मध्य प्रदेश की भोपाल गैस त्रासदी को आखिर दुनियां कैसे भूल सकती है। तब यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड के कीटनाशक संयंत्र से मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का रिसाव हुआ था। इसमें हजारों लोगों की जान चली गई और लाखों लोग प्रभावित हुए। आज भी इस भयानक औद्योगिक त्रासदी को याद कर लोग सिहर उठते हैं। इस त्रासदी के अवशेष आज भी लोगों को परेशान किए हुए हैं। इस भयावह घटना से सबक लेते हुए बाद की सरकारों ने कभी कोई ऐसे औद्योगिक संयंत्र या उसकी इकाई को विदेशी दबाव में लगाने या शुरु करने की इजाजत नहीं दी, जिससे दोबारा इस तरह की कोई त्रासदी सामने आए। समय व्यतीत होने के साथ वर्तमान सरकार शायद इसे भूल गई। यही वजह है कि अब परमाणु बिजली जैसे निर्णय लेने पर वह मजबूर है। ईश्वर न करे कि आने वाले समय में फिर यह दिन भारत के लोकतांत्रिक और जनहितकारी इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में याद किया जाए। दरअसल भारत सरकार ने विदेशी कंपनियों के दबाव में आकर जो नया फैसला लिया है, वह देश की सुरक्षा, पर्यावरण और नागरिकों के जीवन के लिए गंभीर खतरा बन सकता है। इस अंदेशे के साथ यह भी रेखांकित किया जा रहा है कि सरकार ने परमाणु बिजली संयंत्रों में दुर्घटना की स्थिति में विदेशी कंपनियों को मुआवजे की जिम्मेदारी से पूरी तरह मुक्त कर दिया है। अब यदि कोई परमाणु हादसा होता है, तो उसका पूरा भार सरकारी कंपनी और भारतीय करदाताओं के ऊपर पड़ेगा। यहां बताते चलें कि 2010 में पारित सिविल लायबिलिटी फॉर न्यूक्लियर डैमेज एक्ट के अनुसार, परमाणु संयंत्र ऑपरेटर को 1500 करोड़ और सरकार को 1100 करोड़ रुपये तक मुआवजे की जिम्मेदारी दी गई थी। हालांकि यह राशि भी किसी गंभीर परमाणु दुर्घटना के लिए बेहद कम थी। 2011 के फुकुशिमा हादसे में जापान को 16 लाख करोड़ रुपये से अधिक का खर्च उठाना पड़ा था। बावजूद इसके, अब सरकार ने कंपनियों को पूरी तरह जिम्मेदारी से मुक्त कर, भारतीय नागरिकों को जोखिम में डालने वाला कदम उठाया है। भारत में पहले से ही 23 परमाणु संयंत्र कार्यरत हैं, जो सरकारी निगरानी में चलते हैं। परंतु अब अमेरिका, फ्रांस और रूस की पुरानी तकनीक को भारत में डंपिंग ग्राउंड की तरह उतारा जा रहा है। ये कंपनियां भारत को एक बाजार की तरह देख रही हैं, जहां सुरक्षा और जवाबदेही की अनदेखी कर मोटा मुनाफा कमाया जा सकता है। जयतापुर और कुडनकुलम जैसे भूकंप संभावित क्षेत्रों में संयंत्र स्थापित करना एक खतरनाक प्रयोग है। इस पूरी प्रक्रिया में सबसे चिंता की बात यह है कि सरकार ने यह फैसला बिना संसद में चर्चा के, जनता को अंधेरे में रखकर लिया है। पोस्ट फैक्टो क्लीयरेंस जैसे नियम लागू कर दिए गए हैं, जिसमें पर्यावरणीय अनुमति संयंत्र स्थापित होने के बाद ली जाती है। यह व्यवस्था पारदर्शिता और उत्तरदायित्व को समाप्त करती है। परमाणु ऊर्जा की आर्थिक तर्कसंगतता भी सवालों के घेरे में है। जहां सौर ऊर्जा 2 से 3.5 रुपये प्रति यूनिट और कोयला आधारित बिजली 4 से 6 रुपये में उपलब्ध है, वहीं परमाणु बिजली की लागत 9 से 12 रुपये प्रति यूनिट तक होती है। संयंत्र निर्माण में 10 से 15 वर्ष लगते हैं, जबकि सौर या थर्मल संयंत्र 1 से 2 साल में तैयार हो जाते हैं। इसमें पर्यावरणीय खतरा भी कम नहीं है। परमाणु कचरे को निष्प्रभावी करने में हजारों वर्ष लगते हैं, और यह जमीन, जल और समुद्री जीवन को स्थायी रूप से नुकसान पहुंचाता है। जब दुनिया के देश—जर्मनी, जापान और इटली—परमाणु ऊर्जा से दूरी बना रहे हैं, भारत में इसके विस्तार को जनविरोधी और आत्मघाती नीति माना जा रहा है। भारत सरकार को चाहिए कि वह जनता के स्वास्थ्य, सुरक्षा और पर्यावरणीय स्थिरता को प्राथमिकता दे, और विदेशी दबाव के बजाय वैज्ञानिक विवेक और लोकहित को ध्यान में रखकर निर्णय ले। देश विकास करे लेकिन विकास के नाम पर आत्मघाती कदम उठाए जाएं कहां तक उचित है? ईएमएस / 20 मई 25