 
                            रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया की वित्तीय स्थिति रिपोर्ट 2024 प्रकाशित हुई है, उसके अनुसार भारत का घरेलू ऋण जीडीपी के 42 फ़ीसदी पर पहुंच गया है। 2015 में यह ऋण मात्र 26 फ़ीसदी था। प्रति व्यक्ति कर्ज तेजी के साथ बढ़ता चला जा रहा है। कर्ज के मुकाबले लोगों की आय में इजाफा नहीं हो रहा है। 2023 में प्रति व्यक्ति कर्ज भारत में 3.9 लाख रुपए था, जो मार्च 2025 में बढ़कर 4.8 लाख रुपए हो चुका है। भारतीय रिजर्व बैंक के लिए यह चिंता का सबसे बड़ा विषय बन गया है। भारत में जो ऋण दिया जा रहा है, उसमें 55 फ़ीसदी हिस्सा रिटेल लोन का है। इसमें रिटेल लोन, क्रेडिट कार्ड, पर्सनल लोन, ऑटो लोन और गोल्ड लोन का है। इसमें आवास ऋण और दूसरे लोन शामिल नहीं है। आवास ऋण लगातार घटता चला जा रहा है। इसका मतलब है, लोगों के पास अब घर खरीदने के लिए मार्जिन मनी देने के लिए भी पैसे नहीं हैं। भारतीयों की बचत लगातार कम या खत्म होती चली जा रही है। अब बच्चों की शिक्षा, शादी-ब्याह में खर्च करने के लिए लोगों को ऋण लेना पड़ रहा है। जरूरी चीजों में खर्च करने के लिए अब भारतीय लोगों के पास बचत के रूप में पैसा नहीं है, जिसके कारण स्थिति दिन प्रतिदिन खराब होती चली जा रही है। भारत सरकार यह मानकर चलती है कि ऑस्ट्रेलिया कनाडा और अमेरिका जैसे देशों में जीडीपी के अनुपात में भारत का कर्ज अभी भी कम है। अमेरिका में जीडीपी का 75 फ़ीसदी तथा चीन के ऊपर 63 फ़ीसदी कर्ज है। भारत में अभी यह कर्ज 42 फ़ीसदी पर पहुंचा है, लेकिन सबसे बड़ी चिंता की बात भारत के लिए यह है, कि उन देशों की तुलना में भारत की प्रति व्यक्ति आय बहुत कम है। भारत में जीडीपी की तुलना में 42 फ़ीसदी कर्ज होने के बाद अर्थव्यवस्था उलटी दिशा में चलने लगी है, क्योंकि यहां लोगों के पास बुनियादी जरूरत के लिए भी पैसा उपलब्ध नहीं है। समस्या कर्ज लेने की नहीं है, असल समस्या कर्ज का उपयोग किस रूप में किया जा रहा है इसको लेकर है। भारत में नागरिक जो कर्ज ले रहे हैं उन्हें अपने खाने-पीने और अन्य जरूरत में पूरा करना पड़ रहा है। व्यक्तिगत कर्ज लगातार बढ़ता चला जा रहा है। क्रेडिट कार्ड और व्यक्तिगत ऋण लेने के बाद लोग वापस नहीं कर पा रहे हैं। वे अपनी बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी नहीं कर पा रहे हैं। ऐसी स्थिति में अब लोग गोल्ड गिरवी रखकर लोन लेकर अपना खर्च चला रहे हैं। ये सबसे खराब हालात हैं। सोने की बढ़ती कीमतों ने इस प्रवृत्ति को और बढ़ा दिया है। लोग सोने को गिरवी रखकर या बेचकर पैसा अपने खर्चे के उपयोग में ला रहे हैं। ग्रामीण और शहरी क्षेत्र में महंगाई के मुकाबले लोगों की आय नहीं बढ़ी है। मजदूरों को भी रोजगार नहीं मिल रहा है। मजदूरों की मजदूरी में भी कोई वृद्धि नहीं हुई है। घरेलू बचत जीडीपी के मुकाबले 11 फ़ीसदी से घटकर पांच फ़ीसदी पर आ गई है। जो चिंता का सबसे बड़ा कारण है। पिछले 5 वर्षों में उपभोक्ता ऋण लगातार बढ़ता चला जा रहा है। क्रेडिट कार्ड से खर्च करने वालों की संख्या 13 वर्षों में 13 गुना बढ़ चुकी है। जो वेतन भोगी हैं, वे अपने खर्च के लिए कर्ज पर डिपेंड हो गए हैं। निम्न और मध्यम आय वाले परिवार जरूरी खर्च के लिए भी कर्ज लेने के लिए मजबूर हो रहे हैं। कर्ज तो ले लेते हैं, लेकिन उसके बाद उसे चुका नहीं पा रहे हैं। आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया के इस दौर में धीरे-धीरे प्रत्येक परिवार आर्थिक संकट के दौर में पहुंचता चला जा रहा है। बैंकों में डिफाल्टर हो गया है। एनएफसी कंपनियों के सहारे लोगों ने महंगे ब्याज पर कर्ज लेकर जैसे तैसे अपना काम चला लिया है, लेकिन अब एनएफसी कंपनियों से भी लोगों को लोन नहीं मिल रहा है जिसके कारण लोगों में महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ एक जबरदस्त विद्रोह देखने को मिल रहा है। इसकी परिणति किस रूप में होगी कहना मुश्किल है। भारत सरकार के आर्थिक विशेषज्ञ दुनिया की विकसित आबादी वाले देशों से भारत की यदि तुलना करते हैं तो यह उनकी गलती है। विकसित देशों की आय भारत के मुकाबले 10 गुना ज्यादा है। लोगों के पास बचत भी ज्यादा है। आर्थिक संकट में वहां की बैंकिंग व्यवस्था और नागरिक भी उसका मुकाबला करने में सक्षम है। भारत में इसके ठीक विपरीत स्थिति है, यहां के 80 करोड लोगों को सरकार द्वारा दिए जा रहे हैं। 5 किलो मुफ्त अनाज पर जीवन जीना पड़ रहा है। कानून व्यवस्था की हालत महंगाई और बेरोजगारी के कारण दिन-प्रतिदिन खराब होती चली जा रही है। लोगों की बचत खत्म हो चुकी है। अब वह कर्ज पर आधारित अर्थव्यवस्था के अनुसार किसी भी तरीके से अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा कर पा रहे हैं। भारत में जिस तरह से आर्थिक कारणों से आत्महत्या करने वालों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती चली जा रही है। यह भारत की वास्तविक आर्थिक स्थिति को उजागर कर रही है। भारत सरकार को समय रहते हुए इस दिशा में ध्यान देने की जरूरत है। समय की मांग है कि वित्तीय बचत की संस्कृति को पुनर्जीवित किया जाए। लोगों की आय बढ़े और उधार का उपयोग कम से कम हो। लोग अपनी आय के अनुसार खर्च करने की प्रवृत्ति बनाएं। शिक्षा और आवास जैसी बुनियादी चीजों के लिए कर्ज को प्रोत्साहन दिया जाए। छोटे, लघु उद्योगों के लिए विशेष नीतियां बनाकर कर्ज देने और स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए एक नई संरचना खड़ी करनी होगी। आय-बचत और खर्च के बीच में समन्वय बनाने की प्रक्रति को गंभीरता के साथ विकसित करना पड़ेगा, अन्यथा भविष्य में इसके दुष्परिणाम बड़ी स्तर पर देखने को मिलेंगे। ईएमएस / 31 अक्टूबर 25