लेख
20-Feb-2024
...


(मातृ भाषा दिवस पर विशेष) जिस स्थान पर जन्म होता है वहां की भाषा को यदि माता-पिता ने आत्मसात किया हुआ हो या फिर वह भाषा जो माता -पिता के आपसी व्यवहार की भाषा है ,उसे ही भाषा मातृ भाषा कहते है।मातृभाषा कोई भी हो,उसे बोलना व लिखना बेहद सहज होता है।चूंकि मेरी मातृभाषा हिंदी है,हिंदी में भी खड़ी बोली जिसे कौरवी रूप में भी जानते है,जो मूल रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड के मैदानी क्षेत्र में बोली जाती है। ,यह भाषा मेरे लिए गौरव की बात है। हिंदी को मात्र भारत की भाषा नही कह सकते।देवनागरी हिंदी भाषा मे अ, आ,इ, ई,ओ,उ,में जो स्वर गूंजते है वही स्वर नवजात शिशु के रुदन से प्रकट होते है।चूंकि दुनिया के सभी शिशुओं के रुदन ध्वनि एक ही प्रकार की है।इसलिए कह सकते है कि हिंदी हर मानव प्राणी की जन्म की भाषा है।किसी भी देश की राष्ट्रभाषा राष्ट्रीय एकता एवं अंतर्राष्ट्रीय संवाद सम्पर्क की आवश्यकता की उपज होती है। राष्ट्र की जनता जब स्थानीय एवं तत्कालिक हितों व पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर अपने राष्ट्र की कई भाषाओं में से किसी एक भाषा को चुनकर उसे राष्ट्रीय अस्मिता का एक आवश्यक उपादान समझने लगती है तो वही भाषा,राष्ट्रभाषा कहलाने लगती है।स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिंदी स्वाधीनता सेनानियों के सम्पर्क की भाषा रही,तभी तो हिंदी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रभाषा कहलाई और उसने यह सम्मान प्राप्त भी किया।हालांकि राष्ट्रभाषा शब्द कोई संवैधानिक शब्द नहीं है, बल्कि यह प्रयोगात्मक, व्यावहारिक व जनमान्यता प्राप्त शब्द है। राष्ट्रभाषा सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर पर देश को जोड़ने का काम करती है अर्थात् राष्ट्रभाषा की प्राथमिक शर्त देश में विभिन्न समुदायों के बीच भावनात्मक एकता स्थापित करना है। राष्ट्रभाषा का प्रयोग क्षेत्र विस्तृत और देशव्यापी होता है। राष्ट्रभाषा सारे देश की सम्पर्क–भाषा होती है। जिसका व्यापक जनाधार होता है। राष्ट्रभाषा हमेशा स्वभाषा ही हो सकती है क्योंकि उसी के साथ जनता का भावनात्मक लगाव होता है। राष्ट्रभाषा का स्वरूप लचीला होता है और इसे जनता के अनुरूप किसी रूप में ढाला जा सकता है। हिंदी देश में जन–जन के पारस्परिक सम्पर्क की भाषा रही है। यह केवल उत्तरी भारत की नहीं, बल्कि दक्षिण भारत के आचार्यों वल्लभाचार्य, रामानुज, रामानंद ,शंकराचार्य आदि ने भी इसी भाषा के माध्यम से अपने मतों का प्रचार किया था। अहिंदी भाषी राज्यों के भक्त–संत कवियों जैसे—असम के शंकरदेव, महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर व नामदेव, गुजरात के नरसी मेहता, बंगाल के चैतन्य आदि ने इसी भाषा को अपने धर्म और साहित्य का माध्यम बनाया था। जब फ़ारसी या अंग्रेज़ी के माध्यम से परेशानी हुई तो अंग्रेजों ने फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में हिंदी विभाग खोलकर अधिकारियों को हिंदी सिखाने की व्यवस्था की। यहाँ से हिंदी पढ़े हुए अधिकारियों ने भिन्न–भिन्न क्षेत्रों में उसका प्रत्यक्ष लाभ देकर मुक्त कंठ से हिंदी को सराहा। सी. टी. मेटकाफ़ ने 1806 ई. में अपने गुरु जॉन गिलक्राइस्ट को लिखा— भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है, कलकत्ता से लेकर लाहौर तक, कुमाऊँ के पहाड़ों से लेकर नर्मदा नदी तक मैंने उस भाषा का आम व्यवहार देखा है, जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी है। मैं कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक या जावा से सिंधु तक इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूँ कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जाएँगे जो हिन्दुस्तानी बोल लेते होंगे। टॉमस रोबक ने 1807 ई. में लिखा— जैसे इंग्लैण्ड जाने वाले को लैटिन सेक्सन या फ़्रेंच के बदले अंग्रेज़ी सीखनी चाहिए, वैसे ही भारत आने वाले को अरबी–फ़ारसी या संस्कृत के बदले हिन्दुस्तानी यानि हिंदी सीखनी चाहिए। विलियम केरी ने 1816 ई. में लिखा— हिंदी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं बल्कि देश में सर्वत्र बोली जाने वाली भाषा है। एच. टी. कोलब्रुक ने लिखा— जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रान्त के लोग करते हैं, जो पढ़े–लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है, जिसको प्रत्येक गाँव में थोड़े बहुत लोग अवश्य ही समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिंदी है। जार्ज ग्रियर्सन ने हिंदी को आम बोलचाल की महाभाषा कहा है। हिंदी की व्यावहारिक उपयोगिता, देशव्यापी प्रसार एवं प्रयोगगत लचीलेपन के कारण अंग्रेज़ों ने हिंदी को अपनाया। उस समय हिंदी और उर्दू को एक ही भाषा माना जाता था। अंग्रेज़ों ने हिंदी को प्रयोग में लाकर हिंदी की महती संभावनाओं की ओर राष्ट्रीय नेताओं एवं साहित्यकारों का ध्यान खींचा था। ब्रह्म समाज के संस्थापक राजा राममोहन राय ने सन 1828 में कहा, इस समग्र देश की एकता के लिए हिंदी अनिवार्य है। ब्रह्मसमाजी केशव चंद्र सेन ने 1875 ई. में एक लेख लिखा, भारतीय एकता कैसे हो, जिसमें उन्होंने लिखा— उपाय है सारे, भारत में एक ही भाषा का व्यवहार। अभी जितनी भाषाएँ भारत में प्रचलित हैं, उनमें हिंदी भाषा लगभग सभी जगह प्रचलित है। यह हिंदी अगर भारतवर्ष की एकमात्र भाषा बन जाए तो यह काम सहज ही और शीघ्र ही सम्पन्न हो सकता है। एक अन्य ब्रह्मसमाजी नवीन चंद्र राय ने पंजाब में हिंदी के विकास के लिए स्तुत्य योगदान दिया। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती गुजराती भाषी थे एवं गुजराती व संस्कृत के अच्छे जानकार थे। हिंदी का उन्हें सिर्फ़ कामचलाऊ ज्ञान था, पर अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए तथा देश की एकता को मज़बूत करने के लिए उन्होंने अपना सारा धार्मिक साहित्य हिंदी में ही लिखा। उनका कहना था कि हिंदी के द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है। वे इस आर्यभाषा को सर्वात्मना देशोन्नति का मुख्य आधार मानते थे। उन्होंने हिंदी के प्रयोग को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया। वे कहते थे, मेरी आँखें उस दिन को देखना चाहती हैं, जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा समझने और बोलने लग जाएँगे। महर्षि अरविन्द घोष की सलाह थी कि लोग अपनी–अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए सामान्य भाषा के रूप में हिंदी को ग्रहण करें। एनी बेसेंट ने कहा था, भारतवर्ष के भिन्न–भिन्न भागों में जो अनेक देशी भाषाएँ बोली जाती हैं, उनमें एक भाषा ऐसी है जिसमें शेष सब भाषाओं की अपेक्षा एक भारी विशेषता है, वह यह कि उसका प्रचार सबसे अधिक है। वह भाषा हिंदी है। हिंदी जानने वाला आदमी सम्पूर्ण भारतवर्ष में यात्रा कर सकता है और उसे हर जगह हिंदी बोलने वाले मिल सकते हैं। भारत के सभी स्कूलों में हिंदी की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए। ब्रह्माकुमारी संस्था के संस्थापक ब्रह्मा बाबा ने ईश्वरीय ज्ञान की शुरुआत हिंदी से ही की।