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06-Dec-2025
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नई दिल्ली,(ईएमएस)। सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2 दिसंबर को रोहिंग्या मुसलमानों के कानूनी दर्जे पर की गई टिप्पणी के खिलाफ पूर्व जजों, वरिष्ठ वकीलों और कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल अकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स के सदस्यों ने आपत्ति दर्ज कराई है। समूह ने चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) सूर्यकांत को पत्र लिखकर कहा है, कि अदालत की टिप्पणी न सिर्फ अमानवीय है, बल्कि भारतीय संविधान की मूल भावना और अनुच्छेद 21 के तहत दी गई जीवन और सुरक्षा की गारंटी के विपरीत भी है। गौरतलब है कि सीजेआई सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की डबल बेंच एक हैबियस कॉर्पस याचिका पर सुनवाई कर रही थी। सुनवाई के दौरान बेंच ने कहा था कि यदि कोई व्यक्ति गैर-कानूनी तरीके से भारत में प्रवेश करता है, तो क्या उसे रेड कार्पेट पर वेलकम दिया जाना चाहिए, जबकि देश के अपने नागरिक ही गरीबी से जूझ रहे हैं? इस टिप्पणी ने न्यायिक हलकों में बहस छेड़ दी है। पत्र में उठाए गए प्रमुख मुद्दे पत्र में हस्ताक्षरकर्ताओं ने कहा है कि रोहिंग्या समुदाय विश्व का सबसे उत्पीड़ित अल्पसंख्यक माना जाता है। म्यांमार के बौद्ध बहुल समाज में उन्हें दशकों से हिंसा और भेदभाव का सामना करना पड़ा है और नागरिकता न मिलने के कारण वे स्टेटलेस माने जाते हैं। बड़ी संख्या में रोहिंग्या पिछले वर्षों में अत्याचारों से बचने के लिए पड़ोसी देशों में शरण लेने को मजबूर हुए हैं। अंतरराष्ट्रीय अदालतों ने भी म्यांमार की कार्रवाई को नरसंहार और जातीय सफाये का रूप दिया है। पत्र के हस्ताक्षरकर्ताओं ने कहा, कि शरण पाने के लिए भारत आने वाले लोगों को महज अवैध घुसपैठिया कहना, न्यायपालिका की नैतिक विश्वसनीयता को कमजोर करता है। उनका तर्क है कि सीजेआई के शब्द सिर्फ अदालत तक सीमित नहीं होते, बल्कि देश की चेतना को प्रभावित करते हैं और उनका असर हाईकोर्ट, निचली अदालतों और सरकारी एजेंसियों तक जाता है। अदालत में हुई बहस सुनवाई के दौरान सीजेआई ने कहा था, अगर किसी के पास भारत में रहने की कानूनी अनुमति नहीं है, तो हम उसे सभी सुविधाएं कैसे दे सकते हैं? भारत गरीबों का देश है, पहले अपने नागरिकों की देखभाल जरूरी है। उन्होंने सवाल उठाया कि क्या अवैध रूप से सीमा पार कर आए व्यक्ति को भोजन, आवास और बच्चों की शिक्षा का अधिकार मिलना चाहिए? उक्त याचिका एक्टिविस्ट रीता मनचंदा ने दायर की थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि दिल्ली पुलिस ने मई में कुछ रोहिंग्या लोगों को उठाया और तब से उनका पता नहीं चल रहा। उन्होंने 2020 के सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि रोहिंग्या को केवल कानूनी प्रक्रिया के तहत ही वापस भेजा जा सकता है। केंद्र की दलील सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलील दी कि याचिका किसी प्रत्यक्ष पीड़ित की ओर से नहीं, बल्कि एक एक्टिविस्ट द्वारा दायर की गई है, इसलिए उसका लोकस स्टैंडी नहीं बनता। इस पर बेंच ने कहा कि पहले यह तय करना होगा कि रोहिंग्या वास्तव में शरणार्थी हैं या गैर-कानूनी रूप से आए विदेशी। इस पूरे विवाद ने न्यायपालिका की संवेदनशील जिम्मेदारियों और मानवीय आधार पर लिए जाने वाले निर्णयों को लेकर नई बहस खड़ी कर दी है। हिदायत/ईएमएस 06दिसंबर25