छोटी दिवाली या नरक चतुर्दशी 19 अक्टूबर 2025 -) वैश्विक स्तरपर भारत की सांस्कृतिक औरधार्मिक परंपराएँ विश्वभर में अपनी गहराई, आध्यात्मिकता और मानवता के संदेश के लिए जानी जाती हैं। दीपावली का पंचदिवसीय महापर्व केवल एक उत्सव नहीं बल्कि मानव जीवन के आत्मिक उत्थान का प्रतीक माना जाता है।इस पंचदिवसीय श्रृंखला का दूसरा दिन“छोटी दिवाली” या “नरक चतुर्दशी”कहलाता है।वर्ष 2025 में यह पावन दिवस 19 अक्टूबर को मनाया जाएगा। इस दिन का महत्व केवल दीप प्रज्ज्वलन तक सीमित नहीं, बल्कि यह मानव जीवन के भीतर बसे अंधकार,नकारात्मकता और अहंकार को मिटाने का प्रतीकात्मक संदेश देता है। मैं एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र यह मानता हूं कि यह पर्व भारत ही नहीं,बल्कि विश्वभर में बसे भारतवंशियों के बीच भी समान श्रद्धा और उल्लास से मनाया जाता है। छोटी दिवाली केवल एक दिन का उत्सव नहीं, बल्कि यह मानवता के भीतर छिपे अंधकार,जैसे अहंकार, लोभ, ईर्ष्या, क्रोध और मोह,पर प्रकाश की विजय का प्रतीक है।चूँकि हमें अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण से जानना कि आखिर छोटी दिवाली को नरक चतुर्दशी क्यों कहा जाता है, इस दिन किसकी पूजा की जाती है और यह पर्व क्यों मनाया जाता है? साथियों बात अगर हम छोटी दिवाली को नरक चतुर्दशी क्यों कहा जाता है,इसको जानने की करें तो अधर्म,अहंकार और अंधकार पर धर्म,नम्रता और प्रकाश की विजय का प्रतीक हैँ,छोटी दिवाली का नाम“नरक चतुर्दशी”इसलिए पड़ा क्योंकि यह दिन भगवान श्रीकृष्ण द्वारा राक्षस नरकासुर के वध से जुड़ा हुआ है।हिंदूधर्मग्रंथों के अनुसार, नरकासुर नामक असुर ने अत्याचार और अधर्म का साम्राज्य स्थापित कर रखा था। उसने पृथ्वी और स्वर्ग दोनों लोकों को आतंकित कर रखा था। नारी की अस्मिता का अपमान, साधुओं का अपमान और दैवीय शक्तियों को चुनौती देना उसका स्वभाव बन गया था। अंततः भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण अवतार में,अपनी पत्नी सत्यभामा के साथ मिलकर उसका अंत किया।कहा जाता है कि जब नरकासुर का वध हुआ, तो उसने अंतिम समय में श्रीकृष्ण से वरदान मांगा कि उसकी मृत्यु के दिन जो लोग स्नान और दीपदान करें, उन्हें नरक का भय न रहे। भगवान श्रीकृष्ण ने यह वरदान स्वीकार किया।तभी से यह दिन “नरक चतुर्दशी” के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जिसका अर्थ है,वह चतुर्दशी जो नरक से मुक्ति का मार्ग दिखाए।छोटी दिवाली इसीलिए कही जाती है क्योंकि यह मुख्य दिवाली के एक दिन पहले आती है, और इसमें दीप जलाने की परंपरा आरंभ हो जाती है। परंतु इसके पीछे का भाव कहीं अधिक गहरा है,यह दिन हमें सिखाता है कि असली नरक बाहर नहीं, बल्कि मनुष्य के भीतर छिपे अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष और असत्य के रूप में है। जब हम इनसे मुक्त होते हैं, तब सच्ची “छोटी दिवाली” हमारे जीवन में आती है-जब हम अपने भीतर के अंधकार को सटीक दूर कर आत्मिक प्रकाश जलाते हैं आधुनिक वैश्विक संदर्भ में यदि देखें तो “नरक चतुर्दशी” एक सार्वभौमिक संदेश देती है कि प्रत्येक व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के भीतर जो अंधकार,अन्याय, हिंसा, लालच और भेदभाव,फैला हुआ है,उसे सत्य, सद्भाव और प्रकाश से मिटाना ही सच्चा उत्सव है। यह दिन हर व्यक्ति को यह याद दिलाता है कि नरकासुर जैसी प्रवृत्तियाँ हर युग में मौजूद रहती हैं,बस उनके रूप बदलते रहते हैं। आज का नरकासुर पर्यावरण प्रदूषण,लालच आधारित अर्थव्यवस्था, असमानता, और मानसिक तनाव के रूप में हमारे जीवन को घेर रहा है। इसलिए छोटी दिवाली का संदेश आधुनिक समय में पहले से भी अधिक प्रासंगिक है। साथियों बात अगर हम नरक चतुर्दशी के दिन किसकी पूजा की जाती है, इसको समझने की करें तो,नरक चतुर्दशी के दिन तीन प्रमुख देवताओं की पूजा की परंपरा है,यमराज,भगवान श्रीकृष्ण,और देवी लक्ष्मी।