02-May-2025
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भोपाल (ईएमएस)। बाहर की अपवित्रता हमें नजर आती है, लेकिन असली अपवित्रता हमारे मन वाणी और व्यव्हार की अशुद्धि है,बाहर से हम कितने ही पूजा पाठ,वृत उपवास करलें, यदि हमारे अंदर काम, क्रोध, लोभ, मोह की दुरप्रवत्तियां पनप रही है, तो वंहा भावनाओं की सड़ांध होगी,और जंहा भावनाओं सड़ांध होगी वंहा हम स्वस्थ नही रह सकते उपरोक्त उदगार मुनि श्री प्रमाणसागर महाराज ने अवधपुरी में चल रही प्रवचन श्रंखला में व्यक्त किये। मुनिसंघ प्रवक्ता अविनाश जैन विद्यावाणी ने बताया मुनि श्री के दिव्य बचन प्रतिदिन नकारात्मक शव्दों पर चल रहे है मुनि श्री ने अपवित्रता विषय पर दिव्य बचनों के माध्यम से कहा कि मन वाणी और व्यवहार की अपवित्रता को पहचान कर उसे दूर करने का पुरुषार्थ करना चाहिये, मुनि श्री ने कहा कि तन की अपवित्रता तो बाहर के जल से साफ हो सकती है,लेकिन मन की अपवित्रता को दूर करने के लिये पवित्र भावनायोग करना होगा जिससे मन में विद्वेष, वासना,लोभ, ईष्या, वैमनस्य,छल, कपट को नष्ट किया जा सके मुनि श्री ने कहा कि विक्रतियां हम पर हांवी रहेंगी तब तक हम स्वस्थ जीवन जीने के आधिकारी नहीं बन सकते,उन्होंने कहा कि मन की आसक्ति और लिप्सा को मिटाने के लिये हमें नियमित भावनायोग का अभ्यास करना चाहिये। उन्होंने कहा कि भावनायोग में जैसा हम चाहते हैतथा महसूस करते है बैसा ही हमारा जीवन वन जाता है मनोविज्ञान कहता है कि आपके द्वारा देखने,सुनने और महसूस करने वाली सभी घटनाएं और संस्कार हमारे अवचेतन मन में अंकित हो जाती है,और यही अवचेतन मन हमारे चेतन मन से प्रकट होकर हमारे व्यक्तित्व में ढल जाता है, उन्होंने कहा मन को अपवित्र करने वाले संसर्ग से बचिये। समस्या के कारण का निवारण हो जाऐगा तो समस्या भी हल हो जाऐगी। मुनि श्री ने कहा कि शरीर की अशुचिता और आत्मा की पवित्रता के भेद को समझना होगा,तव तक हमारी आत्मा अपवित्र रहेगी तबतक हमारे अंदर पवित्रता नहीं आ सकती। भगवान महावीर कहते है धर्म पवित्र हृदय में ही वसता है,मन की मलिनता धर्म की तेजस्विता को मंद कर देती है,मुनि श्री ने कहा कि बाहर से भले ही सफेद पोश बने रहो यदि आपका जीवन अपवित्र है तो उनके अंदर आत्मग्लानी होगी जिसका मन अपवित्र होगा वह लोभ और लालसा से भरा होगा अपवित्र मन सदैव असंतुष्ट रहता है।जो खुद बुरा सोचता है वह दूसरों को भी बैसा मानता है वह कभी किसी को सम्मान नहीं दे पाता दूसरों की अच्छाइयों का आभार प्रकट नहीं कर पाता उससे उसके किसी के साथ सम्वंध नहीं रह पाते मुनि श्री ने कहा कि में शुद्ध आत्मा हुं में पवित्र आत्मा हुं, पवित्रता मेरा स्वभाव है पवित्रता मेरा धर्म है इन बोध बाक्यों को बार बार दौहरायेंगे तो आपके भावों को शुद्ध करने में निमित्त बनेगा विना भावना की साधना सिद्धि में नहीं बदल सकती, बार बार किसी बात को दौहराने से अंदर की दुर्वलता समाप्त हो जाती है। धर्मेन्द्र, 02 मई, 2025