(29 मई जन्म दिवस पर) शब्द साधक कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर जाने माने साहित्यकार तो थे ही साथ ही उन्होने पत्रकारिता के क्षेत्र में रिपोर्ताज विधा को जन्म देकर एक नया इतिहास रचा था। सादगी सम्पन्न जीवन के जीवन पर्यन्त हिमायती रहे प्रभाकर नीलाम किया गया, लेकिन उन्होने कभी हार नही मानी और वे अंग्रेजो के खिलाफ आखिर तक मोर्चे पर डटे रहे। जब मैं सहारनपुर के जेवी जैन कालेज से एलएलबी की पढाई कर रहा था ,तब रास्ते में कई बार कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर के टहलते हुए दर्शन हो जाते थे। मुझे देखते ही प्रभाकर के चेहरे पर चमक आ जाती और वे कहते थे कि श्रीगोपाल,जब भी मैं तुम्हे देखता हूं , मुझे अपने जवानी के दिन याद आ जाते है। मेरे कन्धों पर हाथ रखकर सडक पर ही धन्टों बतियाने वाले इस महान कलमकार की याद मेरे मानस पटल पर हमेशा रहेगी। प्रभाकर जी लेखन के क्षेत्र में मामूली से मामूली गलती को भी बर्दाश्त नही करते थे। वे कहते थे कि जो भी लिखों उसे बार बार पढों और तब तक पढकर फाडते रहों जब तक कि आप अपने लिखे से सन्तुष्ट न हो जाओं। एक बार मैने नववर्ष पर प्रभाकर जी को शुभकामना सन्देश भेजा। पोस्टकार्ड पर शुभकामना सन्देश की मोहर लगाकर भेजी गई थी। यह सन्देश यूं तो करीब डेढ सौ लोगो को भेजा गया था। परन्तु पत्र का जवाब प्रभाकर जी का ही आया, जिसमें उन्होंने मुझे जमकर डांट लगाई गई थी। दरअसल शुभकामना सन्देश में मोहर बनाने वाले ने मंगलकारी की जगह मंगलहारी छाप दिया था और मेरी गलती यह रही कि मै मोहर में हुई इस भयंकर गलती को देख नही पाया । इस पर प्रभाकर जी ने मुझे लिखा कि प्रिय श्री गोपाल,तुम्हारा नववर्ष का शुभकामना सन्देश मिला, जिसमें मंगलकारी के स्थान पर मंगलहारी छपा है मुझे मालूम है कि तुमने इस सन्देश में छपी गलती पर ध्यान नही दिया परन्तु यह एक अक्षमय अपराध है ,जिसे माफ नही किया जा सकता। अब मुझे डर है कि कही मेरा आने वाला साल मेरे लिए अशुभ न बन जाए।इस लिए इस गलती पर पश्चाताप करों और भविष्य में ऐसी पुनरावृत्ति न हो यह ध्यान रहे।प्रभाकर जी की यह डांट मेरे लिए जिंदगीभर का सबक बन गई। प्रभाकर जी मुझे अक्सर पत्र लिखते रहते और मेरा समय समय पर मार्गदर्शन भी करते। प्राय गर्मियों में मसूरी और सर्दियों में सहारनपुर रहने वाले प्रभाकर जी के लिए कलम प्राणवायु की तरह थी। कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर ने कई दर्जन पुस्तको को जन्म दिया। उनकी पुस्तको में कहानियों से लेकर निबन्ध तक और सस्ंमरणों से लेकर आजादी के इतिहास तक की झलक हिन्दी साहित्य को समृद्ध किये हुए है। वे कहा करते थे कि हमारा काम यह नही है कि हम इस विशाल देश में बसे चन्द ऐययाशो का फालतू समय चैन और खुमारी में काटने के लिए मनोरंजन साहित्य नाम का मयखाना हर समय खुला रखे। हमारा काम तो यह है कि हम इस विशाल और महान देश के कौने कौने में बसे जनसाधारण के मन में विश्रंलित वर्तमान के प्रति विद्रोह और भविष्य के निर्माण की कर्मशील भूख जगाये।