मुंबई,(ईएमएस)। जब सड़क किनारे या ऑनलाइन लिस्टिंग में आप 5–10 लाख में बीएमडब्ल्यू, ऑडी या मर्सिडीज बेंज जैसी लग्जरी कार देखते हैं, तब पहली प्रतिक्रिया होती है.........आखिर लाखों-करोड़ों की कीमत वाली ये कारें इतनी सस्ती कैसे हो सकती हैं। लेकिन यह कोई जादू नहीं, बल्कि एक ऐसा सिस्टम है जिसके बारे में ज़्यादातर लोग बिल्कुल नहीं जानते। दरअसल पुरानी कारों का बाजार आज उतना पारदर्शी नहीं है, जितना दिखता है। कार की आईडीवी वैल्यू कार खरीदते समय बीमा (इंश्योरेंस) अनिवार्य होता है। बीमा के साथ हर कार को एक इंश्योर्ड डिक्लेयर्ड वैल्यू (आईडीवी) दी जाती है। यह वैल्यू हर साल होने वाले डेप्रिशिएशन के बाद तय होती है और भारी नुकसान या दुर्घटना की स्थिति में बीमा कंपनी इसी आंकड़े के आधार पर वाहन मालिक को भुगतान करती है। यानी टोटल लॉस की स्थिति में वाहन मालिक को उतनी रकम इंश्योरेंस कंपनी द्वारा दी जाएगी, जितनी की वाहन की आईडीवी होगी। जब बीएमडब्ल्यू, ऑडी और मर्सिडीज बेंज जैसी लग्ज़री कारों का कोई बड़ा एक्सीडेंट होता है, तब इनकी मरम्मत का खर्च काफी ज्यादा होता है। इनके पार्ट्स और रिपेयर बेहद महंगे होते हैं। मान लीजिए बीएमडब्ल्यू 3 सीरिज का बड़ा एक्सीडेंट हो गया और वर्कशॉप में रिपेयर का अनुमान 25–30 लाख रुपये आ गया, जो कि इन ब्रांड्स के लिए बेहद सामान्य सी बात है। अगर उस कार की सीवीडी वैल्यू 35–40 लाख रुपये है, तब बीमा कंपनी कार को रिपेयर कराने के बजाय उसे “टोटल लॉस” घोषित कर सकती है। इसका मतलब है कि कार को पूरी तरह ले-ऑफ कर दिया जाता है और मालिक को सीवीडी के बराबर पैसा दे दिया जाता है। और यहीं से शुरू होता है असल खेल... ज़्यादातर लोग मानते हैं कि टोटल लॉस कारें सीधे स्क्रैप में चली जाती हैं। लेकिन हकीकत इससे बिल्कुल अलग है। बीमा कंपनियां ऐसी कारें स्पेशलाइज्ड वेंडर्स को बेच देती हैं। ये वेंडर्स तो कई बार सीधे मौके पर ही पहुंचकर कार की हालात देखते हैं और ये अंदाजा लगाते हैं कि उस कार को चलने की हालत में तैयार करने में करीब कितना खर्च आएगा। ये वेंडर्स आम तौर पर आईवीडी वैल्यू के 50–60 प्रतिशत में कार खरीद लेते हैं। अगर आईवीडी 30 लाख रुपये थी, तब उन्हें ये कार 18–20 लाख रुपये में हाथ लग जाती है। ये वेंडर्स कार को बिल्कुल नए सिरे से खड़ा करते हैं। इस्तेमाल किए गए पार्ट्स, इम्पोर्टेड पार्ट्स, फैब्रिकेटेड कंपोनेंट्स और रिफर्बिश्ड स्ट्रक्चरल कंपोनेंट्स की मदद से पूरी गाड़ी फिर तैयार की जाती है। कई बार अधिकृत वर्कशॉप किसी कार को नॉन-रिपेरेबल घोषित कर देती है, लेकिन ये वेंडर्स उसे भी सड़क पर दौड़ने लायक बना देते हैं। फिर होती है यूज़्ड कार मार्केट में एंट्री रीबिल्ड होने के बाद कार 25–27 लाख रुपये में किसी यूज़्ड कार डीलर को बेची जाती है। डीलर कार को आगे 30 लाख रुपये के आसपास ग्राहक को ऑफर करता है। इस तरह कभी 80 लाख रुपये की रही कार कुछ ही हाथों में घूमकर 30 लाख रुपये में सेकंड हैंड बाजार में उपलब्ध होती है। पुराने मॉडलों में आईवीडी और भी कम होती है, इसलिए उनकी कीमत 5–10 लाख रुपये तक आ जाती है। इस पूरे खेल में सबसे अहम बात यह है कि खरीदार को अक्सर यह पता ही नहीं चलता कि कार कभी टोटल लॉस थी। जूरिस्डिक्शन बदलने, कागज़ात के ट्रांसफर और गैर-अधिकृत चैनलों के ज़रिये कार की हिस्ट्री को छिपाया जाता है। रही-सही कसर मैकेनिक और वेंडर्स पूरा कर देते हैं। वे कार को इस तरह से चमकाते हैं कि, खरीदार को एक्सीडेंट की भनक भी नहीं लगती है। आशीष दुबे / 30 दिसंबर 2025