लेख
22-Dec-2025
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कहा जाता है कि सतयुग में समाज पूर्णत: एकरस था और उस समय के समाज में भारतीय संस्कृति की झलक स्पष्टत: दिखाई देती थी। एक कहानी के माध्यम से इस बात को बहुत आसानी से समझा जा सकता है। सतयुग के खंडकाल में एक किसान ने अपनी जमीन बेची। जिस व्यक्ति ने वह जमीन खरीदी थी, उसे, उस जमीन की खुदाई के दौरान सोने के सिक्कों से भरा हुआ एक घड़ा मिला। उस घड़े को लेकर वह किसान जमीन के विक्रेता के पास पहुंचा और बोला कि आपकी जमीन में से यह सोने के सिक्कों से भरा हुआ घड़ा मिला है, चूंकि मैंने आपसे केवल जमीन खरीदी है अतः इन सोने के सिक्कों पर मेरा अधिकार नहीं है और आप यह घड़ा अपने पास रख लें, सोने के इन सिक्कों पर आपका अधिकार है। जमीन के विक्रेता ने सोने के सिक्कों से भरे उस घड़े को लेने से यह कहकर साफ इनकार कर दिया कि मैंने तो वह जमीन आपको बेच दी है, अतः बाद में उस जमीन से जो भी वस्तु आप प्राप्त करते हैं उस पर आपका ही अधिकार हैं। उस वस्तु पर मेरा अधिकार कैसे हो सकता है? जब उस जमीन के क्रेता एवं विक्रेता के बीच कोई समझौता नहीं हो सका तो वे सोने के सिक्कों से भरे उस घड़े को लेकर अपने राज्य के राजा के पास पहुंचे और दोनों ने राजा को पूरी बात बताई तथा राजा से आग्रह किया कि सोने के सिक्कों को राजा साहब राज्य के खजाने में जमा करा दें। राजा ने भी सोने के सिक्कों से भरे उस घड़े को राज्य के खजाने में जमा करने से यह कहकर इंकार कर दिया कि राज्य के नियमों में इस प्रकार का कोई प्रावधान नहीं है कि बगैर किसी उचित कारण के प्राप्त धन को राज्य के खजाने में जमा कर दिया जाय। इस सम्बंध में जो नियम निर्धारित हैं उन नियमों के आधार पर यह सोने के सिक्के राज्य के खजाने में जमा नहीं किये जा सकते हैं। ऐसा था, सतयुग का खंडकाल। जो वस्तु हमारी नहीं है उस वस्तु को हम कैसे अपने पास रख सकते हैं? प्रत्येक नागरिक इस भावना के साथ समाज में एकरस भाव से रहता था। सतयुग के बाद आया त्रेतायुग, इस युग में समाज में समरसता के भाव में कुछ कमी दिखाई दी थी। जैसे एक समाज (दानव) के राजा रावण ने दूसरे समाज (देव) की माता सीता का अपहरण किया और अपने राज्य में कैद कर लिया। प्रभु श्रीराम ने आदिवासियों और वानरों के समूह को एक कर, इन सभी में समरसता का भाव जागृत करते हुए, रावण के राज्य पर आक्रमण किया एवं माता सीता को उस राज्य के चंगुल से छुड़ाकर सकुशल अयोध्या लाने में सफल हुए। प्रभु श्रीराम ने त्रेतायुग में यह संदेश दिया कि सर्व समाज यदि संगठित रहता है तो किसी भी बुराई से पार पाया जा सकता है। अतः त्रेतायुग में संगठन की महत्ता सिद्ध हुई थी। त्रेतायुग के बाद द्वापर युग आया, इस खंडकाल में तो समाज क्या, बल्कि दो परिवारों के बीच की एकता भी समाप्त हो चुकी थी। कौरव परिवार ने अपने ही पांडव भाईयों को केवल 5 गांव देने से साफ इंकार कर दिया। जिसके कारण आगे चलकर कौरव एवं पांडवों की बीच महाभारत युद्ध हुआ। आज के खंडकाल कलयुग की तो बात ही निराली है। आज पश्चिमी जगत में प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने सुख के लिए ही कार्य करता हुआ दिखाई देता है। परिवार के अन्य सदस्यों के प्रति जैसे उसकी कोई जिम्मेदारी ही नहीं है। आज कलयुग में नागरिक अपने आप में केंद्रित हो गए हैं एवं उन्हें परिवार, समाज, राष्ट्र आदि के प्रति किसी जिम्मेदारी का भाव जागृत ही नहीं होता। भारतीय संस्कृति में सामाजिक समरसता को अति महत्व दिया गया है। अतः स्वयं के साथ, परिवार, समाज, नगर, राष्ट्र एवं पूरे विश्व को समता के भाव के साथ देखा जाता है। पूरी सृष्टि ही हमारा परिवार है, इस भावना को “वसुधैव कुटुंबकम”; “सर्वे भवंतु सुखिन:”; “सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय” के माध्यम से झलकाया जाता है। पूरे विश्व में आज अशांति का माहौल है, कई देश आपस में लड़ रहे हैं तथा कई देशों के अंदर विभिन्न मत पंथों को मानने वाले नागरिक आपस में मार काट मचाए हुए हैं। ऐसे गम्भीर समय में केवल और केवल भारतीय संस्कृति ही इस पूरे विश्व में शांति का माहौल पुनः स्थापित कर सकती है। विवेकानंद केंद्र, कन्याकुमारी में सेवा कार्य में संलग्न आदरणीय दीदी निवेदिता रघुनाथ भिड़े ने “भारतीय