वर्तमान में दुनियां के अधिकांश देशों में जिस तरह की उथल-पुथल देखने को मिल रही है, उसे लेकर आम इंसान के जेहन में अनेक सवाल उठ खड़े हुए हैं। ऐसे ही सवालों में एक सवाल यह भी है कि आखिरकार दुनियां में जंग के हालात क्योंकर बने हुए हैं? विश्व को जंग में झोंकने का काम आखिर कौन कर रहा है? वो कौन है जो दुनियां को शांति से रहने नहीं देना चाहता है? वाकई ये सवाल गंभीर हैं और इनके उत्तर भी लगभग सभी जानते हैं, लेकिन बतौर सबूत पेश करने को किसी के पास कुछ नहीं होता है, क्योंकि जहां झूठ चलता हो वहां सच को कौन पूछता है। बहरहाल यह देखने वाली बात है, कि दूर देशों की बात छोड़ दीजिए यहां तो पड़ोसी मुल्कों में जंग छिड़ी हुई है। लोग मारे जा रहे हैं लेकिन हथियारों की कमी नहीं होने दी जा रही है। आखिर ऐसा क्यों? हथियार सप्लाई को लेकर भी विकसित देशों में जंग जैसे हालात हैं। इनमें अमेरिका की चौधराहट साफ देखने को मिलती है। किसी को क्या दिया जाए और किससे क्या लिया जाए, यह अमेरिका की आधारभूत नीति में शामिल है। यही वजह है कि युद्ध होने पर अमेरिका यह नहीं देखता कि दोस्त कौन और दुश्मन कौन, वह हथियारों का व्यापारी बन जंग को बाहर से हवा देता नजर आ जाता है। यही कारण है कि रुस और यूक्रेन समेत दुनियां के अनेक देशों के बीच जो जंग चल रही है उसमें कहीं न कहीं अमेरिका संलिप्त नजर आ जाता है। वजह भी साफ है, कि जिस तरह से अमेरिका यूक्रेन की मदद करने के बदले उससे उसके कीमती भंडार चाहता है, तो वहीं गाजा में ट्रंप सिटी बसाने की बात करके यह जतला देता है कि इजराइल उसके इशारे पर जंग में है। वह जब चाहेगा हमास और इजराइल के बीच भी समझौता कराकर शांति का ऐलान कर देगा। सीरिया में भी कमोवेश यही हालात नजर आए। भारत द्वारा आतंकवादियों के खिलाफ चलाए गए ऑपरेशन सिंदूर को भारत-पाकिस्तान जंग बताने और फिर सीजफायर का दावा करने वाले ट्रंप का मकसद भी कुछ ऐसा ही रहा है। फिलहाल यहां बात हम आर्मेनिया और अजरबैजान शांति समझौते की कर रहे हैं, जिसका पूरा श्रेय राष्ट्रपति ट्रंप को दिया जा चुका है। यहां बताते चलें कि वर्षों से दक्षिणी कॉकेशस को ईरानी प्रभाव वाला क्षेत्र माना जाता रहा है। इसके अलावा यहां पर रूस की भी गतिविधियां बराबर चलती रही हैं। पिछले कई दशकों से रुस ने शांति सैनिकों के साथ राजनीतिक दबाव बनाने का काम बखूबी किया है। जबकि ईरान, इस क्षेत्र को अपनी ऊर्जा आपूर्ति और व्यापार के लिए महत्वपूर्ण मानता चला आया है। अब जबकि व्हाईट हाउस में आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच चले आ रहे करीब 35 सालों के संघर्ष का विराम हो गया तो इन सब बातों का महत्व और भी बढ़ जाता है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मौजूदगी में अजरबैजान के राष्ट्रपति इल्हाम अलीयेव और आर्मेनिया के प्रधानमंत्री निकोल पशिनियन ने शांति समझौते पर दस्तखत किए हैं। इतना ही नहीं इन नेताद्वय ने इसी दौरान ट्रंप की तारीफों के पुल भी बांधे और कहा कि शांति करवाने वाले ट्रंप के अलावा आखिर नोबल पुरस्कार का कौन हकदार हो सकता है। यह अलग बात है कि इस समझौते के साथ ही अमेरिका को दक्षिण काकेशस के केंद्र में सीधे दखल देने के साथ ही वहां पैर जमाने के लिए भी एंट्री मिल गई है। वैसे यह क्षेत्र अभी तक रूस, ईरान और चीन के लिए एक रणनीतिक क्षेत्र रहा है। इस प्रकार ट्रंप ने इस शांति समझौते रुपी वार से चीन, रूस और ईरान के सालों से चली आ रही रणनीति को मात दे दिया है। इस तरह कहीं न कहीं अमेरिका पहले से ही इस मामले को उलझाए हुए था, जिसकी पुष्टि अब जाकर हुई है। मतलब साफ है कि शांति से पहले आग लगाने का काम किया और खुद को पुरस्कृत करवाने के लिए अब यह खेल खेला गया। यदि ऐसा नहीं है तो फिर ट्रंप भारत जैसे शांतिप्रिय देश पर टैरिफ बम से बार क्योंकर कर रहा है? क्या कारण है कि जिस पर आतंकवादियों को पालने-पोसने के न सिर्फ आरोप लगते रहे, बल्कि उसकी जमीन पर अनेक तयशुदा आतंकियों को मारा गया अब वो उनका हिमायती बना फिर रहा है? यह देखने और समझने वाली बात है, क्योंकि शांति पुरस्कार वाकई शांति के लिए काम करने वाले को मिलना चाहिए न कि दिखावा करने वाले को। यदि इस पर ट्रंप के कार्य और नीतियां खरी उतरती हों तो जरुर इस दिशा पर विचार किया जाना चाहिए, वर्ना जो दशकों से आतंकवाद का दंश सहते हुए भी शांति के साथ विकास की दिशा में आगे बढ़ रहा है, वही शांति नोबल पुरस्कार का असली हकदार है। ईएमएस / 09 अगस्त 25