प्रथम विश्व युद्ध के समय से ही प्रसिद्ध छलावरण तकनीकें द्वितीय विश्व युद्ध में और भी महत्वपूर्ण हो गईं। और सभी शक्तिशाली देशों ने इन विधियों का उपयोग करना शुरू कर दिया। इसका मुख्य कारण अपने महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों को अत्यधिक हवाई हमलों से बचाना और हवाई अड्डों का निर्माण करना था। सैन्य उपकरणों, मोटर वाहनों, स्वचालित टैंकों और बड़ी तोपों को तारों से बने पर्दों से ढक दिया जाता था ताकि वे वायुमंडल में छिप सकें और जहाँ तोपों, मशीनों और वाहनों को ढकना संभव न हो, वहाँ उन्हें काले, भूरे, हरे रंग से धब्बेदार और तिरछी आकृतियाँ बना दी जाती थीं ताकि हवाई सर्वेक्षण के दौरान आकृति खंडित ज्यामिति के रूप में दिखाई दे और भ्रम पैदा करके वास्तविक वस्तु को पहचानने से बचाया जा सके। इस प्रकार छलावरण का प्रयोग युद्धों में एक प्रभावी तकनीक बन गया और विजय समारोह में इसने अपनी भूमिका स्थापित कर ली। दक्षिण अफ्रीका में 1899-1902 तक हुए युद्ध के दौरान ब्रिटिश सैनिक खाकी रंग की वर्दी पहनकर शत्रु से छिपते थे, क्योंकि यह पृष्ठभूमि से मेल खाती थी। परिणामस्वरूप, विश्व के सभी सैनिक खाकी रंग की वर्दी पहनते थे। आज भी सैनिक अपनी वर्दी का रंग प्राकृतिक वातावरण से मेल खाने लगे हैं, ताकि वे शत्रुओं की पैनी खोजी निगाहों से बच सकें। पिछले दशक में ईरान और इराक के बीच हुए युद्ध में कई आधुनिक छलावरण तकनीकों का इस्तेमाल किया गया था, जिनसे हम भली-भांति परिचित हैं। प्रथम विश्व युद्ध के बाद से हुए सभी युद्धों में छलावरण तकनीक और तकनीकों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया गया है। लेकिन वर्तमान में छलावरण तकनीक में अभूतपूर्व विकास हुआ है। पहले के युद्धों में पारंपरिक तकनीकों का प्रयोग इसलिए शामिल था क्योंकि सुदूर संवेदन, नैनो तकनीक और नैनो पदार्थों तथा स्टील्थ अनुप्रयोगों के साथ-साथ आधुनिक डिटेक्टर मौजूद नहीं थे और परिणामस्वरूप छलावरण विशेषताओं की पहचान करना आसान नहीं था। आजकल युद्ध में छलावरण की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।जो पेड़ पौधे में लुक कर प्रकृति में छलावरण के सहारे गोरिल्ला युद्ध की जा रही है। चाहे वह प्राणी जगत हो या कीड़ों का संसार या महासागरों के विशाल जलीय जीव, सभी प्राणियों को अपने अस्तित्व के लिए शिकार से बचने हेतु छलावरण का सहारा लेना पड़ता है। यदि हम अपने परिवेश पर नज़र डालें, तो ऐसे अनेक प्राणी हैं जिनका रंग, रूप, आकृति, रूप और प्रकार विशेष आकर्षण का केंद्र होते हैं, जैसे जंगली जानवर ज़ेबरा, तेंदुआ, विभिन्न प्रकार के पक्षी, गिरगिट, मेंढक और साँप आदि। प्राचीन काल से ही गुरिल्ला और छापामार सैनिक युद्ध में शत्रु को धोखा देने के