संस्कृति - चुनौतियां एवं सम्भावनाएं” नामक पुस्तक में भारतीय संस्कृति के बारे में जीवन दर्शन की व्याख्या करते हुए बताया है कि “जिस ज्ञान के द्वारा साधक विभक्त प्राणियों में विभाग रहित एक अविनाशी भाव को देखता है, उस ज्ञान को सात्विक ज्ञान कहा गया है। भारतीय संस्कृति का जीवन दर्शन या जीवन दृष्टि सात्विक ज्ञान से निर्धारित हुई है। ईश्वर, मानव, सृष्टि अलग अलग नहीं है। अतः भारतीय संस्कृति का जीवन दर्शन एकात्म है।” इसके विपरीत, जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियों में अलग अलग अनेक भावों को अलग अलग रूप से जानता है, इस ज्ञान को राजस ज्ञान कहा गया है। क्रिशिचियन एवं इस्लाम पंथ इसी ज्ञान से प्रेरित है। साथ ही, जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य एक कार्य (शरीर) में ही आसक्त हो जाता है, मानों वह (कार्य ही) सब कुछ हो तथा जो (ज्ञान) हेतुरहित (आयुक्तिक), तत्तवार्थ से रहित तथा संकुचित (अल्प) है, वह (ज्ञान) तामस है। पूंजीवाद, कम्युनिजम, नक्सलवाद, साम्यवाद, मार्कस्वाद और माओवाद का जीवन दर्शन तामसिक ज्ञान से प्रेरित है। उक्तवर्णित पुस्तक में यह भी बताया गया गई कि उक्त जीवन दर्शन के आधार पर ही राष्ट्र में जीवन मूल्य एवं जीवन तत्व निर्मित होते हैं, जिनका अनुपालन उस राष्ट्र के नागरिक करते हैं। भारतीय संस्कृति के कुल 12 जीवन मूल्य बताए गए हैं - (1) सभी के प्रति आदर एवं सम्मान का भाव रखना; (2) प्रत्येक जीव को ईश्वर का रूप माना जाना; (3) इष्टदेव अर्थात ईश्वर अपने अंत:करण में खोज का विषय है, अतः ईश्वर को बाहर खोजने के स्थान पर अपने अंदर खोजा जाना; (4) विविधता में एकता मानी गई है, जिसके चलते ही सर्व समाज एकरस रहने का प्रयास करता है; (5) चतुर्विध पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, अर्थात काम एवं अर्थ सम्बंधी गतिविधियों को धर्म के आधार पर सम्पन्न किया जाता है एवं अंत में मोक्ष प्राप्ति की अपेक्षा की जाती है: (6) महिलाओं का सम्मान - भारतीय संस्कृति में मातृशक्ति को देवी का दर्जा दिया जाता है; (7) उदार एवं समावेशक - शक, हूण, कुषाण, पारसी, यहूदी आदि अन्य देशों से भारत में आए एवं भारत के ही होकर रह गए, भारतीय संस्कृति के संस्कारों को उन्होंने अपने आप में आत्मसात कर लिया। यह केवल भारत में ही सम्भव है; (8) कर्म सिद्धांत - इस मानव जन्म में किए गए कर्मों के आधार पर ही मोक्ष की प्राप्ति अथवा 84 लाख योनियों के चक्र में फिर से फंसने की सम्भावना के बारे में निर्णय होता है; (9) अवतार की संकल्पना - इस धरा पर जब जब पापों का घड़ा भर जाता है तब तब ईश्वर इस धरा पर अवतार लेकर अवतरित होते हैं; (10) आध्यात्म विश्वास में नहीं, अनुभूति में और होने में है; (11) यज्ञ का महत्व - समाज की सेवा के माध्यम से भी यज्ञ सम्पन्न किया जा सकता है, अन्य कई प्रकार के यज्ञों का वर्णन भी भारतीय संस्कृति में मिलता है; (12) आत्म संयम - अपना जीवन संयम के साथ जीने की कला भारतीय संस्कृति के जीवन मूल्यों में शामिल है, इसके अंतर्गत किसी अन्य प्राणी का अहित करने के बारे में तो कभी सोचा भी नहीं जाता है। भारतीय संस्कृति में जीवन दर्शन के आधार पर जीवन मूल्य एवं जीवन तत्व निर्धारित होते हैं और इसके बाद समाज की जीवन व्यवस्था भी निर्धारित हो जाती है। भारत में समस्त सांस्कृतिक विधियां, प्रथाएं, पद्धतियां एवं परम्पराएं जीवन व्यवस्था के भाग मानी जाती हैं। कुलधर्म, जातिधर्म, समाजधर्म, पंच महायज्ञ, चार आश्रम, चार वर्ण, जाति व्यवस्था, भारतीय शिक्षा पद्धति भी भारतीय संस्कृति में जीवन व्यवस्था का भाग ही माने जाते हैं। मुगल काल एवं ब्रिटिश शासन काल में भारतीय संस्कृति को नष्ट करने का बहुत प्रयास किया गया था। इस खंडकाल में भारतीय नागरिक अपनी महान परम्पराएं भूल गए थे। इसी खंडकाल में वैश्विक स्तर पर ग्रीक, रोमन, फारसी, मिस्त्र जैसी कई संस्कृतियां विलुप्त हो गईं परंतु भारतीय संस्कृति अभी भी कायम है और मुगल काल एवं ब्रिटिश शासन काल में भारतीय संस्कृति को समाप्त नहीं किया जा सका है। इन्हीं कारणों के चलते अब यह कहा जा रहा है कि समस्त विश्व में शांति स्थापित करने के उद्देश्य से वैश्विक स्तर पर भारतीय संस्कृति का उत्थान अति आवश्यक है। ईएमएस / 22 दिसम्बर 25