लेख
21-Oct-2025
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(नव वर्ष का शुभारंभ 22 अक्टूबर 2025 ) मनुष्य नवीनता-प्रेमी है। सुबह उठते ही नया सुरज देखकर आनन्दित होता है। नये खिले फूल और नयी ताजी हवा से मन प्रसन्न हो उठता है। आज नया वर्ष प्रारम्भ हो रहा है। बेकार हुए पुराने कैलेण्डर हट गये हैं। नये कैलेण्डर आ गये हैं। उनमें हमारा कल झाँक रहा है। मित्र, स्वजन, परिचित और परस्पर व्यापारिक सम्बन्ध रखने वाले बन्धु एक-दूसरे को नये वर्ष की बधाइयाँ दे रहे हैं। नूतन वर्ष अभिनन्दन के शानदार कार्ड और बहुमूल्य तोहफों का आदान-प्रदान हो रहा है। नव वर्ष की शुभ कामनाएँ दी जा रही है, ली जा रही हैं। यह सब किसलिए? एक प्रश्न है ! चिन्तन करें तो समाधान का उत्तर मिलता है-इसके पीछे प्रकृति का एक सनातन सत्य छिपा हुआ है, जो समय बीत गया वह हाथ से निकल गया। उसके विषय में कुछ सोचना-विचारना व्यर्थ है। जो अतीत व्यतीत बन गया, उसका गीत गाना कोई अर्थ नहीं रखता। किन्तु जो सामने आ रहा है वह हमारे हाथ में है। हम  उसका चाहे जैसा निर्माण कर सकते हैं। कहते हैं-हमारा आज ही कल का भाग्य-विधाता है। इसलिए लोग बीते वर्ष का अभिनन्दन या अफसोस नहीं करके नये आने वाले वर्ष का अभिनन्दन करते हैं। उसकी शुभ कामनाएँ करते हैं कि इस नव वर्ष को आप अपने पुरुषार्थ, अपनी प्रतिभा और अपनी उदात्त संकल्पशीलता के बल पर सुंदर से सुन्दर, महत्त्वपूर्ण बना सकते हैं। जीवन का स्वर्णिम वर्ष बना सकते हैं। सुन्दर राष्ट्र के निर्माण की ईंट बना सकते हैं। आज जिसके लिए हम बीज बोते हैं, वह फसल कल काटी जायेगी। भविष्य के मन्दिर की नींव आज ही रखी जायेगी इसलिए आज हमारा है, भविष्य का निर्माण हमारे हाथ में है।इसलिए जो कल के लिए चाहते हो, वह आज ही कर लो। आज जो बधाइयाँ, शुभ कामनाएँ दी जा रही हैं वह मामूली चीज नहीं हैं। वह हमारे भविष्य का निर्माण करने में नींव का काम कर सकती हैं। सज्जनों की शुभ कामनाएँ किसी ऋषि के वरदान से कम नहीं होतीं। शुभकामनाएँ शुभ वायुमण्डल का निर्माण करती हैं, शुभ प्रेरणाएँ जगाती हैं और नई ऊर्जा प्रदान करती हैं। ये शुभ कामनाएँ आपको सावधान करती हैं कि आपका आने वाला कल मंगलमय हो, इसलिए आप आज ही तत्पर होकर अपने भविष्य का चिन्तन करें और नये कार्यक्रम, नई योजनाएँ ऐसी बनाएँ जो आपके जीवन के न केवल भौतिक विकास में, अपितु आध्यात्मिक विकास में, आत्म-अभ्युदय में भी सहायक बनें। स्तम्भ बनकर आपके जीवन महल को सहारा देवें और परिवार, समाज, राष्ट्र एवं समस्त विश्व के कल्याण में योगदान दे सकें। उठो, जागो। जो श्रेष्ठ एवं वरेण्य है, जो आदर्श तुम्हें पुकार रहा है, उसे स्वीकार करो और उस पर चल पड़ो।