लेख
04-Sep-2025
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(5 सितम्बर: ईद मिलादुन्नबी पर विशेष) इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत पैगंबर मोहम्मद साहब की विलादत को पूरी दुनिया में जश्न की तरह मनाया जाता है, इसलिए इसे ईद-ए-मिलादुन्नबी भी कहा जाता है। मोहम्मद साहब वही नबी थे, जिनके आने के पहले पूरे अरब में हिंसा और जहालत फैली हुई थी। औरतें और बच्चे महफूज नहीं थे। लोगों के जान-माल की लूट खसोट मची हुई थी। हर कबीले का अपना कानून था, ईसाईयों और यहूदियों के कबीलों में भी मजहब की नाम पर हिंसा फैली हुई थी। बाप अपनी बच्ची को उसकी हिफाजत के डर से जिंदा जला देते थे। औरत नुमाइश, भोग-विलास की वस्तु थी। नाहक तौर पर अरब कबीले एक-दूसरे से जंग करते थे। ऐसे दौर में मोहम्मद साहब ने लोगों को सहीं रास्ता बताया। समाज में फैली कुरीतियों, जातिगत भेद-भाव, बदइंतजामी, मार-काट के दौर से दुनिया को बाहर निकालने के लिए मोहम्मद साहब का जन्म हुआ। दुनिया को इंसानियत का रास्ता दिखाने के लिए अल्लाह ने हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को पैगंबर बनाया। मोहम्मद साहब ने लोगों को बताया कि अल्लाह एक है। पैगम्बर साहब से पहले अब्राहम, आदम, जीसस, मोसेस और दूसरे नबियो ने भी यही संदेश दिया था कि ईश्वर केवल एक है। नबी साहब के बताए आदर्शों, नसीहत और सीख के बाद इंसान, इंसान से मोहब्बत करने लग गया था। जुल्मो-सितम से लोगों को राहत मिली, जो लोग लूट मार कर रहे थे वो तालीम हासिल करने में लग गए। यह वही ’मोहम्मद’ थे जिन्होंने इंसान को दुनियावी और दीनी तालीम देते हुए हक के रास्ते पर चलने की नसीहत दी। औरतों को उनका पूरा हक देने, उनके साथ सम्मानजनक बर्ताव करने की हिदायत दी। मोहम्मद साहब के कहना था कि बेटी तो किस्मत वालों के यहां पैदा होती है। इसी तरह आपने बेटे-बेटी की बीच भेदभाव को गलत करार दिया। आपने मां-बाप का मर्तबा बताया और बच्चों को मां-बाप की नाफरमानी न करने की नसीहत दी। उन्होंने ऐसे आदर्श समाज की स्थापना की जिसमें कई कबीलों और जातियों के लोग बिना किसी भेदभाव के समान अधिकारों के साथ रह सकें। मोहम्मद साहब को अब्द, बशीर, शाहिद, मुबारशीर, नाथिर, सिराज मुनीर, अल मुजम्मिल और अहमद के नाम से भी जाना जाता है। अरब के लोग उन्हें अल-अमीन और अल-सादिक के नाम से भी पुकारते थे। पैगंबर हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहे वसल्लम ने ही इस्लाम धर्म की स्थापना की है। आप हजरत सल्ल. इस्लाम के आखिरी नबी हैं, आपके बाद अब कयामत तक कोई नबी नहीं आने वाला। इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक 570 ईसवीं में 12 रबीउल अव्वल मोहम्मद की पैदाइश का दिन। अपने पिता अब्दुल्लाह के इस दुनिया से रुखसत हो जाने के बाद जन्मे इस मासूम बच्चे के बारे में किसने सोचा की थी कि यह अरब सभ्यता की दशा और दिशा बदलने के साथ ही दुनिया को नेक राह पर चलने की हिदायत देने वाला देवदूत होगा। आपके दादा अब्दुल मुत्तलिब आपकी पैदाइश के दिन ही आपको खाना-ए-काबा ले गए और तवाफ कराकर लाए और आपका नाम मुहम्मद रखा। आपकी वालिदा को ख्वाब में फरिश्ते ने आपका नाम अहमद बताया और इस तरह आपके दो नाम रखे गए। नबी साहब के ये दोनों ही नाम असली है। पैगंबर मोहम्मद साहब का नाम दुनिया में सबसे लोकप्रिय नामों में से एक है। मोहम्मद साहब अपने खाली वक्त में वह जबल अल-नूर पर्वत पर ’गार-ए-हिरा’ में जाकर इबादत में मशगूल