लिए छलावरण का प्रयोग करते रहे हैं। प्राचीन ट्रोजन युद्ध में प्रयुक्त लकड़ी का ट्रॉय घोड़ा, लकड़ी के घोड़े की छाया को एक स्थान पर रखकर दस वर्षों तक अपनी रक्षा कर सकता था। चंगेज खान के मंगोल सैनिक अपनी टोपियों पर पेड़ों की पत्तियाँ और शाखाएँ रखकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रवास करते थे और इस प्रकार प्राकृतिक सुरक्षा में छिपकर अपने शत्रुओं से युद्ध करते थे। छलावरण (कैमोफ्लेज) फ्रांसीसी शब्द कैमोफ्लेज से लिया गया है जिसका शाब्दिक अर्थ है सामने वाले व्यक्ति (शत्रु) पर धुआँ फेंकना, आँखों में धूल झोंकना या धोखा देना। छलावरण एक गुप्त कला है जिसके द्वारा हमारी सेनाओं, हथियारों और अन्य सामग्रियों को इस प्रकार छिपाकर रखा जाता है कि शत्रु की गतिविधियों पर कड़ी नज़र रखते हुए भी शत्रु भ्रमित हो जाए। इस प्रकार, भ्रमित शत्रु हमारे सैन्य बल और हथियारों पर आक्रमण करने के बजाय, कृत्रिम हवाई अड्डों, बैरकों, आयुध कारखानों, सैन्य उपकरणों और अन्य छद्म लक्ष्यों पर आक्रमण करता है और उनके हथियारों और उपकरणों को व्यर्थ ही नष्ट कर देता है। इस प्रकार, छलावरण विज्ञान शत्रु का मनोबल तोड़कर उसे हतोत्साहित करने में सफल सिद्ध हुआ है। इस शताब्दी में भी सैनिक व्यक्तिगत और वाहन छलावरण में इस पद्धति का प्रयोग करते हैं। जनरल वाशिंगटन दुश्मन को धोखा देने में इतने निपुण थे कि वे रात में तंबुओं में आग लगाकर अपनी सेना के साथ छिप जाते थे। वे इसलिए चले जाते थे ताकि दुश्मन को उस खास जगह पर उनकी मौजूदगी का भ्रम हो। 20वीं सदी तक, जब मानव दृष्टि ही एकमात्र संवेदक थी, छलावरण सैन्य बलों और उनके हथियारों तक ही सीमित था। संवेदक तकनीक के तेज़ी से विकास ने छलावरण की एक नई परिभाषा गढ़ दी है। आधुनिक परिभाषा में, छलावरण वह तकनीक है जो बहु-स्पेक्ट्रम तरंगदैर्घ्य में काम करने वाले डिटेक्टरों द्वारा सैन्य लक्ष्यों का पता लगाने में देरी या पूर्ण अज्ञानता प्रदान करती है। इसमें ध्वनिक, चुंबकीय, बहु-स्पेक्ट्रम छलावरण, कम दृश्यता, निवारक, हस्ताक्षर प्रबंधन, गुप्त तकनीक, नैनोमटेरियल आदि जैसी कुछ तकनीकें शामिल हैं। इसी के अनुरूप, छलावरण विज्ञान के अंतर्गत नए सेंसर और संसूचन तकनीकें भी साथ-साथ विकसित की गई हैं। आज के बदलते परिवेश ने छलावरण विज्ञान के समक्ष कई चुनौतियाँ प्रस्तुत की हैं। इस संदर्भ में सुदूर संवेदन और भू-स्थापित उपकरणों की भूमिका और भी अधिक बढ़ गई है। सुदूर संवेदन में उपयोगिता की दृष्टि से,विशाल बहु-स्पेक्ट्रल डेटा का संपूर्ण विश्लेषण आवश्यक है। इसमें दृश्य और अदृश्य बैंड, 0.5-1.1 माइक्रोन; थर्मल इन्फ्रारेड बैंड, 4-14 माइक्रोन और माइक्रोवेव बैंड, 0.1 मिलीमीटर-100 सेंटीमीटर शामिल हैं। ईएमएस / 01 सितम्बर 25