लेख
27-May-2025
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शिक्षा को राष्ट्र निर्माण की आधारशिला कहा गया है। यह व्यक्ति के ज्ञान, विवेक, सृजनात्मकता और व्यक्तित्व विकास का माध्यम रही है। लेकिन आज की तारीख में यह उद्देश्य कहीं पीछे छूट गया है। शिक्षा अब एक ‘अंक-उद्योग’ में तब्दील हो चुकी है, जहां ज्ञान की बजाय नंबर ही सफलता का पर्याय बन गए हैं। अब यह न तो चरित्र निर्माण का साधन रही, न ही सामाजिक चेतना का उपकरण। यह छात्रों, अभिभावकों और शिक्षकों को अंक-दौड़ की एक अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा में धकेलने वाला शोषण तंत्र बन गई है। ताजा आंकड़ों पर नजर डालें तो सीबीएसई की 10वीं की परीक्षा में इस बार 45,516 छात्रों ने 95 फीसदी से ज्यादा अंक प्राप्त किए, जो कुल परीक्षार्थियों का लगभग 1.92 प्रतिशत है। वहीं 1,99,944 छात्रों ने 90 फीसदी से ज्यादा अंक हासिल किए, जो 8.43 प्रतिशत के करीब है। यह कोई अपवाद नहीं है हर साल यह आंकड़ा और ऊपर जा रहा है। लेकिन जब इन अंकों की असलियत जानने के लिए उत्तर पुस्तिकाएं जांचने वाले शिक्षकों की कार्यप्रणाली और मूल्यांकन प्रणाली पर सवाल उठते हैं, तो व्यवस्था मौन हो जाती है। यह एक साजिशन खड़ा किया गया भ्रमजाल है, जो शिक्षा को स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की बजाय एक कृत्रिम दौड़ में तब्दील कर रहा है। शिक्षा के इस व्यवसायीकरण की गहराई को समझने के लिए जरूरी है कि हम उस ढांचे को देखें जिसमें यह सब संचालित हो रहा है। 2019 में सीबीएसई से मान्यता प्राप्त कुल 22,030 स्कूलों में से लगभग 80 प्रतिशत स्कूल निजी क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं। इस आंकड़े में केवल 1,138 केंद्रीय विद्यालय, 2,727 सरकारी स्कूल, 598 नवोदय विद्यालय और 14 तिब्बती स्कूल शामिल हैं, जबकि शेष 17,553 निजी स्कूल हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा का एक बड़ा हिस्सा निजीकरण के दबाव में है, जहां शिक्षा की गुणवत्ता नहीं, बल्कि परिणामों की संख्या मायने रखती है और जब यही ‘अंकवीर’ छात्र राष्ट्रीय प्रतियोगी परीक्षाओं जैसे यूपीएससी, जेईई या नीट में पहुंचते हैं, तो उनकी वास्तविक योग्यता सामने आ जाती है। उदाहरण के लिए, यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा 2019 में लगभग 11.35 लाख उम्मीदवारों ने आवेदन किया था, जिनमें से मात्र 11,474 छात्र ही मुख्य परीक्षा तक पहुंच सके। यही हाल साल 2024 का रहा। इस वर्ष लगभग 13.4 लाख छात्रों में से सिर्फ 14,627 उम्मीदवार मुख्य परीक्षा तक पहुंचे। यानि बोर्ड परीक्षा के हाई स्कोरर प्रीलिम्स की पहली कसौटी पर ही फेल हो जाते हैं। यह दर्शाता है कि बोर्ड परीक्षाओं में मिलने वाले ऊंचे अंक असल में बौद्धिक क्षमता या विषय की समझ का पैमाना नहीं हैं। यह मूल्यांकन प्रणाली रटंत विद्या, तयशुदा उत्तरों और सजावटी भाषा पर आधारित है, जिसमें मौलिक सोच और विश्लेषण की कोई जगह नहीं। यह समस्या केवल स्कूली शिक्षा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह मानसिकता पूरे उत्तर भारत के शैक्षणिक वातावरण में व्याप्त है। स्कूलों में अब शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान देना नहीं, बल्कि अच्छे परिणामों के जरिए स्कूल का नाम रौशन करना बन गया है। इसके उलट, दक्षिण भारत की तस्वीर अपेक्षाकृत बेहतर है। वहां के माता-पिता शिक्षा को केवल अंक पाने के माध्यम के रूप