उठो, प्रमाद मत करो। समय का मूल्य समझो। समय ही सबसे बड़ा धन है। जीवन में ज्ञान और कर्म का संगम करो। यही बात योगेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- जहाँ ज्ञानरूपी कृष्ण और कर्मरूपी अर्जुन खड़े हैं वहीं श्री-लक्ष्मी विजय और ऐश्वर्य है। अजगर की तरह आलस्य में डूबे रहने वाले जीवन को यूँ ही खो देते हैं। जो उत्साही हैं, कर्मशील हैं, जाग्रत हैं वे जीवन की थोड़ी-सी पलों में ही वह कर देते हैं जो युग-युग का इतिहास बन जाता है। जलता हुआ दीप दूसरे दीपों को जला सकता है। बुझा हुआ दीप अँधेरे में ही पड़ा रहता है। इसलिए प्रज्वलित दीपक बनो। इस संसार में ज्योति बनकर जीओ, जो दूसरों को प्रकाश दे। चिनगारी बनकर जीओ, ताकि अँधेरे को रोशनी में बदल सको। कोयला बनकर मत जीओ, जो पड़ा-पड़ा सुलगता रहे, धुआँ उगलता रहे।जिन्दगी बहुत मूल्यवान है। इसका एक-एक पल इतना महत्त्वपूर्ण है कि हम इन पलों में शताब्दियों का इतिहास रच सकते हो, युग की धारा बदल सकते हो, इस प्रवाह को मोड़ सकते हो। बस, आवश्यकता है उत्साह की, उल्लास की और जीवन में कुछ न कुछ नव-निर्माण करने के शुभ संकल्प की। जिन्दगी का अर्थ है उत्साह और साहस। इसलिए आज नव वर्ष के नव सूर्योदय की साक्षी में आपको अपने कर्तव्य का स्मरण कर संकल्प लेना है। जीवन का उद्देश्य निश्चित कर उस दिशा में कदम बढ़ाना है। संघर्ष भी आयेंगे, संकट भी आयेंगे। असफलताएँ भी मिलेंगी। लोगों की आलोचना व चर्चाएँ भी होंगी परन्तु लक्ष्य की तरफ बढ़ने वाले इन सब की उपेक्षा करके इन संघर्षों के तूफानों से टक्कर लेकर बढ़ते ही जाते हैं आपको तूफानों से टक्कर लेना है और कर्त्तव्य की नाव को किनारे तक पहुँचाना है। जीवन के महत्त्वपूर्ण सन्देशों में यूँ तो अनेकों बातें कही जा सकती हैं। सचाई, नैतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा, कर्त्तव्य-पालन आदि। किन्तु विस्तृत चर्चा न करके मैं केवल वर्तमान पर ही हमारा ध्यान केन्द्रित करना चाहता हूँ। ऐसे समय में हमारा कर्त्तव्य है, जीवन में आशावादी बनकर, मानवतावादी बनकर जीयें। देश के उज्ज्वल भविष्य के प्रति आशा और आस्था जगाएँ, संकल्प और पुरुषार्थ जगाएँ। केवल अपने लिए ही नहीं जीयें, अपने लिए तो पशु भी जीता है, किन्तु दूसरों के लिए भी जीयें। अपने स्वार्थ को परमार्थ में बदलें। अगर समाज और राष्ट्र सुखी रहेगा तो मनुष्य भी सुखी रहेगा। मनुष्य राष्ट्र के मन्दिर की एक ईंट है। यदि पूरा मन्दिर सुरक्षित रहेगा तो ईंट स्वयं ही सुरक्षित रहेगी। मन्दिर ढह जायेगा तो ईंट का क्या होगा? इसलिए अपना दृष्टिकोण व्यापक बनायें, उदार बनायें और अपने चश्मे से समूची मानव-जाति को देखें। मानवता के कल्याण के लिए दृढ़ संकल्पशील बनें। जहाँ अभावों का अँधेरा है, अज्ञान की काली रातें गुजर रही हैं और अनीति के राक्षस नृत्य कर रहे हैं, वहाँ नैतिक मूल्यों के नये सूरज की सुनहली किरणों का प्रकाश पहुँचे; सुख, समृद्धि, ज्ञान और सदाचार का उजाला फैले तो हमारी नए वर्ष की शुभ कामनाएँ सार्थक