लेख
09-Oct-2025
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श्रद्धा एक ऐसी चीज है जो किसी भी रिश्ते को मजबूत करती है व्रत का फल तभी मिलता है जब हम उस मकसद मेँ कामयाब हो किसी के सुःख मेँ तो सभी साथ देते हैं लेकिन किसी के दुःख मेँ क्या आप सही मेँ साथ देते है ब्रत नर और नारी के लिए एक समान है किसी मेँ भेद भाव नहीं रखना चाहिए और पत्नी से ज्यादा माँ को स्थान दें माँ भी एक स्त्री है लेकिन आपके दुःख मेँ हमेशा अपने बच्चे को साथ मेँ उसकी भावना जुड़ी होती है रिश्ता सिर्फ शारीरिक ना होकर दुःख सुःख मेँ साथ देने वाला होना चाहिए आज एक अलग ही परम्परा बन गई है जिसे ध्यान देने की जरुरत है सास के प्रति नफरत की भावना भी गलत है और हमेशा अपने पति के दुःख मेँ साथ दें दुनिया एज रंग मंच है और जैसा आप करेंगे बच्चे भी वैसा ही सीखेंगे और सही मायने मेँ ईश्वर हर दिन एक ताजे गुलाब की तरह है जिसमें हनेशा खुसबू होती है हमें ब्रत से ज्यादा अपने रिश्ते को ध्यान देना चाहिए क्योंकि यदि रिश्ते मेँ दरार आ गई तो क़ोई भी ब्रत करें उसका कुछ भी फल प्राप्त नहीं होगा जब तक आपके अंदर सच्चे प्रेम की भावना नहीं पैदा होगी और ऐ विश्वास से होगा समझना होगा रिश्ते का महत्व, और सुःख मेँ तो सभी साथ देते हैं दुःख मेँ साथ देना सबसे महत्वपूर्ण है दुःख कभी बता कर नहीं आती लेकिन आती है तो अगर आप साथ नहीं खड़ा हुए तो उससे आपका विश्वास नहीं रहेगा और रिश्ते मेँ एक दिवार आ जाएगी गीता के अनुसार, रिश्तों में एक दूसरे का सम्मान, प्रेम और कर्तव्य की भावना आवश्यक है। रिश्तों की मजबूती के लिए आत्मसम्मान बनाए रखना महत्वपूर्ण है और अगर आत्मसम्मान ठेस पहुँचे तो ऐसे रिश्ते से अलग हो जाना चाहिए। गीता निष्काम कर्म (बिना फल की चाहत के कर्म) और सभी के प्रति समान भाव रखने पर जोर देती है, जिससे रिश्तों में मिठास और स्थिरता आती है। गीता के अनुसार रिश्ते निभाने के महत्वपूर्ण सिद्धांत सम्मान और प्रेम किसी भी रिश्ते में आपसी सम्मान और प्रेम का होना ज़रूरी है। न केवल बड़ों का बल्कि छोटों का भी सम्मान करना चाहिए, इससे रिश्ते मजबूत बनते हैं। आत्मसम्मान गीता बताती है कि किसी भी रिश्ते में तब तक रहना चाहिए जब तक आपका आत्मसम्मान बना रहे। यदि आपका आत्मसम्मान किसी रिश्ते में कम हो रहा है, तो उस रिश्ते से अलग होना बुद्धिमानी का कार्य है। निष्काम कर्म गीता निष्काम कर्म की शिक्षा देती है, जिसका अर्थ है बिना किसी स्वार्थ या फल की इच्छा के कर्म करना। रिश्तों में यह नियम लागू करने से व्यक्ति को अपनी अपेक्षाओं से मुक्ति मिलती है और रिश्ता खुशहाल बनता है। हर रिश्ते की अपनी एक मर्यादा (सीमा) होती है, जिसका पालन करना ज़रूरी है। सामने वाले व्यक्ति की निजता और उसकी सीमाओं का सम्मान करना रिश्ते को मजबूत बनाता है। रिश्तों को धर्म और कर्तव्य के साथ निभाना चाहिए, यह कड़वाहट को कम करता है। व्यक्ति को अपनी कमजोरियों और शक्तियों को जानना चाहिए, इससे वह दूसरों से अच्छे संबंध बनाने में सक्षम होता है। गीता के अनुसार, ज्ञानी व्यक्ति सभी को समान देखता है। रिश्तों में भेदभाव न करें और सभी के साथ एक समान भाव रखें, यह मजबूत रिश्ते की नींव है। अतः आपकी सही परीक्षा तब होती है जब आप किसी परेशानी सेजूझ रहे होते हैं और क़ोई आपका हाथ पकड़ लेता है तो विश्वास बढ़ जाता है और माँ हमेशा आपके साथ रहती है माता का प्रेम अमूल्य है और अंत अंत तक आपको आशीर्वाद ही देती है किसी की गुलामी करना भी सही नहीं ऐ तभी मालूम होगा जब आप दुःख की घड़ी मेँ होंगे और फिर आप जाँच कर देख लेना कौन सही है बूढ़े माता पिता से पता नहीं आज अपने ही बच्चे भाग क्यों जाते है लेकिन आपको भी बूढ़ा होना तय है अतः माता पिता का हमेशा से सम्मान करना चाहिए और ऐ चीज भगवान राम से सिखने की जरुरत है भगवान राम भले ही 14 साल तक वन मेँ रहे लेकिन उनका दृढ़ संकल्प था न्याय के रास्ते पर चलना काँटों पर चलकर ही उनका चरण एक ऐसी जादुई शक्ति बन गई की अहिल्या जो पथ्थर बनी वो उनके चरण सपर्ष मात्र से जीवित हो गई और यही प्रेम केवट और भगवान राम के प्रेम मेँ झलकता है रामचरित मानस में भगवान श्रीराम के वनवास के समय का एक बेहद मार्मिक प्रसंंग है। तुलसीदास जी द्वारा लिखित मानस का ये प्रसंग केवट की भक्ति और श्रीराम की करुणा को बताता है। केवट अपने तर्कों से प्रभु को भी निरुत्तर कर देते हैं तथा भक्त वत्सल श्रीराम उन पर अनन्य कृपा बरसाते हैं। छूअत सिला भई नारि सुहाई । पाहन ते न काठ कठिनाई ।।