूर्णियां जिला मुख्यालय से लगभग 20 किमी दूर मुफस्सिल थाना क्षेत्र के रजीगंज पंचायत के टेटगामा उरांव टोला में डायन होने की आशंका में एक ही परिवार के पांच लोगों को जिंदा जला दिया गया और शव को एक पानी-क्षेत्र में जलकुंभी के नीचे दबा दिया गया। डायन प्रथा की भेंट चढ़ गई पांच जिंदगी। पूर्णिया के मुफस्सिल थाना क्षेत्र के टेटगामा गांव में एक ही परिवार के पांच लोगों की हत्या कर दी गई, जिनमें तीन महिलाएं शामिल थीं। इस घटना में आरोपियों ने परिवार के सदस्यों को डायन बताकर पहले उनकी बेरहमी से पिटाई की और फिर जिंदा जला दिया। पुलिस ने इस मामले में दो आरोपियों को गिरफ्तार किया है, जिनमें एक तांत्रिक भी शामिल है। मुफस्सिल थाना क्षेत्र के रजीगंज पंचायत के टेटगामा उरांव टोला में डायन होने की आशंका में एक ही परिवार के पांच लोगों को जिंदा जला दिया गया और शव को एक पानी-क्षेत्र में जलकुंभी के नीचे दबा दिया गया। इस नरसंहार में बाल-बाल बचे परिवार के सदस्य सोनू (15वर्ष) ने भागकर अपनी जान बचाई। सोनू ने उस नरसंहार की आंखों देखी बताई तो पुलिस सक्रिय हुई और घंटो मशक्कत के बाद डॉग स्क्वाड की मदद से जले हुए शवो को जलकुंभी से बरामद किया गया। मृतकों में परिवार का मुखिया बाबू लाल उरांव (40), पत्नी सीता देवी (35),बूढ़ी मां सातो देवी (65) ,बेटा मंजीत (25)और उसकी पत्नी रानी देवी(20)शामिल है। मामले में पुलिस ने तीन लोगों को गिरफ्तार किया है। घटना के बाद से गांव के सभी लोग फरार हैं और गांव में सन्नाटा पसरा हुआ है। पूर्णिया जिले के पूर्व प्रखंड स्थित टेटगामा गांव में उरांव जनजाति के करीब 50 परिवार निवास करते हैं, जिनकी जनसंख्या लगभग 300 है। इस गांव में अन्य जातियों के लोग भी रहते हैं। लेकिन उरांव समुदाय के लोग अधिकतर एक-दूसरे के पास रहते हैं। करीब दस दिन पहले रामदेव उरांव के एक बेटे की बीमारी के कारण मौत हो गई थी। उसके बाद दूसरा बेटा भी बीमार पड़ गया। इसी क्रम में रामदेव को संदेह हुआ कि उसके बेटे की मौत और दूसरे बेटे की बीमारी के पीछे किसी डायन का हाथ है। संदेह की सुई बाबूलाल की मां सातो देवी और उसकी पत्नी सीता देवी पर गई। रामदेव ने इन्हें जादू-टोना करने वाली महिलाएं यानी डायन घोषित कर दिया। गांववालों ने भी अंधविश्वास के चलते उनकी बात मान ली। जिस पंचायत में बाबूलाल के परिवार की हत्या का फैसला लिया गया। उसमें इस बात को प्रमाण के तौर पर रखा गया कि ओझाओं की भी राय है कि बाबूलाल की मां और पत्नी डायन है। आज भी आदिवासी समाज में झाड़-फूंक और ओझा-भगतों की बातों पर अंधविश्वास व्याप्त है। बीमारी होने पर डॉक्टर के पास जाने की बजाय लोग ओझाओं के पास जाते हैं, जो अक्सर बीमारी की जड़ डायन को बताते हैं। ओझा की कही हुई बात को अंतिम सत्य मान लिया जाता है। बताया जाता है कि जिस पंचायत में बाबूलाल के परिवार की हत्या का निर्णय लिया गया, वहां ओझाओं की राय को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया गया। ओझाओं ने सातो देवी और उसकी बहू सीता देवी को डायन बताया, जिसके आधार पर यह अमानवीय फैसला लिया गया। आदिवासी समाज में डायन प्रथा एक पुराना और खतरनाक अंधविश्वास है। किसी महिला को डायन घोषित करने के पीछे