लेख
23-Nov-2025
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(24 नवम्बर शहीदी दिवस) सिख परंपरा के नौवें गुरु श्री गुरु तेगबहादुर जी भारतीय इतिहास के उन महानतम व्यक्तित्वों में हैं, जिनकी जीवन-यात्रा अपने भीतर त्याग, तप, शौर्य, करुणा और धर्म की स्वतंत्रता के सर्वोच्च सिद्धांतों को समेटे हुए है। वे न केवल सिख समुदाय के महान आध्यात्मिक गुरु थे, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के रक्षक, सत्य और धर्म के प्रहरी तथा अत्याचार के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले अद्वितीय योद्धा भी थे। इसीलिए उन्हें धर्म की चादर ,हिंद की चादर और सृष्टि की चादर जैसे गरिमामय संबोधन प्राप्त हुए। उनका जीवन, बलिदान और शिक्षा आज भी यह संदेश देती है कि धार्मिक स्वतंत्रता, मानव अधिकार और सत्य की रक्षा किसी एक समुदाय का नहीं, बल्कि पूरी मानवता का कर्तव्य है। गुरु तेगबहादुर जी का जन्म 1 अप्रैल 1621 को अमृतसर में हुआ। पिता छठे गुरु श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी माता नानकी जी थी। गुरु हरगोबिंद साहिब ने जिस युग में मिरी-पिरी यानी आध्यात्मिकता और शौर्य के संयोजन का मार्ग दिखाया था, उसी वातावरण में गुरु तेगबहादुर जी का संस्कार हुआ। बचपन का नाम था त्याग माल, क्योंकि वे स्वभाव से अत्यंत शांत, गंभीर, विचारशील और तपस्वी प्रवृत्ति के थे। बचपन से ही उन्हें आध्यात्मिक चिंतन,ध्यान और साधना,और शस्त्र-विद्या तीनों में दक्षता प्राप्त हुई। पिता गुरु हरगोबिंद साहिब की प्रेरणा से वे एक ओर गहन अध्यात्म में डूबे रहते, दूसरी ओर अत्याचार के विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए धैर्य, विवेक और साहस का मार्ग अपनाते। कई इतिहासकार उल्लेख करते हैं कि मुगल शक्तियों के विरुद्ध गुरु हरगोबिंद साहिब के संघर्ष में एक युद्ध के दौरान उन्होंने अद्वितीय शौर्य दिखाया। उनके इस साहस और तेजस्विता को देखकर गुरु हरगोबिंद साहिब ने उन्हें तेग बहादुर अर्थात तेग तलवार का वीर बहादुर नाम दिया। आठवें गुरु गुरु हरकृष्ण जी के देहांत के बाद, 1664 में, गुरु तेगबहादुर जी को सिख पंथ का नवां गुरु बनाया गया। उन्होंने दिल्ली, पंजाब, बिहार, असम और बंगाल तक व्यापक यात्राएँ कीं और लोगों में समानता धार्मिक सद्भाव सत्य की शक्ति ईश्वर-प्रेम और मानवता का संदेश फैलाया। उन्होंने चक्रवर्ती यानी घूमते रहने वाले गुरु का स्वरूप अपनाया, ताकि धर्म और मनुष्य मात्र की भलाई हर क्षेत्र में पहुँचे। गुरु तेगबहादुर जी की वाणी अत्यंत दार्शनिक, शांत और आत्मबोध से परिपूर्ण है। गुरु ग्रंथ साहिब में उनकी 115 से अधिक वाणियाँ संकलित हैं। उनकी वाणी भय से मुक्त होने, लोभ-मोह से ऊपर उठने, सत्य और ईश्वरनाम में स्थिर रहने,तथा परिस्थितियों में संयम बनाए रखने का प्रेरणास्रोत है। उनका पूरा जीवन इस बात का प्रतीक है कि धर्म किसी विशेष समुदाय की संपत्ति नहीं, बल्कि मनुष्य के भीतर की नैतिक चेतना है, जिसकी रक्षा हर कीमत पर आवश्यक है। धर्म की चादर धार्मिक स्वतंत्रता के रक्षक गुरु तेगबहादुर जी को धर्म की चादर इसलिए कहा गया क्योंकि उन्होंने धर्म की स्वतंत्रता, पूजा की