(क)यमराज पूजा-इस दिन यमराज की पूजा का विशेष महत्व है। पौराणिक मान्यता के अनुसार जो व्यक्ति नरक चतुर्दशी के दिन सूर्योदय से पहले स्नान कर यमराज को दीपदान करता है, उसे मृत्यु का भय नहीं सताता और उसे यमलोक का दर्शन नहीं करना पड़ता। इसे “यम दीपदान” कहा जाता है।घर के बाहरदक्षिण दिशा में एक दीप जलाकर कहा जाता है,मृत्युना पाशदण्डाभ्यां कालिना श्यामया सह। त्रयोदश्यां दीपदानात् सूर्यजः प्रीयतां मम ॥ इसका अर्थ है कि इस दीप के माध्यम से मैं यमराज को प्रसन्न कर उनसे दीर्घायु और सुखमय जीवन की प्रार्थना करता हूँ।(ख) श्रीकृष्ण पूजा-भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन अधर्म पर विजय प्राप्त की थी, इसलिए उन्हें विजयी और धर्म के रक्षक के रूप में पूजा जाता है। भक्त उनके चरणों में पुष्प, फल और दीप अर्पित करते हैं। उनके साथ देवी सत्यभामा की भी पूजा की जाती है, क्योंकि नरकासुर के वध में देवी का योगदान महत्वपूर्ण रहा था। (ग) लक्ष्मी पूजा और रूप चौदस-इस दिन “रूप चौदस” भी कहा जाता है। प्रातःकाल तेल स्नान, उबटन, और शुद्धिकरण के बाद सौंदर्य और स्वास्थ्य की देवी लक्ष्मी की पूजा की जाती है। माना जाता है कि जो व्यक्ति इस दिन स्नान और शुद्ध आचरण करता है, उसके शरीर और मन में दीर्घकालिक सकारात्मक ऊर्जा बनी रहती है।रूप चौदस के दिन स्त्रियाँ और पुरुष दोनों अपने रूप, स्वास्थ्य और आभा की रक्षा के लिए स्नान, तेल, चंदन और सुगंधित वस्तुओं का उपयोग करते हैं। यह न केवल धार्मिक बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है,क्योंकि यह शरीर से विषाक्त तत्वों को निकालने और त्वचा को स्वस्थ रखने का उपाय माना गया है।आधुनिक वैश्विक समाज में जहां “वेलनेस” और “मेंटल हेल्थ” की चर्चा प्रमुख हो गई है, नरक चतुर्दशी की यह परंपरा हमें यह बताती है कि आत्मिक और शारीरिक शुद्धता दोनों का संगम ही सच्चा स्वास्थ्य है। साथियों बात अगर हम नरक चतुर्दशी क्यों मनाई जाती है इसको समझने की करें तो,आत्मशुद्धि, पाप मुक्ति और प्रकाश की ओर मानव यात्रा का उत्सव हैँ,नरक चतुर्दशी का मुख्य उद्देश्य केवल उत्सव नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि और पापमुक्ति का मार्ग है। यह पर्व हमें यह स्मरण कराता है कि जीवन में हर मनुष्य से भूलें होती हैं, और उन भूलों से ऊपर उठने के लिए आत्मचिंतन, स्नान और दीपदान के माध्यम से हम भीतर का “नरक” साफ कर सकते हैं।पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जो व्यक्ति इस दिन सूर्योदय से पहले स्नान करता है, वह पापों से मुक्त होता है। इस स्नान को “अभ्यंग स्नान” कहा जाता है। यह केवल शारीरिक शुद्धि नहीं,बल्कि मानसिक और भावनात्मक शुद्धि का भी प्रतीक है। कहा जाता है कि तेल से स्नान करने से शरीर से नकारात्मक ऊर्जा निकलती है, और मन में प्रकाश का प्रवेश होता है।नरक चतुर्दशी हमें यह सिखाती है कि हर व्यक्ति के भीतर दो शक्तियाँ होती हैं,एक अंधकारमय (नरकासुर जैसी) और दूसरी प्रकाशमय (कृष्ण जैसी)। इस दिन हम अपने भीतर की अंधकारमय प्रवृत्तियों,जैसे क्रोध, लोभ, द्वेष, असत्य, आलस्य और नकारात्मक विचारों का वध करने का संकल्प लेते हैं। जब व्यक्ति इस अंतर्द्वंद से ऊपर उठता है, तभी वह सच्चा “प्रकाश” प्राप्त करता है।