कई सामाजिक पूर्वाग्रह होते हैं. जैसे उम्रदराज होना, चेहरा विकृत हो जाना, बार-बार बुदबुदाना, क्रोधित स्वभाव, या अत्यधिक पूजा-पाठ में लिप्त रहना। सातो देवी इन सभी पूर्वाग्रहों पर खरा उतरती थीं। इसलिए उन्हें डायन मान लिया गया। समाज में यह मान्यता भी प्रचलित है कि डायन का ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होता है। यही कारण रहा कि सातो देवी के साथ-साथ उनकी बहू सीता देवी और फिर उसकी बहू रानी देवी.. तीनों को डायन मानकर जिंदा जला दिया गया। त्रासदी का सबसे भयावह पहलू यह है कि पीड़ित और अपराधी सभी एक ही समुदाय के थे। आपस में रिश्तेदार भी। लेकिन अशिक्षा, अंधविश्वास और सामाजिक कुंठाओं के अंधेरे में डूबी भीड़ ने रिश्तों, मानवता और कानून सब कुछ रौंद दिया। टेटगामा गांव की यह घटना इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में दर्ज हो गई है, जो यह बताती है कि जब अंधविश्वास हावी हो जाता है, तो इंसानियत दम तोड़ देती है। डायन प्रथा जैसे अमानवीय अंधविश्वास पर कानून के साथ-साथ समाज को भी सख्ती से चोट करनी होगी। ‘डायन हत्या’ और ‘अंधविश्वास’ कहना काफी नहीं यह पूरे सिस्टम की विफलता है। तत्काल इसे डायन हत्या और अंधविश्वास का मामला बता कर बिहार सरकार और वहां का प्रशासन अपनी आपराधिक लापरवाही से मुक्त नहीं हो सकता। यह पूरे सिस्टम की विफलता है और ‘सुशासन बाबू’ के सुशासन की पोल खोलता है। आदिवासियों को अंधविश्वासी बताना आसान होता है। नये सिरे से उस समाज को पिछड़ा और अंधविश्वास की गिरफ्त में फंसा बताने का एक अवसर मिल जाता है अभिजात और तथाकथित विकसित और सभ्य होने का दावा करने वाले समाज को। अभी पूरे मामले की सही पड़ताल भी नहीं हुई है, लेकिन घटना स्थल से महज कुछ किमी दूर रहने वाली पुलिस ने घटना स्थल पर पहुंचते ही इसे डायन हत्या और आदिवासियों के अंधविश्वास का मामला बता कर अपनी तरह से राहत की सांस ले ली। डायन हत्या को लेकर कानून भी बनाया गया है। एक स्वयंसेवी संगठन ने वर्षों पहले इससे जुड़े सैकड़ों मामलों का अध्ययन किया था और अधिकतर मामलों में जमीन विवाद पाया था। यानि, किसी परिवार में एकल महिला रह गयी तो उसे डायन कह कर रास्ते से हटाने का षडयंत्र। परिवार में ही आपस में लड़ाई और किसी की नजर किसी की संपत्ति पर तो ‘डायन’ घोषित कर उसे मारने का षडयंत्र। डायन घोषित करने का तरीका भी बहुत सीधा सादा है। गांव समाज में झाड़ फूंक से इलाज करने वाला, भगत होता है। सामान्यतः किसी की मौत, बच्चे की मौत हो जाती है। फिर भगत बताता है कि उसकी मौत की वजह कोई दुष्ट आत्मा या डायन के द्वारा किया गया जादू टोना है। वह उसकी तरफ संकेत भी कर देता है। और फिर जिसे डायन कहा गया, उस परिवार का उत्पीड़न शुरु हो जाता है। जिसकी परिणती अंत में उसकी हत्या से होती है। इसके मूल में एक आपराधिक मामला ही होता है और ‘अंधविश्वास’ से जोड़ देने मात्र से स्थानीय प्रशासन अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो जाता। हत्या जैसे कृत के पहले इस तरह की बातें, किसी को डायन या पूरे परिवार को तंत्र मंत्र, जादू टोना करने वाला बताने वाली अफवाहे तैरती रहती हैं। इस घटना के बारे में तो कहा जाता है कि