हो जाते थे। उनके पास ना तो कोई दौलत थी और न सरमाया। ना सोने-चांदी, हीरे-जवाहरात के ढेर। फिक्रो-फाका, गरीबी और तंगहाली को देख कर कर्म विरोधी लोग अक्सर कहते थे कि ’ये कैसा नबी है जो रहता है टूटे हुए हुजरे में, बैठता है खजूर की चटाई पर, पहनता है फटी हुई चादर और दावा करता है सारे कायनात के नबी होने का’। लेकिन ये वही नबी थे जिनके वादे को ईमाम हुसैन ने कर्बला में अपनी शहादत देकर पूरा किया और इंसानियत को ताकयामत के लिए बचा लिया। मोहम्मद साहब का पूरा जीवन और उनके किए हर काम में कोई न कोई संदेश जरूर छिपा होता था। मसलन, हजरत खदीजा से मोहम्मद साहब की शादी। 25 साल की आयु में आपने 40 साल की विधवा से शादी की। उनके इस फैसले में विधवा विवाह का सामाजिक संदेश छिपा हुआ था। मक्का के बाहर एक पहाड़ पर सन् 610 में ईश्वरी संदेश या वही के जरिए उन्हें नुबुवत मिली अर्थात पैगंबर बनाए जाने का संदेश मिला। उस वक्त आप 40 साल के थे। हजरत मोहम्मद साहब पर जो अल्लाह की पवित्र किताब उतारी गई है, वह है कुरआन। अल्लाह ने फरिश्तों के सरदार जिब्राइल अलै. के मार्फत पवित्र संदेश (वही) सुनाया। उस संदेश को ही कुरआन में संजोया गया है। कुरान इस्लाम का धार्मिक ग्रंथ और वह पाक-मुकद्दस किताब है जो आज भी लोगों को भलाई के रास्ते पर चलने का संदेश दे रही है। कुरान में मुहम्मद शब्द का अर्थ “सराहनीय” है और यह शब्द कुरान में कुल चार बार आया है। कुरान में मुहम्मद साहब का जिक्र मुख्य रूप से नबी, अल्लाह का गुलाम, दूत, बशीर, मुबश्शिर, शहीद, नाथिर, नूर, मुधाक्किर और सिरजमुनिर के रूप में भी है। कुरान-ए-पाक का हिन्दी, अरबी, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच सहित अन्य भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है। जबकि, कुरान में हजरत मोहम्मद साहब की आयतें लिखी हुई हैं। ऐसा कहा जाता है कि कुरान आयतों के रूप में नाज़िल हुआ और इसे पूरा या मुकम्मल होने में 23 साल लगे। न तो ईसा मसीह की तरह मोहम्मद को जन्म से ही अपने नबी होने का अंदाजा था न ही वे मूसा की तरह बेशुमार चमत्कारों के धनी थे। वे जागीर या सल्तनत देकर भी जमीं पर भेजे नहीं गए थे, फिर भी लोगों में मकबूल थे। लोग प्रेम से इन्हें ’सादिक’ यानि सच्चा या ’अमीन’ यानि अमानतदार कह कर बुलाते थे। मोहम्मद साहब के चेहरे पर नूर था। जैसे-जैसे हजरत मोहम्मद साहब बड़े हुए उनकी ईमानदारी, नैतिकता और सादगी ने उनको और प्रतिष्ठित कर दिया। अपने इन सिद्धांतों पर वे इतना दृढ़ थे कि मक्का के लोग उन्हें ‘अल-अमीन’ नाम से पुकारने लगे थे, जिसका अर्थ होता है भरोसेमंद व्यक्ति। उनके चचेरे भाई हजरत अली का कहना था कि जो लोग उनके पास आते उनसे और करीब हो जाते। वह लोगों की जरूरतें पूरी करते, अच्छे कामों के लिए लोगों को प्रेरित करते। आप ने कभी दो वक्त का खाना नहीं खाया, एक वक्त खाना खाते और उसमें भी सिर्फ एक ही सब्जी। वह कभी अकेले नहीं खाते बल्कि दूसरे लोगों को न्योता देकर बुलाते और उनके साथ खाना खाते। आप गरीब और बीमारों की देखभाल किया करते थे। सही मायनों में आप नेकी, प्रेम, उदारता एवं पवित्रता के प्रतीक थे। मोहम्मद साहब के जन्म को भी मुसलमान ईद की तरह मनाते हैं इसलिए इसे ईद मिलाद उन-नबी भी कहा जाता है। ईद का अर्थ होता है उत्सव मनाना और मिलाद का अर्थ होता है जन्म होना। मिलाद उन नबी इस शब्द का मूल मौलिद है जिसका अर्थ अरबी में जन्म है। अरबी भाषा में मौलिद-उन-नबी का मतलब है हजरत