- किस ओर जा रहा है न्याय तंत्र ? केन्द्रीय प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद दातार को समन भेजा । ईड़ी की यह कार्रवाई ना केवल दुर्भाग्यपूर्ण है। यह हमारे संविधान ओर लोकतंत्र को चुनौती देने जैसा है। यह मामला किसी आम प्रशासनिक चूक का नहीं है। बल्कि वकीलों की पेशेवर स्वतंत्रता और न्यायिक प्रक्रिया की पवित्रता पर सरकार और ईड़ी का सीधा हमला है। ईडी ने मुअक्किल को दी गई कानूनी सलाह से नाराज होकर, सुप्रीम कोर्ट में पैरवी करने वाले वकील को जांच के घेरे में लाकर धमकाने की कोशिश की है। यह सोच कितनी भयावह है, इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है। सरकार की एजेंसियां अब वकीलों और अदालतों को धमकाने का काम करने लगी हैं। जांच एजेंसी जब वकील से यह पूछें कि उसने अपने मुअक्किल को क्या राय दी है। इसे ईड़ी को बताया जाए। एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन ने ईडी की इस कार्रवाई पर सख्त आपत्ति की है। एसोसिएशन ने इसे न्याय प्रणाली को डराने और वकालत की स्वतंत्रता को कमजोर करने का कृत्य बताया है। जांच एजेंसियों की यह कार्यवाही अधिवक्ताओं और अदालतों के बीच में डर और भय फैलाने जैसी कार्यवाही की एक मिसाल है। ईडी और सरकार की कोई भी जॉच एजेंसी के खिलाफ अब हर वकील यह सोचेगा कि उसे सरकार के किसी एजेंसी के खिलाफ पैरवी करनी है, या नहीं। यदि उसने पैरवी की तो उसे जांच एजेंसी की प्रताणना का सामना करना पड़ेगा। उसे भी जांच एजेंसियां परेशान करेंगी। ईडी की इस कार्रवाई से कानूनी कार्यवाही में बकीलों के बीच में भय का माहौल बनाने का जो प्रयास ईड़ी द्वारा किया गया है। देश में इसकी बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया हुई है। सुप्रीम कोर्ट पहले ही ईडी की गिरफ्तारी और छापेमारी की शक्तियों पर समय-समय पर सवाल खड़ी कर चुकी है। ईड़ी अब वकीलों को निशाना बना रही है, जिसके कारण नागरिकों के मौलिक अधिकार भी अब संकट में पडते हुए दिख रहे हैं। न्याय व्यवस्था के लिए यह एक खतरनाक मोड़ है। इससे न केवल वकील, बल्कि हर नागरिक के उस अधिकार को खतरा उतपन्न हो गया है। जिसमें वह स्वतंत्र कानूनी सलाह ले सकता है। कोर्ट में आम आदमी अब अपने अधिकारों की लड़ाई भी नहीं लड़ सकता है। यह कार्यवाही उस समय की याद दिलाता है। जब 2019 में सीनियर एडवोकेट्स आनंद ग्रोवर और इंदिरा जयसिंह को निशाना बनाया गया था। दातार के खिलाफ जारी समन का विरोध होने पर ईड़ी ने समन भले वापस ले लिया है। लेकिन सवाल जस का तस है। सत्ता में बैठे लोग कानून को भय का हथियार बनाकर अब वकीलों को भी प्रताड़ित कर रहे हैं? क्या वकील भी अब स्वतंत्र नही रहे ? क्या न्यायपालिका स्वतंत्र रह गई है? पैरवी करने और फैसला करने वालों को ही सरकार कानून के कठघरे में खड़ा करेगी। तो आम नागरिको की क्या हालत होगी ? इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। इस घटनाक्रम के बाद जरूरी हो गया है, सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट और सभी बार काउंसिल मिलकर सरकार और उसकी जांच एजेंसियों की ऐसी प्रवृत्तियों को रोकने से सख्ती से आगे आएं। वकील और न्यायाधीश न्याय पालिका के दो पहिए हैं। दोनों ही न्यायपालिका के विशिष्ट अंग हैं। जब इनमें से किसी एक पर हमला होता है, तो न्यायपालिका और लोकतंत्र की गाड़ी डगमगाने लगती है। नागरिकों के संविधान प्रदत मौलिक अधिकार खतरे में पडने लगते हैं। न्याय के नाम पर अन्याय करने का जो काम सरकारें करती हैं। यदि इस तरीके की कार्यवाही को समय रहते नहीं रोका गया, तो आपातकाल से भी ज्यादा खराब तानाशाही की ओर ले जाने वाली कार्रवाई होगी। जांच एजेंसियों और सरकार की इस कार्रवाई के विरोध में वकीलों को आगे आना होगा, अन्यथा उनका भी कोई अस्तित्व नहीं रह जाएगा। अब तो वकील भी इसके शिकार होने लगे हैं। इससे गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है। 1975 का आपातकाल कानून के तहत लागू किया गया था। वर्तमान में आपात काल नहीं है। उसके बाद भी आपातकाल से ज्यादा तानाशाही और सरकारी प्रताणना आम नागरिकों को झेलना पड़ रही है। ईएमएस/18/06/2025