लेख
03-Sep-2025
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पिछले एक वर्ष में भारत सहित पूरी दुनिया के देशों में प्राकृतिक आपदाओं के कई भयावह दृश्य देखने में आये हैं। कभी बेमौसम बारिश और बाढ़ ने हजारों जिंदगियाँ लील लीं, तो कभी भूकंप और भू-स्खलन ने पलभर में बस्तियों को उजाड़ दिया। गांव के गांव जमीदोज हो गए। जलवायु परिवर्तन और अनियंत्रित विकास की नीतियाँ ने इन आपदाओं की तीव्रता को और बढ़ा दिया है। आँकड़े बताते हैं कि पिछले 1 वर्ष में भारत में बाढ़, चक्रवात और हीटवेव से लाखों लोग प्रभावित हुए हैं। हजारों लोग मारे गए हैं, हजारों करोड़ रुपयों की संपत्ति का नुकसान हुआ है। उत्तराखंड, हिमाचल और उत्तर-पूर्व के पहाड़ी राज्यों में भूस्खलन की घटनाएँ तेजी के साथ बढ़ रही हैं। हिमालय की पहाड़ियों को काटकर बनाई जा रही सड़कों और सुरंगों से न केवल प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है, बल्कि इस क्षेत्र में रहने वाली स्थानीय आबादी का जीवन भी संकट में पड़ गया है। केदारनाथ आपदा की स्मृति अब भी ताजा है, फिर भी चारधाम परियोजना जैसे विकास कार्य प्रकृति के सौंदर्य एवं संवेदन शीलता को दरकिनार कर विनाश की ओर बढ़ रहे हैं। इसी तरह, महानगरों में बाढ़ का खतरा बढ़ता जा रहा है। शहरों में सीवर लाइन, नालों, तालाबों और जल निकासी के स्थान पर कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए गए हैं। जिसके कारण थोड़ी सी बारिश में शहर जलमग्न हो जाते हैं। भारत के शहरों की हालत बहुत खराब हो गई है। दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद जैसे मेट्रोपोलियन सिटी एवं बड़े-बड़े शहरों में जल निकासी सही नहीं होने के कारण जल प्लावन से पूरा जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। बारिश का पानी जमीन के अंदर नहीं जा पता है, जिसके कारण भूमिगत जल का स्तर लगातार नीचे की ओर जा रहा है। बीते वर्ष में चक्रवात “मोचा” और “मिधुन” ने पूर्वी और पश्चिमी तटों पर भारी तबाही मचाई। लाखों लोग विस्थापित हुए, कृषि पर गहरा असर पड़ा, फसलें बड़ी मात्रा में खराब हुईं। वहीं मौसम में भीषण गर्मी और सूखे ने मध्य और दक्षिण भारत में पानी की कमी के संकट को बढ़ा दिया है। वैज्ञानिक विगत कई वर्षों से लगातार चेतावनी दे रहे हैं, प्रकृति के साथ यदि छेड़छाड़ इसी तरह से जारी रही, तो आने वाले वर्षों में ऐसी भीषण आपदाएँ और तेज गति से बढ़ेंगी। यदि हमने विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन साधने का प्रयास गंभीरता के साथ नहीं किया तो वर्तमान एवं आने वाली पीढ़ी को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। किसी भी तरह से इसकी भरपाई करना संभव नहीं होगी। विकास का अर्थ केवल चौड़ी सड़कों, ऊँची इमारतों और औद्योगिक परियोजनाओं के लिए नहीं होना चाहिए। सच्चा विकास वही है, जो मानव जीवन की सुरक्षा, प्रकृति के संरक्षण को साथ लेकर चले। तभी मानवीय सभ्यता और प्रकृति का विकास संभव है। आपदाओं से होने वाली जन-धन की जो हानि हुई है वह विकास की तुलना में कई गुना ज्यादा है। जो हमें यह सोचने पर मजबूर करती है। कहीं हम विकास की आड़ में स्वयं विनाश की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं? आवश्यक है, सरकारें दीर्घकालिक पर्यावरणीय नीतियाँ बनाएं और उनका कठोरता से पालन करें। स्थानीय स्तर पर आपदा प्रबंधन को मजबूत बनाएं ताकि आपदा के समय लोगों के जान-माल की, रक्षा की जा सके। वृक्षारोपण, जल संरक्षण और पारिस्थितिक क्षेत्रों की सुरक्षा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। हमें समझना होगा कि प्रकृति के साथ संघर्ष नहीं, बल्कि सामंजस्य से ही मानव जीवन और प्रकृति के सभी जीवों का अस्तित्व सुरक्षित रह सकता है। प्राकृतिक आपदाओं से मिली चेतावनी से स्पष्ट है, यदि हमने संतुलित विकास का रास्ता नहीं चुना तो आने वाली पीढ़ियों को और भी बड़े संकट का सामना करना पड़ेगा। भारत ही नहीं, दुनिया के सभी देशों में विकास के नाम पर जिस तरह से स्वयं के विनाश को आमंत्रित कर रहे हैं, प्राकृतिक आपदाएं एक सबक की तरह हैं। ब्रह्मांड की कोई सीमा नहीं है। देशों की सीमा हो सकती है। पर्यावरण को लेकर यदि सारी दुनिया के देश इसी तरह की मनमानी करते रहे तो वह दिन दूर नहीं है जब हम स्वयं बहुत बड़े विनाश की ओर आगे बढ़ चुके होंगे, जहां से पीछे लौटना भी संभव नहीं होगा। ठंड, गर्मी, बरसात, भूकंप, भूस्खलन, ज्वालामुखियों का सक्रिय होना, तूफान, खनिज संपदा का उत्खनन, हीटवेव इत्यादि के कारण पूरी दुनिया के देशों में प्राकृतिक आपदायें तेजी के साथ बढ़ रही हैं। समय रहते इस पर ध्यान देने की जरूरत है। एसजे/ 3‎ सितम्बर /2025