मुहम्मद का जन्मदिन है। मौलिद के अलावा मवलीद या मौलूद भी कहा जाता है जिसका मतलब जन्मदिन है। नबी साहब के जन्मदिन पर सीरत और नात पढ़ी जाती है। इस्लाम में बेहद अहम यह दिन इस्लामी कैलेंडर के तीसरे महीने रबी-उल-अव्वल के 12वें दिन मनाया जाता है। हालांकि मोहम्मद साहब का जन्मदिन एक खुशहाल अवसर है लेकिन मिलाद-उन-नबी को कई जगह शोक के दिन के रूप में भी मनाया जाता है। क्योंकि रबी-उल-अव्वल के 12वें दिन ही पैगंबर मोहम्मद साहब खुदा के पास वापस लौट गए थे। यह उत्सव मोहम्मद साहब के जीवन और उनकी शिक्षाओं की भी याद दिलाता है। 1588 में उस्मानिया साम्राज्य में इसे व्यापक तौर पर मनाया गया जिसमें हर खास ओ आम शामिल हुआ था और तब से लेकर अब तक साल दर साल नबी साहब के जन्मदिन का जश्न और ज्यादा भव्य होता जा रहा है। दुनिया भर के अलग-अलग देशों में मुस्लिम धर्मावलम्बी इस त्यौहार को जोश और खरोश के साथ मनाते हैं। ईद मिलाद उन नबी को अलग-अलग भाषाओं में अलग अलग नामों से पुकारा जाता है। अरबी में ईद अल-मौलीद अन-नबी तो उर्दू में ईद मिलाद-उन-नबी कहा जाता है। बांग्लादेश श्रीलंका, मालदीव और दक्षिण भारत की भाषाओं में ईद-ए-मिलादुन्नबी, ईजिप्ट की अरबी भाषा एल मूलेद (एन-नबवी) या मूलेद एन-नबी, तुनीश की अरबी भाषा में एल-मूलेद, वोलोफ भाषा में गमोव, अरबी में मौलूद और यौम अन-नबी अरबी में ही मौलीद अन-नबी (ब.व. अल-मवालिद), मलय भाषा में मौलीदुर-रसूल, इंडोनेशियन भाषा में मौलीदुर-नबी, मलेशियन भाषा में मौलूद नबी, स्वाहिली और हौसा भाषाओं में मौलीदी, दारी भाषा या पर्शियन या उर्दू में मौलूद-ए-शरीफ यानि शुभ जन्म, अल्जीरियन भाषा में मौलीद एन-नबोई एशरीफ, तुर्की भाषा में मेवलदूत या मेवलीद-इ शरिफ, बोस्नियन में मेवलूद या मेवलीद, अल्बेनियन में मेवलैदी, पर्शियन में मिलाद-ए पयम्बर-ए अकरम, जावनीस भाषा में मूलूद, संस्कृत या दक्षिण भारती भाषाओं में नबी या महानबी जयंती और अजेरी भाषा में मोवलूद कहा जाता है। -- मोहम्मद साहब का जीवन पैगंबर हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के जन्म से पहले मक्का एक कारण से महत्वपूर्ण हो गया था वह था काबा, जिसकी तामीर कई सदियों पहले हजरत मुहम्मद साहब के पूर्वज हजरत इब्राहीम और उनके बेटे इस्माइल ने की थी। काबा होने के कारण मक्का एक बड़ा व्यापारिक केंद्र बन गया था, यहां लोग दूर दराज शहरों से काबा देखने आते और वहां आकर अपना सामान बेचते। मोहम्मद साहब का जन्म सन् 570 में मक्का, सऊदी अरब में हुआ था। आपके बचपन का नाम मुहम्मद इब्न अब्दुल्ला अल हाशिम था। उन्हें मुस्तफा, अहमद, हामिद और मुहम्मद के नाम से भी जाना जाता है। हजरत मोहम्मद साहब का नाम उनके दादा अब्दुल मुत्तलिब ने रखा था जिसका अर्थ है प्रशंसित या तारीफ ए काबिल। मोहम्मद नाम अरब में नया था। मक्का के लोगों ने जब अब्दुल मुत्तलिब से नाम रखने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि ताकि पूरी दुनिया में मेरे बेटे की तारीफ की जाए। पैगम्बर साहब के पिता का नाम अब्दुल्ला इब्न अब्दुल मुत्तलिब था, उनके पिता का निधन पैगंबर के जन्म से पहले ही हो गया था। पैगंबर की मां का नाम बीबी आमेना बिन्त वहाब था और जब वह 6 साल के थे तो 576 में आपकी मां का इंतकाल हो गया। माँ के इंतकाल के बाद पैगम्बर के पालन-पोषण की जिम्मेदारी उनके दादा अबू मुत्तलिब और चाचा अबू तालिब ने निभाई। तब आप दमस्क में एक ऊंट की देखभाल करने लगे। 