दुनिया की अर्थव्यवस्था आज एक ऐसे दो-राहे पर खड़ी है, जहाँ समृद्ध देशों की चकाचौंध के पीछे कर्ज का पहाड़ तेजी से बढ़ता ही जा रहा है। अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन और जापान जैसे विकसित देशों का सार्वजनिक ऋण उनके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 110 फ़ीसदी से अधिक पहुँच गया है। यह महज आंकड़ों की जादुगरी नहीं है, बल्कि एक गहराते वैश्विक संकट का संकेत है, जिसकी आंच अब पूरी दुनिया को महसूस होने लगी है। दुनियां की महाशक्ति कहे जाने वाले अमेरिका जैसे देश में हालात इतने खराब हैं कि सरकार को बार-बार लॉकडाउन जैसी नीतियों का सहारा लेना पड़ा है। लाखों लोग बेरोजगार हो चुके हैं और मध्यम वर्ग का जीवन-स्तर गिरता जा रहा है। महंगाई और टैक्स का बोझ इतना बढ़ गया है कि आम नागरिकों की जेबें खाली हो रही हैं, जबकि सरकारें अपने खर्चों को पूरा करने के लिए साल-दर-साल कर्ज पर निर्भर होती जा रही हैं। अमेरिका की यह समस्या अब केवल उसकी नहीं रही, फ्रांस, ब्रिटेन और जापान जैसे देशों में भी यही हाल है। दूसरी ओर, विकासशील देशों की स्थिति और भी विकट है। श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल जैसे देशों में हाल के वर्षों में जो जनविद्रोह देखे गए, वे इस बात के प्रतीक हैं कि वैश्विक अर्थव्यवस्था का ढांचा हिल चुका है। बढ़ती महंगाई, घटती नौकरियाँ और शिक्षा-स्वास्थ्य पर कटौती ने आम जनता के जीवन को असहनीय बना दिया है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) जैसी तकनीक जहाँ उत्पादकता बढ़ा रही हैं, वहीं बेरोजगारी को भी नई ऊँचाइयों पर पहुँचा रही हैं। लाखों लोग अपनी नौकरियाँ खो चुके हैं, और जो काम पर हैं, वे भी असुरक्षा की स्थिति में जी रहे हैं। इस पर मौजूदा सरकारों का ध्यान रक्षा, ब्याज भुगतान और जलवायु परिवर्तन पर खर्च में तो है, परंतु जनता की बुनियादी जरूरतों को उपेक्षित किया हुआ है। शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च घटाने से सामाजिक असंतोष बढ़ रहा है। यूरोप और एशिया के कई देशों में लगातार विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं, सरकारें गिर रही हैं, पर नई सरकारें भी आर्थिक संकट का समाधान नहीं खोज पा रही हैं। इस अव्यवस्था के चलते जनता का विश्वास अपनी ही सरकारों और सिस्टम के प्रति तेजी से घट रहा है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की रिपोर्ट के अनुसार, आने वाले वर्षों में यूरोप और अमेरिका जैसे विकसित देशों पर ब्याज, पेंशन, स्वास्थ्य, रक्षा और जलवायु खर्च का भारी दबाव रहेगा। अमेरिका को अपने खर्च और आय के बीच का अंतर पाटने के लिए टैक्स बढ़ाना पड़ेगा और सार्वजनिक खर्च में कटौती करनी होगी। पर चिंता इस बात की है कि इसका सीधा असर भी आम नागरिकों पर पड़ेगा, यानी रोजगार घटेंगे, महंगाई बढ़ेगी और जीवनयापन और कठिन हो जाएगा। इस बीच एशिया की स्थिति भी चिंताजनक है। चीन और दक्षिण कोरिया ने पिछले दो दशकों में अपनी जनशक्ति का उपयोग कर आर्थिक मजबूती हासिल की, पर भारत जैसी युवा आबादी वाले देश अभी भी इस क्षमता का पूर्ण उपयोग नहीं कर पाए हैं। भारत की युवा शक्ति यदि उचित दिशा नहीं पा सकी, तो बेरोजगारी और असंतोष यहाँ भी गंभीर सामाजिक समस्या बन सकता है। दुनिया भर में एक नई प्रवृत्ति देखने को मिल रही है, स्थायी नौकरियों की जगह अस्थायी और अनुबंध आधारित रोजगार के साथ ही ठेका पद्धति का चलन बढ़ा है। इसका परिणाम यह हुआ है कि लोगों की बचत समाप्त हो गई है, और भविष्य को लेकर अनिश्चितता बढ़ गई है। अर्थव्यवस्था की रफ्तार थमने लगी है, जबकि सोने-चांदी जैसे सुरक्षित निवेशों की मांग बढ़ रही है। डॉलर और अन्य मुद्राओं का अवमूल्यन हो रहा है, बैंकिंग व्यवस्था डगमगा रही है और शेयर बाजारों में अस्थिरता का दौर जारी है। यह स्थिति बताती है कि वैश्विक आर्थिक प्रणाली एक बड़े पुनर्गठन की मांग कर रही है। मुक्त व्यापार और उदारीकरण की नीतियाँ, जिन्होंने कभी दुनिया को समृद्धि की ओर अग्रसर किया था, अब अपने ही भार से दबने लगी हैं। वैश्विक व्यापार संधि के परिणामस्वरूप बड़ी कंपनियाँ लाभ में हैं, पर आम जनता कर्ज और महंगाई के बोझ से दब चुकी है। अब वक्त आ गया है कि विश्व समुदाय इस संकट से निपटने के लिए संयुक्त रणनीति बनाए। केवल टैक्स बढ़ाने या खर्च घटाने से समाधान नहीं निकलने वाला है। जरूरत है ऐसी नीतियों की जो उत्पादन, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा के बीच संतुलन बनाएँ। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और ऑटोमेशन के युग में मानव संसाधन के पुनर्विकास और शिक्षा पर निवेश बढ़ाना ही दीर्घकालिक समाधान है। अर्थशास्त्रियों का यह मानना सही प्रतीत होता है कि वर्तमान समय “आर्थिक पुनर्संतुलन” का दौर है। यदि दुनिया की सरकारें आज निर्णायक कदम नहीं उठातीं, तो कल यह संकट केवल आर्थिक नहीं, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक अस्थिरता का भी कारण बन जाएगा। वैश्विक अर्थव्यवस्था का यह संकट केवल संख्याओं का नहीं, बल्कि नीतियों और प्राथमिकताओं का संकट है। कर्ज, महंगाई और बेरोजगारी के इस दुष्चक्र से बाहर निकलने के लिए दुनिया को “न्यायसंगत और मानवीय अर्थव्यवस्था” की दिशा में कदम बढ़ाने होंगे, वर्ना आने वाले वर्षों में यह वैश्विक बगावत और भी उग्र रूप ले सकती है। ईएमएस / 18 अक्टूबर 25