होंगी, सदिच्छाओं का गुलाबी रंग चमेकगा। अवश्य चमकेगा। *गोवर्धन पूजा,पड़वा* दीपावली के बाद की प्रतिपदा गुड़ी पड़वा को वैदिक-परम्परा में गोवर्धन पूजा के रूप में मनाया जाता है। लोग अपने घरों के सामने गोवर्धन पर्वत का प्रतीक गोबर का पहाड़ बनाकर उसकी पूजा आज भी गांवो में करते हैं और अपने पशुधन की संवृद्धि की कामना करते हैं। गोवर्धन पूजा के साथ श्रीकृष्ण की एक प्रेरक घटना जुड़ी है। किशोर श्रीकृष्ण ने देखा, लोग इन्द्रदेव की पूजा करते हैं और उनसे अपने धून धान्य की समृद्धि की कामना करते हैं। श्रीकृष्ण ने पूछा- यह इन्द्र-पूजा क्यों करते हैं? लोगों ने कहा- इन्द्र महाराज समय पर जल-वृष्टि करते है, खेतों में धन्य-धान्य की वृद्धि होती है इसके लिए हम इन्द्र की पूजा करते हैं। श्रीकृष्ण ने कहा समय पर वृष्टि होना, धूप तपना, खेतों में अन्य-धान्य उत्पन्न होना यह तो सृष्टि का सहज क्रम है, इसमें इन्द्र का लेना-देवा क्या है? अगर इन्द्र यह सब करता भी है तो प्रजा का पालन करना, संरक्षण करना इन्द्र का कर्त्तव्य है, इसमें एहसान व उपकार की क्या बात है? उसकी पूजा करके अपनी हीनता क्यों प्रगट करते हो? श्रीकृष्ण के समझाने से लोगों ने इन्द्र-पूजा बन्द कर दी। इन्द्रदेव कुपित हो गये और सात दिन तक लगातार गोकुल में मूसलाधार वर्षा होती रही, तूफान आते रहे। चारों तरफ जलप्रलय-सा मच गया। गोकुल की जनता और गायें आदि इधर-उधर अपने बचाव के लिए भागने लगे। तब श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को छत्र की तरह उँगली पर उठा लिया और सब प्रजा को उसके नीचे आश्रय दिया। सात दिन तक मूसलाधार बरसने पर भी गोवर्धन के नीचे आश्रय लेने वाले बचे रहे। अन्त में इन्द्रदेव ने हार मान ली और श्रीकृष्ण के सामने क्षमा माँगने लगा। श्रीकृष्ण ने कहा- संसार में समय पर जल बरसाना, खेतों में अन्न धान्य को पकाना और प्रजा की परिपालना करना तो तुम्हारा कर्त्तव्य है। इस कर्तव्य-पालन के बदले तुम प्रजा से पूजा की कामना क्यों करते हो? जो राजा प्रजा-पालन के अपने धर्म को यदि उपकार करना मानकर उसके बदले पूजा, यश, धन चाहता है तो वह कर्त्तव्य-च्युत होता है। इस कर्तव्य का भान कराने के लिए ही प्रजा ने इन्द्र-पूजा बन्द कर दी। वास्तव में धरती का संरक्षक और भूमि को उर्वरा बनाने वाला तो यह पर्वत है जो युगों-युगों से मूक भाव से खड़ा शीत, धूप, ताप, वर्षा सब कुछ सहता हुआ भी बदले में कुछ नहीं माँगता। इस प्रकार गोवर्धन-पूजा एक प्रतीक रूप में अधिकारियों व सत्ताधारियों को उनके कर्तव्य का भान कराने की प्रेरणा है और जो मूक सेवक हैं उनका अभिनन्दन करने की सूचना भी इसी में सन्निहित है। (L 103 जलवन्त टाऊनशिप पूणा बॉम्बे मार्केट रोड नियर नन्दालय हवेली सूरत मो 99749 40324 वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार-स्तम्भकार) ईएमएस / 21 अक्टूबर 25