लेख
16-Dec-2025
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न्यायपालिका केवल फैसलों का मंच नहीं है और न ही न्यायपालिका कोई प्रशासनिक मंच ही है। न्यायाधीश को हर प्रकरण में गुण और दोष के आधार पर बिना किसी भेदभाव के संविधान के अनुसार फैसला देने की बाध्यता है। न्यायपालिका वह अंतिम सीढ़ी है, जो संविधान के अनुसार विधायिका और कार्यपालिका जो निर्णय करती हैं, इसकी विवेचना करते हुए संविधान के अनुसार सही हो। यह न्यायपालिका को सुनिश्चित करना होता है। भारतीय संविधान ने न्यायपालिका को सर्वोच्च स्थिति में रखा है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट संविधान के प्रावधानों का पालन मौलिक अधिकारों को ध्यान में रखते हुए नियम और कानून के अनुरूप हो। यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी संविधान ने हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को सौंपी है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को एक समान अधिकार प्राप्त हैं। इनमें अंतर केवल इतना है, कि हाईकोर्ट के न्यायाधीश अपने अधिकारिता के क्षेत्र में निर्णय कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय राष्ट्रीय स्तर पर लागू होते हैं। सुप्रीम कोर्ट को हाईकोर्ट से इतर एक विशेष अधिकार प्राप्त है। वह हाईकोर्ट के निर्णय की समीक्षा कर उनके निर्णय को बदलने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को होता है। मौत की सजा वाले विशेष मामले को छोड़कर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय राष्ट्रीय स्तर पर सभी के लिए अंतिम निर्णय के रूप में बंधनकारी होता है। अनुशासन, परंपरा और संस्थागत संतुलन का यह संवैधानिक ढांचा है। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस नागरत्ना द्वारा दिया गया हालिया फैसला, 2014 की संविधान पीठ के निर्णय को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज करते हुए जो टिप्पणी की है, संवैधानिक पीठ के निर्णय को सर्वोच्चता प्रदान की है। न्याय पालिका में अधिवक्ताओं की जिम्मेदारी और जवाबदारी को स्पष्ट किया है। जो न्यायपालिका के अनुशासनात्मक ढांचे की रक्षा का सशक्त उदाहरण है। यह निर्णय सिर्फ़ एक कानूनी विवाद का अंत नहीं करता, बल्कि न्यायिक वरीयता क्रम और संस्थागत मर्यादा की अनदेखी पर गहरी चिंता जताता है। संविधान पीठ के निर्णय सर्वोच्च न्यायिक विवेक द्वारा गंभीर विचार विमर्श के बाद लिए जाते हैं। इन्हें वर्षों की सुनवाई, व्यापक बहस और संवैधानिक व्याख्या के बाद दिया जाता है। ऐसे में अनुच्छेद 32 के तहत वर्षों बाद उसी निर्णय को चुनौती देना न्यायिक अनुशासन पर सीधा प्रहार है। यही कारण है, न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने इस याचिका को न केवल खारिज किया, बल्कि याचिकाकर्ता पर 1 लाख का जुर्माना लगाकर स्पष्ट संदेश दिया है, कि न्यायिक निर्णयों के वरीयता क्रम की अवहेलना किसी भी कीमत में स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए। यह नाराज़गी केवल न्यायाधीशों की व्यक्तिगत असहमति नहीं, बल्कि न्यायपालिका की संस्थागत चिंता का विषय है। संविधान पीठ के ही निर्णयों को न्यायपालिका या न्यायपालिका से जुड़े अधिवक्ताओँ द्वारा हल्के में लिया जाएगा, तो न्यायिक स्थिरता बनाए रखना संभव नहीं होगा। हर फैसले को बार-बार चुनौती मिलेगी। जिससे निचली अदालतों से लेकर शीर्ष अदालतों तक भ्रम और अराजकता को फैलाने का कारण बनेगी। अदालत का यह कहना कि ऐसी याचिकाएं पूरे न्यायपालिका के सिस्टम को “चरमराने” की ओर ले जाती हैं। मामले का संवैधानिक पक्ष भी उतना ही महत्वपूर्ण है। शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 21ए) और अल्पसंख्यकों के शैक्षणिक अधिकार (अनुच्छेद 30) के बीच संतुलन को बरकरार रखते हुए संविधान पीठ का निर्णय था। 2014 के फैसले में संवैधानिक पीठ ने स्पष्ट व्याख्या करते हुए अल्पसंख्यक संस्थानों को आरटीआई से छूट दी थी। उस संतुलन को वर्षों बाद तोड़ने की कोशिश न्यायिक परंपरा के विरुद्ध है। यह केवल कानून की पुनर्व्याख्या नहीं, बल्कि स्थापित संवैधानिक व्यवस्था को अस्थिर करने का सुनियोजित प्रयास माना जा सकता है। अदालत की सख़्ती ने वकीलों की भूमिका पर भी गंभीर सवाल उठाये हैं। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अधिवक्ताओं से अपेक्षा है, वह वरीयताक्रम, बाध्यकारी फैसलों और न्यायिक मर्यादा का सम्मान करें। दुर्भावनापूर्ण या अविवेकपूर्ण याचिकाएं न केवल अदालत का समय नष्ट करती हैं बल्कि आम नागरिकों के न्याय पर जो भरोसा है, उसको कमजोर करती हैं। वर्तमान स्थिति में जब लोकतांत्रिक संस्थाएं लगातार कई प्रकार के दबाव का सामना कर रही हैं, सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न्यायपालिका की आत्मरक्षा के साथ-साथ लोगों का भरोसा न्यायपालिका पर बनाए रखने जैसा है। न्यायमूर्ति नागरत्ना का साफ संदेश है, वरीयता क्रम की अनदेखी से न्यायाधीशों में नाराज़गी स्वाभाविक है। ऐसी प्रवृत्तियों पर कठोरता के साथ रोक लगाना आवश्यक है। न्यायपालिका की मजबूती, अनुशासन, न्यायायिक निर्णयों की स्थिरता ही लोकतंत्र की सबसे बड़ी सुरक्षा है। यह फैसला उसी मूल भावना को पुष्ट करता है। ईएमएस/16/12/2025