बजावते गांव की बैठक हुई, एक परिवार को डायन घांषित किया गया और उसे मार डालने का निर्णय लिया गया। इस तरह की बातें पुलिस तक पहुंच भी जाती हैं तो इसे आदिवासियों और उनके अंधविश्वास का मामला मान कर प्रशासन, पुलिस सुस्त पड़ जाता है, जबकि और भी तीव्रता से काम करने की जरूरत रहती है। हिंदू समाज के तमाम महंत, साधु चमत्कारी पुरुष ही होते हैं। ग्रामीण इलाकों में अस्पताल नहीं, डाक्टर नहीं, इलाज की समुचित व्यवस्था नहीं, झोला टाईप डाक्टरों और झाड़ फूंक करने वालों पर निर्भर रहते हैं ग्रामीण। केवल आदिवासी समाज में नहीं, मुस्लिम, ईसाई सभी समाज में चमत्कार से इलाज होता है और उसकी एक प्रमुख वजह चिकित्सा व्यवस्था का नदारत होना है। बिहार और झारखंड के ग्रामीण क्षेत्र में कहीं इलाज की सरकारी व्यवस्था नहीं दिखेगी। झोला टाईप डाक्टर या फिर रक्त चूसने वाले निजी डाक्टरों की क्लिनिक। झक मार कर ओझा, गुनी, तंत्र-मंत्र करने वाले, झाड़ फूंक करने वाले इसी शून्यता से निकलते हैं। पूर्णिया जिला के रजीगंज पंचायत अंतर्गत टेटगामा गांव में अंधविश्वास के नाम पर हुई सामूहिक हत्या की घटना ने पूरे क्षेत्र को झकझोर दिया है। घटना की गंभीरता को देखते हुए भाकपा-माले पूर्णिया जिला कमेटी ने 10 जुलाई को एक पांच सदस्यीय जांच दल गठित किया। जांच दल में कां. सुलेखा देवी (राज्य कार्यकारिणी सदस्य, ऐपवा), कां. संगीता देवी, कां. सीता देवी (जिला कार्यकर्ता, ऐपवा), कां. इस्लाम उद्दीन और कां. मोख्तार (जिला नेता, भाकपा-माले) शामिल थे। जांच दल ने घटनास्थल का दौरा कर पीड़ित परिवार व ग्रामीणों से बातचीत की और तथ्यों की जांच की। इस मामले में मुख्य आरोपित:रामदेव उरांव, छोटुआ उरांव, नकुल उरांव, संतलाल उरांव, केशव उरांव (सभी टेटगामा गांव निवासी)इन लोगों ने भीड़ के साथ मिलकर पांचों को जिंदा जला दिया और शवों को गायब कर दिया गया। बाद में पुलिस द्वारा खोजी कुत्ते की मदद से तीन शव बरामद किए गए। मृतक कातो देवी के चार बेटे अभी जीवित हैं: खुबीलाल उरांव, अर्जुन उरांव, जितेंद्र उरांव और जगदीश उरांव। उन्होंने बताया कि घटना के बाद से पूरा परिवार दहशत में है और लगातार धमकियां दी जा रही हैं,“अगर गवाही दोगे तो तुम्हें भी जिंदा जला देंगे। ” भाकपा-माले ने मांग की है कि इस जनसंहार में शामिल सभी अपराधियों को तत्काल गिरफ्तार कर कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाए। बचे हुए परिजनों को सुरक्षा प्रदान की जाए, विशेषकर चश्मदीद गवाह सोनू उरांव की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए। पीड़ित परिवार को 50 लाख रुपये का मुआवजा दिया जाए तथा सोनू उरांव को सुरक्षित स्थान पर पक्का मकान उपलब्ध कराया जाए। इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिए डायन कुप्रथा विरोधी कड़ा कानून बनाया जाए। सरकार गांव में सड़क, बिजली, पानी, स्कूल जैसी बुनियादी सुविधाएं तत्काल मुहैया कराए। अंधविश्वास के खिलाफ राज्यस्तरीय जागरूकता अभियान चलाया जाए। जांच दल ने स्पष्ट रूप से कहा कि यह घटना केवल अंधविश्वास नहीं, बल्कि संगठित हिंसा और सामाजिक अन्याय का परिणाम है। आज़ादी के 78 वर्षों बाद भी टेटगामा जैसे गांवों में बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव है, और अंधविश्वास के नाम पर दलित-आदिवासी समुदायों को निशाना बनाया जा रहा है। भाकपा-माले मांग की है कि राज्य सरकार इस घटना को गंभीरता से लेते हुए त्वरित न्याय और ठोस कार्रवाई सुनिश्चित करे। महिला समाज ने चेतावनी दी कि पूर्णिया में एक ही परिवार की तीन महिला समेत 5 लोगों को डायन के नाम पर जिंदा जला देने के खिलाफ महिला समाज करेगा आंदोलन। बिहार महिला समाज की अध्यक्ष निवेदिता झा ने कहा है कि दोषियों पर कठोर कार्रवाई की जाए और इस तरह की क्रूर घटनाओं को गंभीरता से लिया जाय। सामाजिक संगठन निरंतर के आंकड़े के अनुसार हर साल बड़ी संख्या में डायन के नाम पर मारी जाती हैं महिलाएं। हाल ही में 118 गांवों में सर्वे किया उन गांवो में रहने वाली 145 महिलाओं ने स्वीकार किया कि वे डायन के नाम पर हुयी हिंसा कि शिकार हुईं । जिनमें से 75 प्रतिशत महिलाएं 46 वर्ष या उससे अधिक उम्र कि थीं । जिनमें से 97 प्रतिशत महिलाएं दलित , पिछड़ा और अति पिछड़े समुदाय से है। बिहार महिला समाज की अध्यक्ष निवेदिता झा ने कहा कि इस भयानक और बर्बर घटना के लिए नीतीश सरकार और पुलिस प्रशाशन जिम्मेदार है। ये और भी भयावह है कि इस हत्या में पूरा गांव शामिल है। इस तरह की घटना संपूर्ण मानवता को शर्मशार करती है और आदिवासी समाज के प्रति क्रूरता और अंधविश्वास की तरह धकेलती है। बिहार में डायन के मामले पर कानून लागू है । फिर भी इस मुद्दे पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं की जाती है। 97 प्रतिशत महिलाएं दलित , पिछड़ा और अति पिछड़े समुदाय से आती हैं । 75 प्रतिशत महिलाएं शादी -शुदा हैं पति के साथ रहती हैं । ये आंकड़े बताते हैं कि उम्रदराज महिलाओं के साथ हमारा समाज कितना हिंसक है । हिंसा कि उन तमाम अवधारणा को ये सर्वे ख़ारिज करता है जिसमें ये माना जाता हैं कि हिंसा कि शिकार कम उम्र कि महिलाएं होती हैं , या वो गैर शादी -शुदा होती हैं । जिस समाज में शादी सुरक्षा का कवज माना जाता है उसी समाज कि शादी -शुदा महिलाएं सबसे ज्यादा हिंसा कि शिकार हुयी । अंधविश्वास के नाम पर आदिवासी समुदाय और दलित समुदाय को निशाना बनाया जाता है। बिहार महिला समाज इस भयावह घटना के दोषियों को तुरंत गिरफ्तार करने और मामले की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट के तहत करने की मांग करता है। उस परिवार में बचे एक मात्र बेटे की सुरक्षा और उसके पढ़ाई लिखाई की पूरी जिम्मेदारी सरकार से उठाने की मांग करता है। महिला समाज की समझ है कि डायन के नाम पर सघन जागरूकताअभियान चलाना चाहिए। और कानून को और सख्त बनाया जाना चाहिए। इस मामले में बिहार महिला समाज की ओर से एक जांच दल पूर्णिया के राज रानीगंज पंचायत के टेटगामा टोले में गया और पूरे मामले की छान बीन की। जांच टीम में बिहार महिला समाज की महासचिव राजश्री किरण , पूर्व एम एल सी उषा सहनी ,प्रो. चंदना झा , प्रीति झा,ललिता देवी,पूर्व मुखिया,बेगूसराय,देवकी देवी,आदि शामिल थीं। क़रीब 60 घरों वाले इस टोले में अब सिर्फ़ मृतक परिवार के परिजन बचे हैं और बाक़ी सभी टोले में रहने वाले फ़रार हैं। इसकी वजह यह है कि इस पूरे टोले पर ही पांच लोगों को मारने