तरनिउ मुनि घरिनी होई जाई । बाट परई मोरि नाव उडाई ।। अर्थात् जिसके छूते ही पत्थर की शिला सुन्दरी स्त्री हो गयी (मेरी नाव तो काठ की है ) । काठ पत्थर से कठोर तो होता नहीं । मेरी नाव भी मुनि की स्त्री हो जायेगी और इस प्रकार मेरी नाव उड़ जाएगी, मैं लुट जाऊँगा अतः वो भगवान राम के पैर अपने आंसू से ही धो देता है और चरनामृत समझ कर पी जाता है ऐ है भक्ती जो संस्कार है और यही आपको भवसागर पार करा देगी इसलिए किसी से प्रेम करें या ना करें लेकिन भगवान राम से जरूर प्रेम करें तब दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा ऐ शरीर का नाश होना तय है अतः हमें अपने संस्कार को बनाए रखना चाहिए ईश्वर के प्रेम से बढ़ कर कुछ नहीं है और सच्चाई का पता तभी लगेगा जब आप भगवान राम से सच्चा प्रेम करेगा और उसे प्रेम करने वाला कभी माता पिता से बैर नहीं करेगा जहाँ तक आयु बढ़ने और ब्रत का सवाल है वो तभी होगा जब आप भावना को समझ जाएं और आप अपने को पहचाने तभी आपका सही कर्तव्य मालूम होगा।अंततोगत्वा भगवान श्रीराम बोले - ‘सोई करू जेहिं तव नाव न जाई’ अर्थात् भाई ! तू वही करो जिससे तेरी नाव न जाए। जिनका नाम एक बार स्मरण करने से मनुष्य अपार भवसागर से पार उतर जाते हैं आज वही प्रभु केवट का निहोरा कर रहे हैं। केवट श्रीरामचन्द्र जी की आज्ञा पाकर कठौते में जल भरकर ले आया। अत्यन्त आनंद और प्रेम में उमंगकर वह ‘चरन सरोज पखारने लगा’। सब देवता फूल बरसाने लगे क्योंकि जो चरण बड़े-बड़े योगियों के ध्यान में भी नहीं आते उन्हीं चरणों को धोकर केवट ने सपरिवार उस चरणामृत का पान किया, जिससे उनके पितर भी भवसागर से पार हो गए। इसके बाद केवट ने आनंदपूर्वक प्रभु को गंगा पार करवाया और उतरकर दंडवत किया। प्रभु को संकोच हुआ इसे कुछ नहीं दिया। भगवान श्रीराम केवट को अपनी धर्मपत्नी जनकनन्दिनी सीताजी की अंगूठी दे रहे हैं परंतु केवट व्याकुल होकर चरण पकड़ रहे हैं - मानो भगवान हमें सीख दे रहे हैं कि देने वाला चाहे जितना भी अधिक दे परंतु यह सोचे कि मैंने कुछ नहीं दिया है। तभी उसका देना सफल होता है और लेने वाला कम होने पर भी समझे कि नहीं-नहीं बहुत अधिक दिया हैं। तभी उसका लेना सफल होता हैं। अर्थात् देना गरिमामयी हो तो लेना भी महिमामयी हो ।बार-बार आग्रह करने पर भी केवट कुछ नहीं लेता है। केवट कहता है - प्रभु ! हम एक ही जाति के हैं। हम दोनों का काम एक ही है, सभी जीवों को पार उतारना। मैं जब भी आपके पास आऊँगा तो उस समय मेरे पास देने को कुछ भी नहीं होगा, मेरा भी हाथ खाली रहेगा उस समय आप भी मुझे इस भवसागर से पार उतार देना। उस दिन हमारा हिसाब बराबर हो जाएगा। लक्ष्मण जी ने भी काफी आग्रह किया परंतु केवट ने कुछ नहीं लिया। अंततः भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने निर्मल भक्ति का वरदान देकर उन्हें विदा किया। केवट तो भूल ही गया था अपने को और यह भी भूल गया था कि उसका परिवार भी है। लेकिन भगवान राम की कृपा से बढ़कर इस दुनिया मेँ कुछ नहीं है और यही आपको भावसागर पार करा सकता है। इसलिए जिस शरीर का नस्ट होना तय है उसके उलझन मेँ ना पड़े कर्म करें फल अवश्य मिलेगा लेकिन रिश्ते मेँ जितना सुःख की अहमियत को समझते हैं उतना बूढ़े माता पिता के लिए उनके दुःख की अहमियत को भी समझे तभी आपका जीवन सफल होगा। ईएमएस / 09 अक्टूबर 25