में नहीं, बल्कि व्यक्तित्व विकास और कौशल निर्माण के रूप में देखते हैं। यही कारण है कि तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक जैसे राज्यों के छात्र राष्ट्रीय परीक्षाओं में निरंतर बेहतर प्रदर्शन करते हैं। वहां की शिक्षा प्रणाली में केवल परीक्षाफल नहीं, बल्कि सोचने-समझने की क्षमता, व्यवहारिकता और नवाचार को भी महत्व दिया जाता है। उत्तर भारत के अधिकतर स्कूलों में शिक्षण अब गाइडबुक, मॉडल पेपर और स्मार्ट आंसर पर आधारित हो गया है। शिक्षक भी केवल परिणाम उन्मुख होकर पढ़ाते हैं, क्योंकि उनके मूल्यांकन का आधार भी अब बच्चों के अंक बन गए हैं। इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम बच्चों की मानसिक स्थिति पर पड़ता है। नंबर की होड़ में बच्चों में अवसाद, आत्महत्या की प्रवृत्ति, हीन भावना और मानसिक तनाव बढ़ रहा है। शिक्षा अब ज्ञान प्राप्त करने का साधन नहीं, बल्कि एक दौड़ बन गई है, जिसमें सबसे तेज दौड़ने वाला ही विजेता माना जाता है। यहां तक की कोचिंग टाउन बन चुके शहर कोटा, दिल्ली, पटना, प्रयागराज और इंदौर इस अंक-उद्योग की सबसे बड़ी मिसाल हैं। यहां छोटे-छोटे बच्चों से लेकर स्नातक विद्यार्थी तक ‘रैंक मशीन’ बनने के लिए दिन-रात खप रहे हैं। यह एक सामाजिक दबाव का परिणाम है, जो विशेष रूप से उत्तर भारत में डॉक्टर-इंजीनियर बनने की लीक पर चलता है। वहीं दक्षिण भारत में शिक्षा के विविध विकल्पों, व्यावसायिक दक्षता और कौशल विकास को भी उतना ही महत्व मिलता है। यह सोच का फर्क है, जो वहां के छात्रों को तकनीकी और प्रशासनिक क्षेत्रों में मजबूत बनाता है। विशेषज्ञ मानते हैं कि इस अंक-उद्योग की सबसे खतरनाक बात यह है कि यह छात्रों के भीतर सोचने, सवाल उठाने और नवाचार की प्रवृत्ति को कुचल देता है। शिक्षा का उद्देश्य विवेक, तर्क और संदेह की भावना का विकास था, पर अब यह केवल स्मृति और दोहराव पर आधारित हो गया है। मीडिया में टॉपर बच्चों के साक्षात्कार इस मानसिकता को और पुष्ट करते हैं, जहां दिन में 16 घंटे पढ़ना, दस साल के पेपर रटना और कई-कई किताबें घोंटना ही सफलता का मंत्र बताया जाता है। यह विचारणीय है कि क्या वास्तव में यही शिक्षा है? इस समस्या का समाधान केवल परीक्षा प्रणाली बदल देने से नहीं होगा। जब तक समाज की सोच नहीं बदलेगी, तब तक शिक्षा का यह विकृत रूप बना रहेगा। जब तक अभिभावक अंक को ही सफलता की कसौटी मानते रहेंगे, स्कूलों और शिक्षकों की प्राथमिकता भी वहीं रहेगी। ज़रूरत है एक नई शैक्षणिक संस्कृति की जहां असफलता को अवसर माना जाए, बच्चों की विविधता को अपनाया जाए और उन्हें आत्मविश्लेषण और आत्म-अनुशासन के मार्ग पर प्रेरित किया जाए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने इस दिशा में कुछ सकारात्मक पहलें की हैं, परंतु इन्हें जमीन पर लागू करना एक लंबी और कठिन प्रक्रिया है। अब समय है कि हम स्कूलों को रैंक उत्पादक मशीनों से बाहर निकालें। अभिभावकों को समझना होगा कि उनका बच्चा कोई अंकों का रिपोर्ट कार्ड नहीं, बल्कि एक सोचने, समझने और विकसित होने वाली मनुष्य-प्रवृत्ति है। शिक्षकों को भी पाठ्यक्रम पूरा कराने से आगे बढ़कर बच्चों में जिज्ञासा, कल्पनाशीलता और सामाजिक चेतना जगानी होगी। जब शिक्षा फिर से इंसान गढ़ने लगेगी, तभी यह राष्ट्र को सही अर्थों में शिक्षित बना पाएगी। (स्वतंत्र लेखिका एवं शोधार्थी) (यह ले‎खिका के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) .../ 27 मई /2025