- जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की होली पर किसी ने क्या खूब लिखा है..... आ मिटा दें दिलों पे जो स्याही आ गई है,तेरी होली मैं मनाऊं, मेरी ईद तू मना ले! ये सुखद संयोग ही है कि इस बार रंगों का पर्व होली और भाईचारे-सदभाव का त्यौहार ईद एक ही महीने में पड़ रहे हैं। एक ओर जहां देश भर में होली पर उत्साह रहेगा वहीं सेवईयों की मिठास भी घुलेगी। बात करें होली की तो महज होली का नाम या शब्द आते ही जहन में उल्लास, उमंग और रंगों की अनुभूति होने लगती है। रंगों का ये पर्व भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के कई देशों में मनाया जाता है। होली का नाम लेते ही रगों में उन्मादित खुशी दौड जाती है। लोग गिले-शिकवे भूलकर एक दूसरे पर खूब रंग लगाते हैं। लेकिन ये कम ही लोग जानते है कि होली को भाईचारे और सदभाव के साथ मनाने की परंपरा मुगल काल में चरम पर थी। हिन्दु और मुसलमान दोनों ही होली पर खूब जश्न मनाते थे। मुगल काल के दौरान ज्यादातर बादशाह होली की तैयारियां करवाते थे। मुगल काल में भी धूमधाम से होली जाती थी। बरसों से चली आ रही ये परंपरा आज भी कायम है। इतना ही नहीं हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह और वारिस पिया की दरगाह और वारसी सिलसिले के अन्य खानकाहों में होली पर अमीर खुसरों के लिखा रंग बड़े अदब से गाया जाता है। बादशाह अकबर, हुमायूँ, जहाँगीर, शाहजहाँ और बहादुर शाह जफर भी होली आने के कुछ दिन पहले ही तैयारियाँ प्रारंभ करवा देते थे। बादशाह अकबर के महल में सोने चाँदी के बड़े-बड़े बर्तनों में केवड़े और केसर से युक्त टेसू का रंग घोला जाता था और राजा अपनी बेगम और हरम की सुंदरियों के साथ होली खेलते थे। कहा जाता है कि होली का त्योहार मुगल शासक अकबर को भी काफी प्रिय था। इतिहासकारों का कहना है कि अकबर पर उसकी हिंदू रानी जोधा या हरका बाई का अत्यधिक प्रभाव था। यही वजह है कि अकबर बड़े उत्साह और शौक से होली खेलते थे। अब्दुल रहीम खानखाना और मुस्लिम कवि रसखान दोनों ही कृष्णभक्त थे, दोनों को होली का इंतजार रहता था। अकबर के शासन काल में शाम को महल में उम्दा ठंडाई, मिठाई और पान इलायची से मेहमानों का स्वागत किया जाता था और मुशायरे, कव्वालियों और नृत्य-गानों की महफिलें जमती थीं। जहाँगीर के समय में महफिल-ए-होली का भव्य कार्यक्रम होता था। शाहजहाँ तो होली को ईद गुलाबी के रूप में धूमधाम से मनाते थे। बहादुरशाह जफर भी होली खेलने के शौकीन थे। बहादुर शाह जफर शायर भी थे, होली को लेकर उनकी काव्य रचनाएँ आज तक सराही जाती हैं। मुगल काल में होली के अवसर पर लाल किले के पीछे यमुना नदी के किनारे आम के बाग में होली के मेले लगते थे। यहां आसपास के गांवों और कस्बों के लोग शामिल होते थे। बीजापुर सल्तनत के राजा इब्राहिम आदिल शाह और वाजिद अली शाह होली के समय मिठाइयां, ठंडाई बांटा करते थे। उर्दू अखबार जाम-ए-जहांनुमा (1844) के मुताबिक, मुगलकाल में होली के समय बहादुर शाह जफर होली के जश्न के लिए खास तैयारियां करते थे। अमीर खुसरो (1253-1325), इब्राहिम रसखान (1548-1603), नजीर अकबरबादी (1735-1830), महजूर लखनवी (1798-1818), शाह नियाज (1742-1834) की रचनाओं में गुलाबी त्यौहार के रूप में होली का जिक्र मिलता है। जहांगीर की ऑटोबायोग्राफी तुज्क-ए-जहांगीरी में जिक्र मिलता है कि होली के समय जहांगीर महफिल का आयोजन किया करते थे। जहांगीर के मुंशी जकाउल्लाह अपनी किताब तारीख-ए-हिंदुस्तानी में लिखते हैं कि होली हिंदु, मुसलमान, अमीर, गरीब सब मिलकर मनाते हैं। लखनऊ के शासक नवाब सआदत अली खान और असिफुद्दौला होली की तैयारियों और जश्न में अच्छा खासा पैसा खर्च करते थे। मशहूर कवि मीर तकी मीर (1723- 1810) में नवाब असिफुद्दौला के होली खेलने पर होरी गीत लिखा था। मुगलों के शासन में होली का उत्साह किस कदर होता था इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मुगल काल के चित्रकार भी होली के चित्र उकेरते थे। अकबर के जोधाबाई और जहांगीर के नूरजहां के साथ होली खेलने की तस्वीरें आ चुकी हैं। बहुत से मुस्लिम कवियों ने भी अपनी कविताओं में मुगल शासकों के अपनी बेगमों और आवाम के साथ होली खेलने का वर्णन किया है। इनमें अमीर खुसरो, इब्राहिम रसखान, महजूर लखनवी, शाह नियाज और नजीर अकबराबादी जैसे नाम मुख्य है। मुगल शासकों के दौर में होली के लिए फूलों से रंग तैयार किया जाता था। लाल टेसू के फूल कई दिनों पहले से इकट्ठा कर