नई दिल्ली,(ईएमएस)। भारत की रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने की कोशिशों के बावजूद, स्वदेशी तकनीक से एयरो-इंजन (हवाई जहाज के इंजन) बनाने का सपना अभी बहुत मुश्किल सफर लग रहा है। जहां भारत ने अंतरिक्ष अनुसंधान जैसे क्षेत्रों में बड़ी सफलता पा ली है, वहीं रक्षा उद्देश्यों के लिए एयरो-इंजन तकनीक वाले देशों के समूह में शामिल होने के लिए संघर्षरत है। एयरो-इंजन दुनिया की सबसे गोपनीय तकनीकों में से एक हैं, और यह उम्मीद करना नासमझी होगी कि दूसरे देश हमें यह तकनीक आसानी से देगा। हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) रूसी लाइसेंस के तहत मिग और सुखोई 30 जैसे विमानों के लिए जेट इंजन बना रही है, लेकिन वह रिवर्स इंजीनियरिंग (किसी उत्पाद को खोलकर उसकी तकनीक को समझना और फिर उस बनाना) में भी सफल नहीं हुई है। एचएएल केवल रूस से आयात किए गए महत्वपूर्ण पुर्जों को जोड़कर इंजन तैयार करती है। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) और फ्रांसीसी एयरोस्पेस कंपनी सफरान के बीच संभावित सहयोग की खबरें कुछ दिलचस्पी पैदा करती हैं। रिपोर्टों के अनुसार, डीआरडीओ सफरान के साथ 2.5 अरब डॉलर की लागत वाली एक सह-विकास परियोजना के लिए मंजूरी मांग रहा है। यह भी बताया गया है कि इसमें 100 प्रतिशत टेक्नोलॉजी ट्रांसफर होगा और बौद्धिक संपदा अधिकार (आईपीआर) डीआरडीओ के पास रहेगा। संभवतः डीआरडीओ कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी (सीसीएस) से इसकी मंजूरी मांगेगा। यह एक दशक से भी पहले की बात है, जब डीआरडीओ की महत्वाकांक्षी कावेरी इंजन परियोजना इसलिए रुक गई थी क्योंकि वह इंजन बनाने के लिए जरूरी महत्वपूर्ण तकनीकों को विकसित करने में असफल रही थी। 90-110 किलो न्यूटन (केएन) की लक्षित थ्रस्ट (धक्का देने की शक्ति) के मुकाबले, कावेरी इंजन केवल लगभग 60 केएन की थ्रस्ट ही हासिल कर पाया था। इसका मुख्य कारण इंजन के हॉट पार्ट्स (जैसे कंप्रेसर और टर्बाइन) थे, जिनके लिए अति-उच्च प्रदर्शन वाले मिश्र धातुओं और सामग्रियों की आवश्यकता थी, जो हमारी क्षमता से बाहर थे। इस परियोजना के ठप पड़ने के बाद, न आंतरिक रूप से और न ही निजी क्षेत्र के सहयोग से सामग्री विकसित करने का कोई खास प्रयास हुआ। यह समझाना जरूरी है कि डीआरडीओ की रक्षा धातुकर्म अनुसंधान प्रयोगशाला (डीएमआरएल) जैसी संस्थाएं इस शोध को क्यों तेज नहीं कर सकीं और भारत के प्रमुख संस्थानों को इन तकनीकों को विकसित करने के लिए क्यों नहीं जोड़ा गया। काफी समय बर्बाद हो चुका है। 2016 में राफेल सौदे पर हस्ताक्षर होने के बाद, सफरान से तकनीक प्राप्त करने के लिए ऑफसेट का उपयोग करने का प्रयास किया गया था। लेकिन वह प्रयास विफल रहा, और अब कई सालों बाद, काफी लागत पर एक सहयोग का प्रयास किया जा रहा है, जिससे सच्ची आत्मनिर्भरता कमजोर हो रही है। एक एयरो-इंजन परियोजना के लिए देश की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा को इस तकनीक की कमियों को दूर करने के लिए लगाना जरूरी है। दुनिया के कुछ सफल इंजन निर्माता शायद बहुत सारे भारतीय प्रतिभा का उपयोग कर रहे हैं, और यह अजीब है कि हम इस मिशन के लिए उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ भारतीय प्रतिभा को काम पर नहीं रख सकते। आशीष/ईएमएस 11 नवंबर 2025