स्वतंत्रता और व्यक्ति की अंतरात्मा की स्वतंत्रता को सर्वोच्च अधिकार माना। किसी पर धर्म स्वीकार करने का दबाव पाप है, और धर्म की रक्षा के लिए प्राण देना पुण्य। जब उस समय मुगल सत्ता द्वारा लोगों को जबरन धर्म परिवर्तन के लिए विवश किया जा रहा था, तब गुरु तेगबहादुर जी ने कहा जब तक शरीर में प्राण हैं, धर्म की स्वतंत्रता का दीप बुझने नहीं दूँगा। यही आध्यात्मिक हिम्मत उन्हें धर्म की चादर बनाती है। सम्पूर्ण भारत के रक्षक हिंदू धर्म को जबरन परिवर्तन से बचाने के लिए अपनी शहादत देने वाले गुरु तेगबहादुर जी को भारतीय समाज हिंद की चादर कहकर सम्मानित करता है। कश्मीर के पंडितों की पीड़ाऔरंगजेब के शासन में कश्मीरी पंडितों पर भीषण अत्याचार हुएउन्हें इस्लाम स्वीकार करने के लिए धमकाया गया, कर लगाए गए, और मृत्यु का भय दिखाया गया। तब कश्मीरी पंडितों ने उत्तर भारत में ऐसे व्यक्तित्व की खोज की, जो उनकी रक्षा कर सके। वे आनंदपुर साहिब पहुँचे और गुरु तेगबहादुर जी से सहायता की विनती की। गुरु जी का ऐतिहासिक उत्तर गुरु तेगबहादुर जी ने कहा यदि मुझे बलिदान देना पड़े, तो भी मैं भारत की सनातन और सांस्कृतिक आत्मा की रक्षा करूँगा। उन्होंने कहा कि यदि वे स्वयं बलिदान देंगे, तो औरंगजेब का अत्याचार रुक जाएगा और लाखों लोगों को धर्म परिवर्तन से छुटकारा मिलेगा। यह निर्णय न केवल साहसिक था, बल्कि मानव अधिकारों की रक्षा का विश्व इतिहास में अनोखा उदाहरण भी है। सृष्टि की चादर सम्पूर्ण मानवता के रक्षकगुरु तेगबहादुर जी की शहादत किसी एक धर्म के लिए नहीं थी, बल्कि पूरी मानवता की आध्यात्मिक स्वतंत्रता के लिए थी। इसलिए उन्हें सृष्टि की चादर कहा गया। उन्होंने सिख, हिंदू, मुस्लिम, जैन, बौद्ध,सभी को समान दृष्टि से देखा। उनका संदेश था कि अत्याचार का विरोध करो और सत्य के लिए खड़े रहो। मनुष्य की अंतरात्मा सर्वोपरि है। किसी के धर्म को न छीना जाए मानवाधिकार ईश्वर-प्रदत्त हैं। ऐसा विचार रखने वाला व्यक्तित्व केवल एक देश या धर्म का नहीं रहता,वह पूरी सृष्टि की आत्मा बन जाता है। जब गुरु तेगबहादुर जी कश्मीरी पंडितों की रक्षा के लिए खड़े हुए, तो यह औरंगजेब को स्वीकार नहीं था। उसने आदेश दिया कि गुरु जी इस्लाम स्वीकार कर लें,या मृत्यु दंड स्वीकार करें। गुरु जी ने शांतिपूर्वक उत्तर दिया कि धर्म बदलना मेरे लिए असंभव है, क्योंकि यह अंतरात्मा के विरुद्ध जाना है। कुछ इतिहासकार बताते हैं कि गुरु जी को गिरफ्तार करने के लिए कुछ अधिकारियों को भेजा गया। गुरु जी उस समय पटना, बंगाल और आसम की यात्राओं से लौट रहे थे। उन्हें सरहिंद के पास गिरफ्तार किया गया। इसके बाद उन्हें सरहिंद दिल्ली ले जाया गया, जहाँ कठोर यातनाएँ दी गईं। उनके सामने उनके शिष्यों भाई मतीदास, भाई सतिदास, भाई दयालदास—को अत्यंत क्रूर दंड दिया गया, पर गुरु जी अडिग रहे। 