परमात्मा शिव की वाणी मुरली मुख्यतः हिंदी में ही प्रसारित होती है। राष्ट्रीय स्तर पर संवाद स्थापित करने के लिए हिंदी आवश्यक है। हिंदी बहुसंख्यक जन की भाषा है, एक प्रान्त के लोग दूसरे प्रान्त के लोगों से सिर्फ़ इस भाषा में ही विचारों का आदान–प्रदान कर सकते हैं। भावी राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को बढ़ाने का कार्य समाज सुधारकों ने किया। सन 1885 ई. में स्थापित कांग्रेस का राष्ट्रीय आंदोलन जैसे जैसे ज़ोर पकड़ता गया, वैसे–वैसे राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय झण्डा एवं राष्ट्रभाषा के प्रति आग्रह बढ़ता ही गया।1917 ई. में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने कहा, यद्यपि मैं उन लोगों में से हूँ, जो चाहते हैं और जिनका विचार है कि हिंदी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है। तिलक ने भारतवासियों से आग्रह किया कि वे हिंदी सीखें। महात्मा गाँधी राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा को नितांत आवश्यक मानते थे। उनका कहना था, राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है। गाँधीजी हिंदी के प्रश्न को स्वराज का प्रश्न मानते थे— हिंदी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है। उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में सामने रखकर भाषा–समस्या पर गम्भीरता से विचार किया। 1917 ई. में भड़ौंच में आयोजित गुजरात शिक्षा परिषद के अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधीजी ने कहा, राष्ट्रभाषा के लिए 5 लक्षण या शर्तें होनी चाहिए—अमलदारों के लिए वह भाषा सरल होनी चाहिए। यह ज़रूरी है कि भारतवर्ष के बहुत से लोग उस भाषा को बोलते हों। उस भाषा के द्वारा भारतवर्ष का अपनी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवहार होना चाहिए। राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए। उस भाषा का विचार करते समय किसी क्षणिक या अल्पस्थायी स्थिति पर ज़ोर नहीं देना चाहिए। वर्ष 1918 ई. में हिंदी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधी जी ने राष्ट्रभाषा हिंदी का समर्थन किया, मेरा यह मत है कि हिंदी ही हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हो सकती है और होनी चाहिए। इसी अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि प्रतिवर्ष 6 दक्षिण भारतीय युवक हिंदी सीखने के लिए प्रयाग भेजें जाएँ और 6 उत्तर भारतीय युवक को दक्षिण भाषाएँ सीखने तथा हिंदी का प्रसार करने के लिए दक्षिण भारत में भेजा जाए। इन्दौर सम्मेलन के बाद उन्होंने हिंदी के कार्य को राष्ट्रीय व्रत बना दिया। दक्षिण में प्रथम हिंदी प्रचारक के रूप में गाँधीजी ने अपने सबसे छोटे पुत्र देवदास गाँधी को दक्षिण में चेन्नई भेजा। गाँधीजी की प्रेरणा से मद्रास में सन 1927 ई. में एवं वर्धा में सन 1936 ई. में राष्ट्रभाषा प्रचार सभाएँ स्थापित की गईं। वर्ष 1925 ई. में कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन में गाँधीजी की प्रेरणा से यह प्रस्ताव पारित हुआ कि कांग्रेस का, कांग्रेस की महासमिति का और कार्यकारिणी समिति का काम–काज आमतौर पर हिंदी में चलाया जाएगा। इस प्रस्ताव में हिंदी–आंदोलन को बड़ा बल मिला। वर्ष 1927 ई. में गाँधीजी ने लिखा, वास्तव में ये अंग्रेज़ी में बोलने वाले नेता हैं, जो आम जनता में हमारा काम जल्दी आगे बढ़ने नहीं देते। वे हिंदी सीखने से इंकार करते हैं, जबकि हिंदी द्रविड़ प्रदेश में भी तीन महीने के अन्दर सीखी जा सकती है। सन 1927 ई. में सी. राजगोपालाचारी ने दक्षिण वालों को हिंदी सीखने की सलाह दी और कहा, हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा तो है ही, यही जनतंत्रात्मक भारत में राजभाषा भी होगी। सन 1928 ई. में प्रस्तुत नेहरू रिपोर्ट में भाषा सम्बन्धी सिफ़ारिश में कहा गया था, देवनागरी अथवा फ़ारसी में लिखी जाने वाली हिन्दुस्तानी भारत की राष्ट्रभाषा होगी, परन्तु कुछ समय के लिए अंग्रेज़ी का उपयोग ज़ारी रहेगा। सिवाय देवनागरी या फ़ारसी की जगह देवनागरी तथा हिन्दुस्तानी की जगह हिंदी रख देने के अंततः स्वतंत्र भारत के संविधान में इसी मत को अपना लिया गया। सन 1929 ई. में सुभाषचंद्र बोस ने कहा, प्रान्तीय ईर्ष्या–द्वेष को दूर करने में जितनी सहायता इस हिंदी प्रचार से मिलेगी, उतनी दूसरी किसी चीज़ से नहीं मिल सकती। अपनी प्रान्तीय भाषाओं की भरपूर उन्नति कीजिए, उसमें कोई बाधा नहीं डालना चाहता और न हम किसी की बाधा को सहन ही कर सकते हैं। पर सारे प्रान्तों की सार्वजनिक भाषा का पद हिंदी को ही मिला है। सन 1931 ई. में महात्मा गाँधी ने लिखा, यदि स्वराज्य अंगेज़ी–पढ़े भारतवासियों का है और केवल उनके लिए है तो सम्पर्क भाषा अवश्य अंग्रेज़ी होगी। यदि वह करोड़ों भूखे लोगों, करोड़ों निरक्षर लोगों, निरक्षर स्त्रियों, सताए हुए अछूतों के लिए है तो सम्पर्क भाषा केवल हिंदी हो सकती है। गाँधीजी जनता की बात जनता की भाषा में करने के पक्षधर थे। सन 1936 ई. में गाँधीजी ने कहा, अगर हिन्दुस्तान को सचमुच आगे बढ़ना है तो चाहे कोई माने या न माने राष्ट्रभाषा तो हिंदी ही बन सकती है, क्योंकि जो स्थान हिंदी को प्राप्त है, वह किसी और भाषा को नहीं मिल सकता है। सन 1937 ई. में देश के कुछ राज्यों में कांग्रेस मंत्रिमंडल गठित हुआ। इन राज्यों में हिंदी की पढ़ाई को प्रोत्साहित करने का संकल्प लिया गया। जैसे–जैसे स्वतंत्रता संग्राम तीव्रतम होता गया वैसे–वैसे हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का आंदोलन ज़ोर पकड़ता गया। 20वीं सदी के चौथे दशक तक हिंदी राष्ट्रभाषा के रूप में आम सहमति प्राप्त कर चुकी थी। सन 1942 से 1945 का समय ऐसा था जब देश में स्वतंत्रता की लहर सबसे अधिक तीव्र थी, तब राष्ट्रभाषा से ओत–प्रोत जितनी रचनाएँ हिंदी में लिखी गईं उतनी शायद किसी और भाषा में इतने व्यापक रूप से कभी नहीं लिखी गई। राष्ट्रभाषा के साथ राष्ट्रीयता के प्रबल हो जाने पर और मातृभाषा हिंदी स्वतंत्रता आंदोलन में एक शस्त्र के रूप में स्वाधीनता सेनानियों के संवाद माध्यम बन जाने पर अंग्रेज़ों को भारत छोड़ना पड़ा था।तभी तो आजादी के आंदोलन में हिन्दी का जो अभूतपूर्व योगदान रहा ,उसे भुलाया नही जा सकता ।(लेखक विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ के उपकुलपति व वरिष्ठ पत्रकार है) ईएमएस / 20 फरवरी 24