गुना (ईएमएस) | मोह के कारण मनुष्य अपनी आत्मा का वास्तविक स्वरूप नहीं पहचान पाता है। जब तक राग-द्वेष और प्रदर्शन की प्रवृत्ति मन में बनी रहती है, तब तक ज्ञान का प्रकाश भीतर तक नहीं पहुंच पाता। सही ज्ञान वह नहीं जो केवल बोला जाए, बल्कि वह है जो भीतर उतरकर मन को प्रसन्नता दे और आत्मा को हल्का कर दे। जैसे कोई व्यक्ति किसी स्वादिष्ट लड्डू को खाने से पहले ही उसकी कल्पना से आनंदित होता है, लेकिन जैसे ही वह लड्डू मुंह में जाता है और उसका वास्तविक स्वाद प्रकट होता है, वही अनुभव वास्तविक ज्ञान के समान है—जो अनुभूति में प्रकट हो, मन को स्पर्श करे और अंतरंग में परिवर्तन लाए। यह आध्यात्मिक उपदेश मुनिश्री योग सागरजी महाराज ने इंद्रध्वज विधान के दौरान श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए दिए। मुनिश्री ने कहा कि वैराग्य के साथ प्राप्त ज्ञान ही कार्यकारी होता है, क्योंकि जब ज्ञान का उपयोग जीवन में होता है तब अंतरंग में अद्भुत शक्ति जागृत हो जाती है। अनादिकाल से हम राग, द्वेष और मोह में उलझकर चारों गतियों में परिभ्रमण कर रहे हैं। इसी मोह की भारी परत के कारण आत्मा का बोध नहीं हो पाता और जीव संसार में भटकता रहता है। उन्होंने कहा कि जैसे व्यापार में भाव के उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, उसी प्रकार हमारे कर्मों के उदय से मन के भावों में हलचल होती रहती है। मन जैसा परिणाम करेगा, वैसा ही कर्मों का आश्रव होगा। मुनिश्री ने बताया कि केवल आयु कर्म को छोडक़र शेष सात कर्म प्रत्येक क्षण बंधते रहते हैं। यदि हम पाप करेंगे तो पाप कर्म का बंध होगा और यदि शुभ और धार्मिक कार्य करेंगे तो पुण्य का आश्रव होगा। इंद्रध्वज महामंडल विधान को महान पुण्य का कार्य बताते हुए मुनिश्री ने कहा कि इस विधान में वही पहुंच पाता है जिसका भाव पवित्र और निर्मल होता है। 27 मंडलों में 521 प्रतिमाओं का सामूहिक दर्शन हर जीव के पुण्य को जाग्रत करने वाला अद्वितीय अवसर है, जो स्वर्ग लोक की ओर यात्रा का कारण बन सकता है। उन्होंने जीव और आत्मा के अंतर को स्पष्ट करते हुए कहा कि जीव और आत्मा को एक मान लेना वह आत्मा का लक्षण है, शरीर और आत्मा को अलग समझना अंतरात्मा का बोध है, और जो इन सबसे विरक्त होकर कर्मों को पूर्णतया नष्ट कर देता है वही परमात्मा बन जाता है। मुनिश्री ने कहा कि साधन को साध्य मान लेने के कारण ही हम भव-भव में भटकते रहते हैं। लोभ को कम किए बिना पुण्याश्रव नहीं हो सकता। धन के पीछे भागने से धन दूर भागता है, लेकिन वीतरागी भगवान की भाव-भक्ति और समर्पण करने वाले के आगे-पीछे लक्ष्मी स्वयं आती है। जो आज निर्धन हैं वे संभवत: पूर्व जन्म में धन का दुरुपयोग कर बैठे होंगे, इसलिए लक्ष्मी उनसे दूर रहती है। मुनिश्री ने कहा कि पाप का उदय होने पर कोई स्वर्ग का देव भी रक्षा नहीं कर पाता, इसलिए मन को पवित्र रखना ही मोक्ष का मार्ग है। - सीताराम नाटानी