24 नवंबर 1675 को दिल्ली के चांदनी चौक में गुरु तेगबहादुर जी के सिर का कलम किया गया। उनकी शहादत इसलिए ऐतिहासिक है क्योंकि उन्होंने किसी सत्ता के लिए प्राण नहीं दिए,किसी राज्य की रक्षा के लिए नहीं लड़े,बल्कि दूसरों के धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राण अर्पित किए। विश्व इतिहास में यह अनोखा उदाहरण है कि किसी धर्मगुरु ने दूसरे धर्म की रक्षा के लिए बलिदान दिया हो। वह भी तब जब उस दूसरे धर्म से उनका व्यक्तिगत लाभ कोई न हो। उनका बलिदान यह कहता है कि धर्म वह है जो सबका हो। गुरु तेगबहादुर जी के एकमात्र पुत्र गुरु गोविंद सिंह जी थे, जो उस समय लगभग 9 वर्ष के थे। जब उन्होंने पिता की शहादत का समाचार सुना, तो उन्होंने कहा मेरे पिता ने मानवता, धर्म और सत्य के लिए शरीर अर्पित किया है। ऐसे पिता पर मैं गर्व करता हूँ। गुरु गोविंद सिंह जी बाद में सिख पंथ के दसवें गुरु बने और खालसा पंथ की स्थापना की। गुरु तेगबहादुर जी का जीवन तीन मुख्य आधारों पर टिका हुआ है। भय से मुक्ति उनकी वाणी कहती है। जिसे किसी से भय नहीं, वह सच्चा ज्ञानी है। वे सिख धर्म की उस परंपरा के प्रवर्तक हैं, जो भयमुक्त जीवन का संदेश देती है। आध्यात्मिकता और विवेक उन्होंने जप-तप, ध्यान और नाम-स्मरण को सर्वोच्च साधना कहा। मानवाधिकार और धार्मिक स्वतंत्रताउनके बलिदान ने यह सिद्ध किया कि धर्म बदलवाना अत्याचार है। किसी को उसकी आस्था से दूर करना पाप है। और सत्य की रक्षा सर्वोच्च कर्तव्य है। यही सिद्धांत आगे चलकर भारतीय समाज और स्वतंत्रता के मूल्य का आधार बने। सिख पंथ में गुरु तेगबहादुर जी का प्रकाश पर्व अत्यंत श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। इस दिन गुरुद्वारों में कीर्तन,लंगर, आत्मिक प्रवचन और गुरु जी की शिक्षाओं का स्मरण किया जाता है। और आज से विशेषआयोजन आयोजित होंगे। उनकी शहादत का दिन, 24 नवंबर, शहीदी दिवस के रूप में मनाया जाता है और मानवाधिकार दिवस के समकक्ष माना जाता है। गुरु जी की विरासत अमर है। उन्होंने आत्मिक चेतना को जगाया। सत्य और न्याय को जीवन का मूल मंत्र बनाया। धर्म की स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन दिया। अत्याचार और अन्याय का साहसपूर्वक विरोध किया। भारत की आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और नैतिक धारा को बचाया। मानवता के इतिहास में अनोखा अध्याय लिखा और यही कारण है कि वे आज भी धर्म की चादर ,हिंद की चादर और सृष्टि की चादर कहलाते हैं। उनका बलिदान हमें यह भी सिखाता है कि धर्म का अर्थ किसी एक समुदाय से नहीं, बल्कि मनुष्य की आत्मा की स्वतंत्रता से है। और यह स्वतंत्रता हर युग में, हर व्यक्ति के लिए अनिवार्य है। गुरु तेगबहादुर जी का संपूर्ण जीवन न्याय, करुणा और सत्य की शक्ति का प्रतीक है। उन्होंने यह स्थापित किया कि यदि समाज में कहीं भी अत्याचार हो रहा है, तो उसका विरोध करना केवल कर्तव्य नहीं, बल्कि आध्यात्मिक दायित्व है। उनकी शहादत न केवल भारत, बल्कि पूरी मानवता का अनमोल धरोहर है। उनका संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना 17वीं शताब्दी में था। वे चलते-फिरते हुए धर्म की चादर थे,हिंद की रक्षक ढाल थे,और सृष्टि के लिए प्रकाश स्तंभ थे। गुरु तेगबहादुर जी अमर रहें। उनका बलिदान अमर रहे। (L 103 जलवन्त टाऊनशिप पूणा बॉम्बे मार्केट रोड नियर नन्दालय हवेली सूरत मो 99749 40324 वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार, स्तम्भकार) ईएमएस / 23 नवम्बर 25