आज जब पूरी दुनिया तनाव, असमानता,युद्ध औरआत्मकेंद्रित जीवनशैली से जूझ रही है, तब नरक चतुर्दशी जैसे पर्व वैश्विक समाज को यह प्रेरणा देते हैं कि आत्मशुद्धि, विनम्रता और प्रकाश की ओर बढ़ना ही मानवता का मार्ग है। यह केवल धार्मिक दिन नहीं बल्कि “स्पिरिचुअल रीसेट डे” कहा जा सकता है,जब हम अपने भीतर के अंधकार को पहचानते हैं और उसे मिटाने का संकल्प लेते हैं। साथियों बातें अगर हम छोटी दिवाली का सांस्कृतिक, सामाजिक और वैश्विक महत्व की करें तो,भारत में छोटी दिवाली का उत्सव केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं है। यह सामाजिक एकता, पारिवारिक प्रेम और सामूहिक स्वच्छता का भी प्रतीक है। गाँवों और नगरों में लोग इस दिन अपने घरों की अंतिम सफाई करते हैं, मिट्टी के दीये जलाते हैं, और पड़ोसियों के साथ मिठाइयाँ बांटते हैं। यह पर्व समाज में “साझा प्रकाश” का संदेश देता है कि अंधकार केवल अपने घर से नहीं, पूरी बस्ती से मिटाना चाहिए।अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में छोटी दिवाली का संदेश सार्व भौमिक है,यह केवल भारत की सीमाओं तक सीमित नहीं। आज अमेरिका,ब्रिटेन,कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में बसे भारतीय समुदाय इस दिन न केवल दीप जलाते हैं बल्कि स्थानीय समाज को भी इसमें शामिल करते हैं। संयुक्त राष्ट्र, यूरोपियन संसद और कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ दीपावली को “ग्लोबल सेलिब्रेशन ऑफ़ लाइट ” के रूप में मान्यता दे चुकी हैं। ऐसी स्थिति में छोटी दिवाली का महत्व और भी बढ़ जाता है, क्योंकि यह मुख्य दीपावली से एक दिन पहले मानवता के भीतर के नरक को मिटाने की तैयारी का दिन है।नरक चतुर्दशी का गूढ़ अर्थ केवल पौराणिक कथा तक सीमित नहीं है।“नरक”का अर्थ है,मानसिक पीड़ा,अवसाद,लालच,और वह अंधकार जो मनुष्य के भीतर उसे असत्य के मार्ग पर ले जाता है। “चतुर्दशी” का अर्थ है — पूर्णता के पूर्व की अवस्था, अर्थात् वह क्षण जब प्रकाश पूरी तरह प्रकट होने वाला है। इसलिए नरक चतुर्दशी का दिन आत्मिक परिवर्तन का समय है,जब मनुष्य अपने भीतर झाँककर कहता है:“अब मैं अंधकार से मुक्त होकर प्रकाश की ओर बढ़ूँगा।” यह आत्मसंवाद ही नरक चतुर्दशी का सार है। श्रीकृष्ण का नरकासुर वध केवल बाह्य घटना नहीं, बल्कि एक प्रतीक है,जब मनुष्य अपनी इच्छाओं और नकारात्मक प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त करता है, तब वह “नरकासुर”का अंत करता है। अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि इस प्रकार छोटी दिवाली या नरक चतुर्दशी केवल दीपों का पर्व नहीं,बल्कि आत्मज्ञान, शुद्धि और अहंकार मुक्ति का दिन है। यह हमें सिखाती है कि असली उत्सव बाहर नहीं, भीतर मन में होता है। जब हम अपने भीतर के अंधकार को दूर करते हैं, तो पूरी दुनिया रोशन होती है।इस दिन किया गया दीपदान केवल घर के द्वार को नहीं, बल्कि आत्मा के द्वार को भी प्रकाशित करता है। यमराज की आराधना हमें मृत्यु का भय नहीं, बल्कि जीवन के प्रति सजगता सिखाती है। श्रीकृष्ण की पूजा हमें धर्म की रक्षा और अन्याय के अंत का संदेश देती है, जबकि लक्ष्मी पूजा हमें सिखाती है कि सौंदर्य केवल बाहरी नहीं, बल्कि आंतरिक पवित्रता में निहित है।छोटी दिवाली 2025 इसीलिए केवल एक तिथि नहीं, बल्कि मानवता को यह स्मरण कराने का अवसर है कि जब तक भीतर का अंधकार मिटेगा नहीं, तब तक बाहर के दीप अधूरे रहेंगे। यह पर्व विश्व के हर कोने में रहने वाले व्यक्ति के लिए एक प्रेरणा है,“हम अपने भीतर का नरकासुर समाप्त करें, तभी सच्ची दिवाली आएगी।” (संकलनकर्ता लेखक - कर विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतर्राष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि सीए(एटीसी) (यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) .../ 18 अक्टूबर/2025