583 को उनके दादा ने उन्हें व्यापार का अनुभव हासिल करने के लिए सीरिया भेज दिया। जब पैगंबर 9 वर्ष के थे, तब उनके दादा की मृत्यु हो गई। अपने दादा के इंतकाल के बाद वह अपने चाचा के साथ रहने लगे। 12 साल की उम्र में आप अपने चाचा अबू तालिब के साथ अपने पहले व्यावसायिक सफर पर गए और इसके बाद खुद व्यवसाय पर जाने लगे। पैगंबर मुहम्मद साहब बचपन से ही मेहनती, बुद्धिमान, ईमानदार, गंभीर स्वभाव के और कम तथा मीठा बोलने वाले थे। बचपन में वह अपने चाचा के व्यवसाय में उनकी मदद करते थे। उनकी सच्चाई और ईमानदारी को देखकर लोग उन्हें अल-अमीन यानी सच्चा ईमानदार या सच्चा कहा करते थे। बड़े होने पर मोहम्मद साहब व्यापार करने लगे। हजरत मोहम्मद अपने नौकरों के साथ भी बहुत नम्र थे। सांसारिक जीवन जीते हुए भी वह यही सोचते रहते थे कि लोगों को बुराई के रास्ते से कैसे हटाया जाए। उनकी मेहनत और ईमानदारी से प्रभावित होकर हजरत खदीजा जो 40 साल की थीं और विधवा थीं, ने पैगंबर मुहम्मद साहब के सामने शादी का प्रस्ताव रखा और पैगंबर मुहम्मद ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। पैगम्बर मुहम्मद उस समय 25 वर्ष के थे। 595 में आपकी हजरत खदीजा से शादी हुई। पैगम्बर साहब ने इस विवाह से ये संदेश दिया कि विधवाओं से भी शादी की जा सकती है, विधवा महिलाओं को भी सम्मान और सुरक्षा का अधिकार है। इस तरह ये माना जा सकता है पूरी दुनिया में सबसे पहले विधवा विवाह की शुरुआत इस्लाम से हुई। 597 को जैनब, उम्मे कुलसुम और फातेमा नाम की बेटियों का जन्म हुआ। 610 को गार ए हिरा गुफा में देवदूत जिब्राइल से मुलाकात हुई और पैगंबर बनाए जाने का संदेश मिला। इसके बाद आपने इस्लाम के संदेश लोगों तक पहुंचाने शुरू किए। 619 में आपकी पत्नी खदीजा और चाचा अबू तालिब का इंतकाल हो गया। 620 को मेराज हुई यानि आप आसमानी सफर पर गए। 622 को आपने हिजरत की। सन 622 में वे मक्का से 200 मील दूर मदीना आ गए और मदीना के ही हो गए। मक्का से मदीना के इस सफर को हिजरत कहा जाता है और यहीं से इस्लामी कैलेंडर हिजरी की शुरूआत हुई। आपने 629 को पहली हज यात्रा की, तब आपके साथ करीब दस हजार मुसलमान थे। सन 630 ई. को मक्का में काबा को इस्लाम का पवित्र स्थल घोषित किया गया। 632 को आखरी हज यात्रा की। 8 जून 632 ईस्वी, 28 सफर हिजरी सन् 11 को 63 वर्ष की उम्र में हजरत मुहम्मद सल्ल. ने मदीना में दुनिया से पर्दा कर लिया। इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका में मनुष्य और उनके देवता शीर्षक वाले लेख के लेखक एक ईसाई ओरिएंटलिस्ट हैं। उन्होंने इस आलेख में लिखा है कि कैसे हजरत मोहम्मद साहब ने मात्र 23 वर्षों में ऐसा प्रभाव डाला जिसने इतिहास का रुख हमेशा के लिए बदल दिया। लेस्ली हेजलटन नामक लेखक ने पैगंबर मोहम्मद के जीवन पर एक किताब लिखी है, जिसका नाम द फर्स्ट मुस्लिम है। बहरहाल, हजरत मोहम्मद साहब की ज़िन्दगी, उनके आदर्श, उनके उसूल आज भी लोगों को सच्चाई और हक के रास्ते पर चलने की राह दिखाती है। मोहम्मद साहब शांति और अमन की चाहत रखने वाले थे। पैगम्बर साहब ने ना सिर्फ लोगों को हिदायत दी बल्कि गरीब-मजलूमों की हिमायत करने, दान करने, महिलाओं का सम्मान करने, गलत कामों से बचने, हर हाल में सब्र और शुक्र करने, दोस्तों-रिश्तेदारों-पड़ोसियों का ख्याल रखने, नफरत ना करने की नसीहतें दी। मुस्लिम समाज के लिए जरूरी है के वे खुद को भटकाने वाले रहनुमाओं से हटाकर हजरत मोहम्मद साहब के दिखाए सिद्धांतों पर चलें। ईएमएस/04/09/2025