शिमला (ईएमएस)। अगर आप भीड़-भाड़ वाले पर्यटन स्थलों से हटकर हिमाचल प्रदेश की सदियों पुरानी और रहस्यमय संस्कृति को करीब से देखना चाहते हैं, तो शिमला के पास धामी की पूर्व रियासत में स्थित हलोग गाँव की यात्रा आपको अचंभित कर सकती है। इस गाँव में हर साल दीपावली के अगले दिन एक अनोखी और जोखिम भरी परंपरा निभाई जाती है, जिसे पत्थर मेला या बुग्गा मेला के नाम से जाना जाता है। यह रोमांचक त्यौहार तब तक नहीं रुकता जब तक कि पत्थरों की बौछार में किसी एक प्रतिभागी का खून न बह जाए। स्थानीय लोगों का अटूट विश्वास है कि यह रस्म क्षेत्र में सुख-शांति, समृद्धि और कल्याण लाती है। यही वजह है कि यह मेला सिर्फ एक खेल नहीं, बल्कि हलोग की ऐतिहासिक पहचान और लोगों की गहरी आस्था का जीवंत प्रमाण है, जिसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग जमा होते हैं। इस अनोखी परंपरा के पीछे एक गहरा और कुछ हद तक भयावह इतिहास छिपा है। दरअसल, पुराने समय में धामी रियासत में मानव बलि की प्रथा प्रचलित थी। हर साल माँ भीमा काली मंदिर में देवी को प्रसन्न करने के लिए इस प्रथा को अंजाम दिया जाता था। स्थानीय कथाओं के अनुसार, देवी को प्रसन्न करने के लिए बलि के दौरान दूर से पत्थर फेंके जाते थे और घायलों के रक्त को एकत्र करके मंदिर में अर्पित किया जाता था। समय के साथ, मानव बलि की प्रथा बंद हुई, लेकिन रक्त अर्पण की यह रस्म पत्थरबाजी के खेल में बदल गई। इस तरह, सदियों पहले की क्रूर प्रथा एक जोखिम भरे लेकिन आस्था से भरे लोक त्यौहार का रूप ले चुकी है। यह पत्थर मेला मुख्य रूप से हलोग गाँव के दो समूहों, कटेदु और झानोगी के बीच आयोजित होता है। दीपावली के अगले दिन दोपहर में यह खेल शुरू होता है। दोनों समूह एक-दूसरे पर पत्थरों की बौछार करते हैं। यह खेल तब तक जारी रहता है जब तक कि पत्थरों से घायल होकर किसी एक व्यक्ति के शरीर से खून न निकल जाए। जैसे ही किसी प्रतिभागी को चोट लगती है और रक्त बहता है, खेल तुरंत रोक दिया जाता है। इसके बाद मंदिर के पुजारी तुरंत उस पवित्र माने जाने वाले रक्त को एकत्र करते हैं और उसे लेकर सीधे माँ भीमा काली मंदिर जाते हैं। इसी रक्त से मंदिर में माँ काली को तिलक लगाया जाता है। हलोग गाँव के निवासियों के लिए, यह पत्थर मेला केवल एक खतरनाक खेल नहीं है, बल्कि यह त्याग, साहस और सामुदायिक एकता का प्रतीक बन गया है। इस रस्म के माध्यम से वे अपनी देवी के प्रति अटूट आस्था प्रकट करते हैं और मानते हैं कि यह रक्त अर्पण उनकी और उनके क्षेत्र की रक्षा करेगा। यह त्यौहार हिमाचल की लोक परंपराओं और सांस्कृतिक इतिहास का एक जीवंत प्रमाण है। यह मेला दिखाता है कि कैसे लोक आस्थाएँ सदियों तक अपनी पहचान बनाए रखती हैं, भले ही उनका स्वरूप समय के साथ बदल जाए। हलोग गाँव के लोगों के लिए यह पत्थर मेला उनके अनोखे सांस्कृतिक गौरव और गहरी आस्था का प्रतीक है, जो हर साल दिवाली के बाद पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचता है।