और जलाने को लेकर प्राथमिकी दर्ज हुई है। इस मामले में सात दिन बीतने के बाद भी महज़ तीन गिरफ़्तारियां हुई हैं जबकि इस केस में 23 नामज़द अभियुक्तों पर और 150-200 अज्ञात लोगों पर एफ़आईआर दर्ज हुई है। गांव में सन्नाटा पसरा है। कुछेक सदस्यों को छोड़,पूरा गांव सुनसान था। जो लोग थे,वे स्तब्ध और बेहद भयभीत थे और पूछताछ करने पर जवाब देने से कतराते थे। बातचीत से पता चला कि गांव का स्कूल करीब डेढ़ किमी पर होने के बावजूद,बहुत कम बच्चे पढ़ने जाते हैं। आस पास मिट्टी से सने,अधनंगे,सहमे से खेलते बच्चों के बारे में पूछने पर पता चला कि वे कभी स्कूल नहीं गये। स्वास्थ्य केन्द्र के बारे में पूछने पर पता चला कि कइयों को तो इसकी जानकारी तक नहीं है। गांव में ईलाज के लिए लोग ओझा गुनी के पास जाते हैं क्योंकि डाॅक्टर के पास जाने का न पैसा है न जुगाड़। निहायत जरूरी होने पर ही,ईलाज के लिए वे रानीपतरा या पूर्णियां सदर अस्पताल जाते हैं। स्पष्ट तौर पर,यह पूरा गांव गरीबी,अशिक्षा और अंधविश्वास के गर्त में समाया है । हमारा देश लगभग आठ दशक पहले आजाद हुआ पर आज भी हमारा समाज अशिक्षा,अंधविश्वास,डायन जैसी कुरीतियों के दलदल में फंसा हुआ है। ज्ञातव्य हो कि डायन प्रथा और डायन कह कर उस पर अत्याचार करने पर रोक के लिए सन् 1999 में बिहार सरकार द्वारा डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम पारित किया गया था परंतु इसके बावजूद यह प्रथा आज भी जीवित है और चिंता का विषय है कि हर वर्ष डायन कह कर बड़ी संख्या में महिलाओं को,खास कर दलित,पिछड़ी,अति पिछड़ी,आदिवासी महिलाओं को, क्रूर अत्याचार,उत्पीड़न और अंततः हत्या का शिकार होना पड़ता है। टेटगामा की इस घटना नें एक बार फिर से इसे दुहरा कर पूरी मानवता को शर्मसार किया है। बिहार महिला समाज की राज्यस्तरीय जांच टीम ने मामले की गहराई से छानबीन करने के बाद इस घटना के लिए राज्य सरकार और पुलिस प्रशासन को जिम्मेदार ठहराया है। डायन प्रथा प्रतिषेध कानून के होते हुए इस पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा रहा है। दुःखद है कि कई कई घंटे तक चले अत्याचार के इस दौर की भनक तक पुलिस को नहीं लगी। वहां के लोगों के अनुसार घटना के घटित होने के कई दिन गुजर जाने पर भी,अपराधियों की गिरफ्तारी की रफ्तार धीमी है। गांव में दहशत में जी रहे गरीब दलित,आदिवासियों की सुरक्षा का कोई पुख्ता इंतजाम नहीं हो पाया है। प्रशासन द्वारा दवा,ईलाज और शिक्षा की सुविधाओं की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं हो पाने के कारण लोगों का ओझा गुनियों पर भरोसा बढ़ रहा है। बिहार महिला समाज नीतीश सरकार से यह मांग करती है कि जल्द से जल्द घटने की तहकीकात कर दोषियों को गिरफ्तार कर फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई कर उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी जाए। गांव के लोगों को की सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम किया जाए। पीड़ित परिवार के सदस्यों को उचित मुआवजा दी जाए। पीड़ित परिवार के नाबालिग बच्चे की पुख्ता सुरक्षा,उसकी पढ़ाई लिखाई और भरन पोषण के लिए मुआवजा सहित उचित व्यवस्था की जाए। ईएमएस / 14 जुलाई