लेख
01-May-2025
...


लोकतंत्र में सरकार के काम-काज पर पैनी नजर रखने का काम विपक्ष के पाले में आता है। सरकार की गलतियों और खामियों को उजागर करते हुए जनहितैषी मुद्दों को समय-समय पर उठाते रहने की जिम्मेदारी विपक्ष की होती है। ऐसा करते हुए विपक्ष जनसामान्य में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का काम करता है, ताकि चुनाव के दौरान इसी आधार पर वह वोट मांग सके। जो विपक्ष ऐसा करने में असफल रहता है, उसे जनता नकार देती है और फिर वो राजनीतिक गलियारे के हाशिये में पहुंच जाता है। विपक्ष को फेल साबित करने के लिए सरकारें भी साम, दाम, दंड-भेद का इस्तेमाल करती आई हैं। सियासी शतरंजी चालों से विपक्ष के मुद्दों को हथिया लेना और उन्हें मुद्दाविहन कर असहाय बना देना सरकारों का शगल रहा है। इसलिए ईमानदार विपक्ष को सदा से ही जनहितैषी मुद्दों की दरकार रहती आई है। ताकि वो सरकार को घेर सकें और अपनी मांगे मंगवा सकें। इसी आधार पर कांग्रेस पार्टी और अन्य कुछ विपक्षी दल काफी लंबे समय से देश में जाति जनगणना कराने की मांग उठाते रहे हैं। पिछले कुछ समय से तो कांग्रेस सांसद और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी प्रत्येक मंच से देश में जाति जनगणना कराए जाने वाले मुद्दे को प्रमुखता से उठाते चले आ रहे हैं। अब चूंकि इसी साल बिहार विधानसभा चुनाव होने हैं, अत: इस प्रभावी मुद्दे को विशेष तौर पर सियासी धार दिए जाने का काम हो रहा था। विपक्ष की इस चाल को मोदी सरकार और भाजपा ने समय रहते भांप लिया और विपक्ष की मांग को एक तरह से मानकर उनके हाथ से इस अहम मुद्दे को भी छीन लिया है। यह अलग बात है कि अब इसका श्रेय लेने की होड़ भी मच गई है। यहां बताते चलें कि केंद्र सरकार ने अप्रत्याशित तौर पर जाति जनगणना कराए जाने का फैसला लिया है। मतलब आम जनगणना जो होगी उसी में इसे जोड़ दिया जाएगा। इस प्रकार मोदी सरकार पहले तो इस मुद्दे से बचती रही, फिर विपक्ष के दबाव और राजनीतिक मजबूरियों के चलते यह निर्णय लिया। बावजूद इसके यह सवाल अनुत्तरित है कि जनगणना कब होगी और इसके आंकड़े सार्वजनिक किए जाएंगे या नहीं? यदि मोदी सरकार जाति जनगणना करा पाती है और इसके आंकड़े भी सार्वजनिक करते हुए जारी करती है तो स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह काम पहली बार होगा। यहां बताते चलें कि इससे पहले ऐतिहासिक तौर पर अंग्रेजी शासनकाल 1931 में जातिगत जनगणना करवाई गई थी। इसे आधार बनाकर बताया गया था कि देश में कुल 4,147 जातियां दर्ज की गईं। इस जनगणना के आंकड़ों को आधार बनाकर मंडल कमीशन ने 1980 में पिछड़ी जातियों को आरक्षण का लाभ देने की रिपोर्ट पेश की थी। मंडल आयोग की इस रिपोर्ट को 1991 में वीपी सिंह सरकार ने लागू करने का काम किया। इसके बाद साल 2011 में भी जाति जनगणना करवाई गई, लेकिन तब इसके आंकड़े सरकार ने जारी नहीं किए। बहरहाल अब मोदी सरकार ने जातीय जनगणना कराए जाने का फैसला तो ले लिया, लेकिन संघ और भाजपा को यह डर अब भी सताए जा रहा है कि ऐसा करने से उनका बृहद हिंदुत्व का एजेंडा कहीं पीछे न छूट जाए। दरअसल 1931 की रिपोर्ट और मंडल कमीशन के रिसर्च से यह सामने आया था कि देश में पिछड़े वर्ग की आबादी 54 फीसद है। अब यदि जातीय जनगणना होती है तो यह आंकड़ा और भी बढ़ सकता है, ऐसे में राजनीतिक समीकरण बदल भी सकते हैं। इसके बाद हो सकता है कि संघ और भाजपा का हिंदुत्व वाला मुद्दा भी हाशिये पर चला जाए और विपक्ष इसका बेजा लाभ ले आगे निकल जाए। दिलचस्प बात तो यह है कि जातीय जनगणना को लेकर केंद्र सरकार कभी स्पष्टत: खुलकर विरोध में खड़ी थी। सुप्रीम कोर्ट में भी इसके खिलाफ दलीलें दी गईं थीं, लेकिन अब वही मोदी सरकार इसे अपनाने की तैयारी में दिख रही है। इसका कारण साफ है, कि बिहार विधानसभा चुनाव में विपक्ष, खासकर आरजेडी और कांग्रेस, जातीय जनगणना को एक प्रमुख मुद्दा बना रहे थे। राहुल गांधी ने तो इसे पिछड़ों की पहचान और हक की लड़ाई का नाम दे दिया था। अब जब केंद्र सरकार ने खुद जातीय जनगणना कराने का संकेत दिया है, तो विपक्ष का यह बड़ा चुनावी हथियार अप्रभावी हो सकता है। यह राजनीतिक चाल न केवल बिहार, बल्कि पूरे देश में सामाजिक समीकरणों को प्रभावित कर सकती है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, जो कभी विपक्ष के गठबंधन इंडिया के संयोजक बनने की कोशिश कर रहे थे, अब मोदी के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। इससे यह भी संकेत मिलता है कि बीजेपी नीतीश की नीतियों को अपनाकर बिहार में जातीय आधार पर मतदाताओं को साधने की कोशिश कर रही है। अब देखना यह होगा कि मोदी सरकार बिहार चुनाव से पहले विपक्ष को मुद्दा विहीन करने में सफल हो पाती है या नहीं। खासतौर पर तब जबकि कांग्रेस व अन्य प्रमुख विपक्षी दलों ने देश में संविधान बचाओ आंदोलन जो चला रखा है। ईएमएस / 01 मई 25