(आदि शंकराचार्य जयन्ती - 2 मई, 2025) महापुरुषों की कीर्ति युग-युगों तक स्थापित रहती। उनका लोकहितकारी चिंतन, दर्शन एवं कर्तृत्व कालजयी होता है, सार्वभौमिक, सार्वदैशिक एवं सार्वकालिक होता है और युगों-युगों तक समाज का मार्गदर्शन करता हैं। आदि शंकराचार्य हमारे ऐेसे ही एक प्रकाशस्तंभ हैं जिन्होंने एक महान हिंदू धर्माचार्य, दार्शनिक, गुरु, योगी, धर्मप्रवर्तक और संन्यासी के रूप में 8वीं शताब्दी में अद्वैत वेदांत दर्शन का प्रचार किया था। हिन्दुओं को संगठित किया। उन्होंने चार मठों की स्थापना की, जो भारत के विभिन्न हिस्सों में स्थित हैं। आदि गुरु शंकराचार्य हिंदू धर्म में एक विशेष स्थान रखते हैं, उनके विराट व्यक्तित्व को किसी उपमा से उपमित करने का अर्थ है उनके व्यक्तित्व को ससीम बनाना। उनके लिये इतना ही कहा जा सकता है कि वे अनिर्वचनीय है। उन्हें हम धर्मक्रांति एवं समाज-क्रांति का सूत्रधार कह सकते हैं। अपने जन्मकाल से ही शिशु शंकराचार्य के मस्तक पर चक्र का चिन्ह, ललाट पर तीसरे नेत्र तथा कंधे पर त्रिशूल जैसी आकृति अंकित थी, इसी कारण आदि शंकराचार्य को भगवान शिव का अवतार भी माना जाता है। भगवान शिव ने उन्हें साक्षात् दर्शन देकर अंध-विश्वास, रूढ़ियों, अज्ञानता एवं पाखण्ड के विरूद्ध जनजागृति का अभियान चलाने का आशीर्वाद दिया। उन्होंने भयाक्रांत और धर्म विमुख जनता को अपनी आध्यात्मिक शक्ति और संगठन युक्ति से संबल प्रदान किया था। उन्होंने नए ढंग से हिंदू धर्म का प्रचार-प्रसार किया और लोगों को सनातन धर्म का सही एवं वास्तविक अर्थ समझाया। आदि शंकराचार्य के अनूठे प्रयासों से ही आज हिन्दू धर्म बचा हुआ है एवं सनातन धर्म परचम फहरा रहा है। शंकराचार्य ने अपने 32 वर्ष के अल्प जीवन में ही पूरे भारत की तीन बार पदयात्रा की और अपनी अद्भुत आध्यात्मिक शक्ति और संगठन कौशल से उस समय के 72 संप्रदायों तथा 80 से अधिक राज्यों में बंटे इस देश को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में इस प्रकार बांधा कि यह शताब्दियों तक विदेशी आक्रमणकारियों से स्वयं को बचा सका और अखण्ड बना रहा। ऐसे दिव्य एवं अलौकिक संत पुरुष का जन्म धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आठवीं सदी में वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को केरल के कालड़ी गांव में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम आर्यम्बा था। बहुत दिन तक सपत्नीक शिव की आराधना करने के अनंतर शिवगुरु ने पुत्र-रत्न पाया था, अतः उसका नाम शंकर रखा। जब ये तीन ही वर्ष के थे तब इनके पिता का देहांत हो गया। ये बड़े ही मेधावी तथा प्रतिभाशाली थे। छह वर्ष की अवस्था में ही ये प्रकांड पंडित हो गए थे और आठ वर्ष की अवस्था में इन्होंने संन्यास ग्रहण किया था। इनके संन्यास ग्रहण करने के समय की कथा बड़ी विचित्र है। कहते हैं, माता एकमात्र पुत्र को संन्यासी बनने की आज्ञा नहीं दे रही थीं। तब एक दिन नदी किनारे एक मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर पकड़ लिया तब इस वक्त का फायदा उठाते हुए शंकराचार्यजी ने अपने माँ से कहा ‘माँ मुझे संन्यास लेने की आज्ञा दो, अन्यथा यह मगरमच्छ मुझे खा जायेगां।’ इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा प्रदान की; और आश्चर्य की बात है कि जैसे ही माता ने आज्ञा दी वैसे ही तुरन्त मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर छोड़ दिया। इन्होंने गोविन्द नाथ से संन्यास ग्रहण किया, जो आगे चलकर आदि गुरु शंकराचार्य कहलाए। आदि शंकराचार्य ने प्राचीन भारतीय उपनिषदों के सिद्धांत और हिन्दू संस्कृति को पुनर्जीवित करने का अनूठा एवं ऐतिहासिक कार्य किया। साथ ही उन्होंने अद्वैत वेदान्त के सिद्धान्त को प्राथमिकता से स्थापित किया। उन्होंने धर्म के नाम पर फैलाई जा रही तरह-तरह की भ्रांतियों को मिटाने का काम किया। सदियों तक पंडितों द्वारा लोगों को शास्त्रों के नाम पर जो गलत शिक्षा दी जा रही थी, उसके स्थान पर सही शिक्षा देने का कार्य आदि शंकराचार्य ने ही किया। आज शंकराचार्य को एक उपाधि के रूप में देखा जाता है, जो समय-समय पर एक योग्य व्यक्ति को सौंपी जाती है। आदि गुरु शंकराचार्य ने हिंदू धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए चार अगल दिशाओं में चार मठों की स्थापना की। भगवद्गीता, उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी हुई इनकी टीकाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। इन्होंने अनेक विधर्मियों को भी अपने धर्म में दीक्षित किया था। इन्होंने ब्रह्मसूत्रों की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है। आदि शंकराचार्य ने हिन्दुओं को संगठित करने के लिए सबसे पहले दक्षिण दिशा में तुंगभद्रा नदी के तट पर श्रंृगेरी मठ की स्थापना की। यहां के देवता आदिवाराह, देवी शारदाम्बा, वेद यजुर्वेद और महावाक्य ‘अहं ब्रह्यस्मि’ है। सुरेश्वराचार्य को मठ का अध्यक्ष नियुक्त किया। इसके बाद उन्होंने उत्तर दिशा में अलकनंदा नदी के तट पर बद्रिकाश्रम (बद्रीनाथ) के पास ज्योतिर्मठ की स्थापना की जिसके देवता श्रीमन्नारायण तथा देवी श्रीपूर्णगिरि हैं। यहां के संप्रदाय का नाम आनंदवार, वेद अर्थवेद तथा महावाक्य ‘अयमात्मा ब्रह्य’ है। मठ का अध्यक्ष तोटकाचार्य को बनाया। पश्चिम में उन्होंने द्वारकापुरी में शारदा मठ की स्थापना की जहां के देवता सिद्धेश्वर, देवी भद्रकाली, वेद, सामवेद और महावाक्य ‘तत्वमसि’ है। इस मठ का अध्यक्ष हस्तमानवाचार्य को बनाया। उधर पूर्व दिशा में जगन्नाथ मठ, जहां की देवी विशाला, वेद ऋग्वेद और महावाक्य ‘प्रज्ञान ब्रह्य’ है। यहां उन्होंने हस्तामलकाचार्य को मठ का अध्यक्ष बनाया। इस प्रकार शंकाराचार्य ने अपने सांगठनिक कौशल से संपूर्ण भारत को धर्म एवं संस्कृति के अटूट बंधन में बांधकर विभिन्न मत-मतांतरों के माध्यम से सामंजस्य स्थापित किया। आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों में निष्णात हो गए, बारह वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों में पारंगत, सोलह वर्ष की आयु में शांकरभाष्य तथा बत्तीस वर्ष की आयु में शरीर त्याग दिया। ब्रह्मसूत्र के ऊपर शांकरभाष्य की रचना कर विश्व को एक सूत्र में बांधने का प्रयास भी शंकराचार्य के द्वारा किया गया है, जो कि सामान्य मानव से सम्भव नहीं है। शंकराचार्य के दर्शन में सगुण ब्रह्म तथा निर्गुण ब्रह्म दोनों का हम दर्शन कर सकते हैं। निर्गुण ब्रह्म उनका निराकार ईश्वर है तथा सगुण ब्रह्म साकार ईश्वर है। जीव अज्ञान व्यष्टि की उपाधि से युक्त है। तत्त्वमसि तुम ही ब्रह्म हो; अहं ब्रह्मास्मि मैं ही ब्रह्म हूं; अयामात्मा ब्रह्म यह आत्मा ही ब्रह्म है; इन बृहदारण्यकोपनिषद् तथा छान्दोग्योपनिषद वाक्यों के द्वारा इस जीवात्मा को निराकार ब्रह्म से अभिन्न स्थापित करने का प्रयत्न शंकराचार्यजी ने किया है। ब्रह्म को जगत् के उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय का निमित्त कारण बताया हैं। ब्रह्म सत् (त्रिकालाबाधित) नित्य, चैतन्यस्वरूप तथा आनंद स्वरूप है। ऐसा उन्होंने स्वीकार किया है। जिस युग में आदि शंकराचार्य ने जन्म लिया उस समय देशी-विदेशी प्रभावों के दबाव में भारतीय संस्कृति संक्रमण के दौर से गुजर रही थी और उसका पतन आरंभ हो गया था। उन्होंने भयाक्रांत और धर्म विमुख जनता को अपनी आध्यात्मिक शक्ति और संगठन युक्ति से संबल प्रदान किया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘आदि शंकर जन्म भूमि क्षेत्रम’ में प्रार्थना करते हुए कहा कि आने वाली पीढ़ियां संत-दार्शनिक आदि शंकराचार्य द्वारा हमारी संस्कृति की रक्षा में दिए योगदान की ऋणी रहेंगी। उन्होंने भारत के हर कोने में वेद-वेदांत का प्रसार कर सनातन परंपरा को सशक्त एवं सुदृढ़ किया। दिव्य ज्ञान से आलोकित उनका संदेश देशवासियों के लिए सदैव पथ-प्रदर्शक बना रहेगा। पूर्व राष्ट्रपति एवं दार्शनिक डॉ. राधाकृष्णन ने उन्हें प्राचीन परंपरा का भाष्यकार आचार्य बताते हुए लिखा है कि देश के अन्य भाष्यकारों की तरह अपने अध्ययन में उन्होंने कभी भी किसी प्रकार की मौलिकता का दावा नहीं किया। भारत में आदि शंकराचार्य के प्रयास से एक ऐसे आंदोलन का आविर्भाव हुआ जो सनातन वैदिक धर्म को उसकी अस्पष्टताओं और असंगतियों से निकालकर स्पष्ट तथा सर्वसाधारण के लिए स्वीकार्य बनाना चाहता था। उनकी शिक्षा का आधार उपनिषद थे। उनके द्वारा स्थापित मठों की उपासना पद्धतियां सरल है। वेदांत के विरोधियों से शास्त्रार्थ करने के उनके उत्साह के कारण देश के विभिन्न दार्शनिक केंद्रों में जो जड़ता आई थी उनमें एक नए विचार-विमर्श की प्रेरणा आरंभ हुई। शंकर द्वारा स्वीकृत दर्शन तथा संगठन बौद्धों के दर्शन और संगठन से मिलते-जुलते थे। आदि शंकराचार्य ने भारत में बढ़ते विभिन्न मतों पर उन्हीं की पद्धति से अपनी वैचारिक श्रेष्ठता सिद्ध की और सनातन वैदिक धर्म की पुनरुत्थान किया। ईएमएस / 01 मई 2025