स्वामी विवेकानंद ने शिकागो के विश्व धर्म संसद में जो बातें कहीं हैं, उन्हें बार-बार पढ़ना चाहिए। जो धार्मिक हैं, वे तो पढ़ें ही ।जो धार्मिक नहीं हैं, वे भी पढ़ें। उस वक्त तक न देश में कोई संविधान था और न देश आजादी पाने के कगार पर था। कांग्रेस का उदय हुआ था, लेकिन उसके नेता अंग्रेजों को आवेदन मात्र लिखते थे। मैंने एक पोस्ट में स्वामी विवेकानन्द का धर्म संबंधी उद्धरण दिया तो एक सहृदय मित्र ने अपनी टिप्पणी दी कि आप धर्मनिरपेक्षता का ज्ञान दे रहे हैं। आप अमुक अमुक को पढ़िए। मुझे तो लगता है कि जो वास्तविक धार्मिक होगा, वह धर्मनिरपेक्ष ही होगा। उसे अपना रास्ता प्यारा होगा, लेकिन दूसरे के रास्ते को भी सम्मान देगा। जो अपने रास्ते को सर्वश्रेष्ठ और दूसरे को हीन साबित करने के चक्कर में होगा, वह धार्मिक नहीं, कट्टर होगा और कट्टरता कोई धर्म नहीं होता। आज बहुत से लोगों ने कट्टरता को ही धर्म मान लिया है। ऐसे लोग विवेकानंद की तस्वीर रख कर अगरबत्ती तो दिखाते हैं, मगर विवेकानंद को न पढ़ते हैं, न मानते हैं। उनका उल्लेख कर दो तो वे चुनौती भी देते हैं। हिन्दू हो या मुस्लिम हो या ईसाई हो- सभी धर्मों में सामाजिक और आर्थिक गैर बराबरी मौजूद है। हिन्दू तो जातियों और उपजातियों में विभक्त है ही, मुस्लिम भी इस बीमारी से अछूते नहीं हैं। इस्लाम के केंद्र में भाईचारा है, लेकिन सच्चाई यह है कि उनमें भी जातियां हैं -पठान , रिजवी , शेख , सिद्दीकी , खान , मिर्ज़ा , कायस्थ , सैय्यद , भरसैया , भरसो अंसारी , बेहंग , चिकवा , धुनिया , दंज़ी , गुनिया , मंसूरी , इदरीसी , नाई , मनिहार , दरवेश , बढ़ई , कुरैशी। हिन्दुओं में तो अनेक जातियां हैं हीं। धर्म धर्म चिल्लाने वाले जातियों की एकता की बात नहीं करते। तथाकथित धार्मिक संगठन जाति बनाये रखना चाहते हैं। वे धार्मिक आंदोलन को राजनीतिक आंदोलन में बदलते हैं, इसलिए कि जातियों का प्रभुत्व बना रहे। ईश्वर या अल्लाह ने सबको जन्म दिया है तो क्या जातियों में बांट कर जन्म दिया है? उन्होंने कहा है कि एक पुत्र दूसरे से इतनी घृणा करे कि देह के स्पर्श से उसका धर्म भ्रष्ट हो जाय। दरअसल हम लोगों ने धर्म को अपने तरीके से व्याख्या कर उसके सत्व को नष्ट कर दिया है। जो लोग धर्म मानते हैं, खास कर प्रवचन देने वालों को चाहिए कि वे मनुष्यता की राह में जो बाधा पहुंचाते हैं, उनके खिलाफ आंदोलन करें। वह चाहे जाति हो या अंध विश्वास। सच्चाई यह है कि दाढ़ी बढ़ाने या भगवा पहन कर टीका ललाट पर लगाने से कोई धार्मिक नहीं हो जाता। मन धार्मिक होना चाहिए। यानी उसे मनुष्यता, करुणा और संवेदना में विश्वास होना चाहिए। हम एक ऐसे युग में हैं, जहां नफ़रत फैलाने और दूसरे की हिंसा करने को ही धर्म मान लिया है। मीडिया, सोशल मीडिया, नेता, पोंगा पंडित - सभी मिल कर धर्म पर टूट पड़े हैं और अपने अपने पोखर में डुबकी लगाने को विवश हैं। नतीजा है कि दो दो विश्वयुद्धों में जितने लोग नहीं मारे गए, विश्व में दो- चार साल में उतने लोग मार दिए जाते हैं। उन लोगों के लिए कठिन दौर है जो मनुष्यता में भरोसा रखते हैं। उनके प्रति सभी धर्मों के तथाकथित धार्मिक लोग असहिष्णु होते हैं। धर्म के नाम पर तांडव मचाने वाले कट्टर लोग चाहे किसी भी देश या धर्म के हों, वे मनुष्य सभ्यता के विरोधी हैं। उनकी तीखी आलोचना ही नहीं, उनके खिलाफ वैचारिक, तार्किक और व्यवहारिक आंदोलन की जरूरत है। देश के अंदर या देश के बाहर जो भी ऐसे लोग उनके साथ एकता होनी चाहिए। ईएमएस / 23 नवम्बर 25