तपती पगडंडिया,जिंदगी मुस्कराई,आकाश के तारे,दीप जले शंख बजे,धरती के फूल,क्षण बोले कण मुस्काए, जिंदगी लहराई,महंके आंगन,चहके द्वार और कारंवा आगे बढ जैसी पुस्तको के रचियता प्रभाकर को जहां भारत सरकार पे पदम श्री सम्मान से नवाजा वही उन्हे उ0प्र0 समेत विभिन्न राज्यों में भी उनकी साहित्य साधना के लिए सम्मानित किया गया। उनकी याद की लेखनी ने जहां अंग्रेजो के जमाने में अंग्रेजों के खिलाफ आग उगली वही साहित्य की पगडंडियों पर चलते हुए अपने समकालीन साहित्यकारों में एक बडा मुकाम भी हासिल किया।उनकी सादगी और अपने उपर कम खर्च कराने की आदत के कारण वे कई बार चर्चाओं में रहे। एक बार की बात है, जब मशहूर साहित्यकार कमलेश्वर दूरदर्शन के महा निदेशक हुआ करते थे। कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर उनसे मिलने दूरदर्शन के कार्यालय गए तो बातों ही बातों में कमलेश्वर ने पूछा कि क्या आपका वृत्त चित्र बना है। प्रभाकर जी द्वारा मना करने पर उन्होंने तुरंत अपने अधिनस्थों को बुलाया और प्रभाकर जी पर वृत्त चित्र तैयार करने के लिए फाइल तैयार करने को कहा। इतना होने पर प्रभाकर जी वापस सहारनपुर आ गए। कुछ दिनों बाद जब दूरदर्शन की टीम कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर का वृत्त चित्र तैयार करने सहारनपुर पहुंची तो प्रभाकर ने टीम के सदस्यों से पूछा कि इस वृत्त चित्र पर कितना खर्च आएगा। उन्हें बताया गया कि वृत्त चित्र पर छह लाख रूपये का बजट निर्धारित किया गया है। इतना सुनते ही प्रभाकर ने वृत्त चित्र बनवाने से मना कर दिया और कमलेश्वर को पत्र लिखकर कहा कि उनके वृत्त चित्र पर आने वाला खर्च देश के किन्ही भी दो गांव पर खर्च कर दिया जाए। ताकि कम से कम दो गांव का ही सही सर्वांगीण विकास तो हो। इस घटना से पता चलता है कि कलम के सिपाही कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर का दिल गांव के लिए किस कदर धडकता था। शैलियों के शैलीकार पदमश्री कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर को पत्रकारिता में रिपोर्ताज विद्या का अविश्कारक माना जाता है। 29 मई 1906 को देवबंद के मोहल्ला कायस्थवाडा में जन्मे कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर ने भारतीय साहित्य में छोटे छोटे वाक्य विन्याशों की शुरूआत की थी, थोडे शब्दों में बडी बात कह जाना उनके साहित्यक व्यक्तित्व का आईना था। प्रभाकर ने ब्राहमण वर्चस्व नामक पत्रिका के अतिथि संपादक के रूप में सन 1929 से पत्रकारिता जगत में अपना कदम बढाया था और विकास नामक पत्र के माध्यम से उन्होंने शोहरत की ऊंचाईयों को छुआ साथ ही उन्होंने विश्वास व नया जीवन जैसे कई पत्रों का संपादन भी किया। ब्रिटिश शासनकाल में अंग्रेजों के विरूद्ध अपनी लेखनी के माध्यम से लगातार जहर उगलने के कारण उनकी प्रेस को 9 बार में प्रति वर्ष उनके परिजन तो देश के किसी बडे साहित्यकार को शैलियो का शैलिकार प्रभाकर सम्मान देते ही है वही उनके साहित्य के क्षेत्र में डा0 महेन्द्रपाल काम्बोज ने भी प्रतिवर्ष तीन साहित्यिक विभूतियों को प्रभाकर शैलीकार संचेतना सम्मान देने की शुरूआत की थी परन्तु डा0 महेन्द्र पाल काम्बोज के निधन के बाद यह सम्मान आयोजन बन्द होकर रह गया है। वही हाल ही में उनके पुत्र अखिलेश प्रभाकर का 92 वर्ष की आयु में देहांत हुआ है,वे जीवन पर्यन्त अपने पिता कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर की यादों को संजोते रहे। (लेखक कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर के सानीदय में रहा वरिष्ठ साहित्यकार है) ईएमएस / 28 मई 25