उन्हें उबालकर ठंडा करके पिचकारियों या हौद में भरा जाता था। होली के दिन हौद में फूलों का रंग और गुलाब जल भर दिया जाता था। सुबह से ही होली का जश्न शुरू हो जाता था। बादशाह पहले बेगमों और फिर प्रजा के साथ रंग खेलते थे। महल के पास एक जगह लगातार गुलाब जल और केवड़ा जैसे इत्र से सुगंधित फौवारे चलते रहते थे। अमीर खुसरो ने कई सूफियाना गीत लिखे। इनमें आज रंग है री, आज रंग है, मोरे ख्वाजा के घर आज रंग है, आज भी न सिर्फ होली, बल्कि आम मौकों पर भी सुना जाता है। कहा जाता है कि जिस दिन अमीर खुसरो अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के शिष्य बने, वो दिन होली का ही था। उस दौरान ही उन्होंने औलिया की तारीफ में आज रंग है... लिखा था। खुसरो ने अपनी मां के सामने औलिया की तारीफ में राग बहार में गाया था। इतिहास के पहले धर्मनिरपेक्ष माने जाने वाले सूफी संत निजामुद्दीन औलिया ने सबसे पहले अपने मठ में होली का जश्न मनाया। इसके बाद से ये सूफी संतों का पसंदीदा त्यौहार बन गया। आज भी होली सूफी कल्चर का हिस्सा है और हर तीर्थ पर सालाना जलसे के आखिरी रोज रंग पर्व मनाया जाता है। हालांकि मुगलिया सल्तनत के खात्मे के साथ होली पर हिंदू-मुस्लिमों के इकट्ठा होने और साथ रंग खेलने का रिवाज कम होता चला गया। लेकिन आज भी राजस्थान के अजमेर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर होली के गीत या फाग गाए जाते हैं। ------------------ अदब के साथ गाए जाते हैं खुसरो की रचना ------------------ आज रंग है, ऐ मा रंग है री, मोरे महबूब के घर रंग है री। मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया, जब देखो मोरे संग है री। हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में अमीर खुसरो की यह रचना अदबो-एहतराम के साथ गाई जाती है। सिर्फ अमीर खुसरो ही नहीं बल्कि कई सूफी संतों और शायरों-कवियों ने होली पर गीत, गजल, ठुमरी और शायरी लिखी है। हजरत निजामुद्दीन औलिया के मुरीद और शायर अमीर खुसरो ने सूफीमत परंपरा से बसंत और होली का त्योहार मनाने के रिवाज की शुरूआत की। कहा जाता है कि एक बार हजरत निजामुद्दीन को भगवान कृष्ण ने सपने में दर्शन दिए। तब उन्होंने खुसरो को बुलाकर श्रीकृष्ण पर हिंदवी जोकि उस समय की लोक भाषा थी, उस पर दीवान लिखने को कहा। तब खुसरो ने हजरत के लिए ‘हालात एक कन्हैया और किशना’ नामक हिंदवी में दीवान लिखा। इसमें खुसरो ने श्रीकृष्ण के जीवन दर्शन के साथ होली गीत भी लिखे और इन्हीं गीतों को गाकर वे हजरत के साथ होली खेला करते थे। खुसरो होली के रंग को महारंग कहते हैं। गंज शकर के लाल निजामुद्दीन चिश्त नगर में फाग रचायो, ख्वाजा निजामुद्दीन, ख्वाजा कुतबुद्दीन प्रेम के रंग में मोहे रंग डारो सीस मुकुट हाथन पिचकारी, मोरे अंगना होरी खेलन आयो, खेलो रे चिश्तियो होरी खेलो, ख्वाजा निजाम के भेस मे आयो। आज रंग है ए मां, रंग है री मेरे ख्वाजा के घर रंग है री सजन गिलावरा इस आंगन में मैं पीर पायो निजामुद्दीन औलिया गंज शकर मोरे संग है री... अमीर खुसरो लिखते हैं................ शाह निजाम के रंग में, कपड़े रंग के कुछ न होत है, या रंग में तन को डुबोया री. धरती अंबर घूम रहे हैं, बरस रहा है रंग। खेलो चिश्तियों होली खेलो, ख्वाजा निजामुद्दीन के संग।। रैनी चढ़ी रसूल की तो सो रंग मौला के हाथ। जिनके कपड़े रंग दियो सो धन-धन वा के भाग।। शायर नजीर अकबराबादी होली पर कहते हैं........... जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की और दफ (चंग) के शोर खड़कते हों, तब देख बहारें होली की। परियों के रंग दमकते हों, तब देख बहारें होली की खम शीश-ए-जाम छलकते हों,तब देख बहारें होली की। शकील बदायुनी की कलम से................ (मदर इण्डिया फिल्म में गाने के रूप में) होली आई रे कन्हाई रंग छलके सुना दे जरा बांसरी बरसे गुलाल, रंग मोरे अंगनवा अपने ही रंग में रंग दे मोहे सजनवा। नवाब वाजिद अली शाह की होली पर लिखी ठुमरी खासी लोकप्रिय है। वो लिखते हैं........ मोरे कान्हा जो आए पलट, अबके होली मै खेलूंगी डट के पीछे मै चुपके से जा के, रंग दूंगी उन्हें भी लिपट के। अंतिम मुगल बादशाह जफर ने ब्रजभाषा में होली के गीत भी लिखे, क्यों मो पै रंग की मारी पिचकारी। देखो कुंवर जी दूंगी मैं गारी।। बहुत दिनन पे हाथ लगे हो, कैसे जाने दूं। मैं पगवा तो सौं हाथ पकड़ कर लूं।। ईएमएस / 22 मार्च 24
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