लेख
23-Jun-2025
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(स्मृति दिवस 24 जून पर) सरस्वती को ज्ञान की देवी कहा गया है। सरस्वती, प्रजापिता ब्रह्मा की पुत्री भी हैं और जगत अम्बा भी ,जिनके द्वारा परमात्मा, हरेक की इच्छाओं को पूर्ण करता है। इसी कारण जगदम्बा की पूजा होती है। जब जब भी चरित्र में गिरावट व विश्व में अशांति के बीज पनपने लगते हैं और संसार में दिव्यता की कमी, धर्म की ग्लानि होने लगती है।तब इन बुराइयों को समाप्त करने के लिए किसी न किसी महान विभूति का जन्म होता ही है। ऐसी ही एक महान विभूति हुई है ,मां जगदम्बा सरस्वती जिन्हें प्यार से सब मम्मा कहकर बुलाते थे।मम्मा का बचपन का नाम राधे था। मम्मा जन्म सन 1919 को पंजाब प्रांत के शहर अमृतसर में हुआ। लौकिक पिता पीकरदास और माता रोचा की वह लाडली थी। एक दिन अचानक राधे के पिता का देहांत हो गया और राधे अपनी मां व छोटी बहन के साथ सिंध हैदराबाद में अपनी नानी व मामा के घर आ गई। राधे की पढ़ाई हैदराबाद में ही हुई। राधे ने मैट्रिक स्तर तक की पढ़ाई की। उन्हीं दिनों ओम मंडली नामक एक सत्संग मण्डली का सत्संग दादा लेखराज के घर पर होता था। एक दिन राधे भी अपनी मां के साथ सत्संग में चली गई। उन्हें देखते ही दादा लेखराज को लगा कि यह तो उनकी वारिस बेटी है और राधे को भी लगा यह तो उनका बहुत काल से बिछुड़ा हुआ पिता है। दादा लेखराज उसी दिन से राधे को आलौकिक परमात्म ज्ञान की शिक्षा देने लगे।17 वर्ष की अल्पायु में ही मम्मा आध्यात्मिक रूप से परिपक़्व हो गयीं एवं ब्रह्माकुमारीज के यज्ञ की जिम्मेदारियों को अपने हांथों में ले लिया। एक बार जब ओम मंडली के विरुद्ध न्यायालय में केस चल रहा था, तब मम्मा ने आकर ऐसी गवाही दी जिससे न्यायाधीश भी मौन हो गये।मम्मा ने स्पष्ट किया कि किस प्रकार निराकार परमात्मा ने दादा लेखराज को माध्यम बनाया हुआ है और उनके द्वारा परमात्मा हम सबको पढ़ा रहे हैं। उन्होंने यह भी समझाया कि एक मनुष्यात्मा यह सत्य ज्ञान कैसे दे सकती है? परमात्मा ही आकर हमें पवित्र रहने की ( मन,वचन.कर्म में ) श्रीमत देते हैं। हर एक मनुष्य को अधिकार है कि वह अपने जीवन की दिशा एवं उद्देश्य स्वयं निर्धारित कर सके। उनकी अध्यात्म के प्रति लग्न को देखकर कुछ ही समय में राधे को सत्संग की संचालिका बना दिया और कुछ अन्य माताओं व कन्याओं को मिलाकर एक समिति बना दी। दादा लेखराज जो उस समय हीरो के व्यापारी थे,ने ईश्वरीय बोध होने पर अपना अकूत धन व चल-अचल सम्पत्ति इस समिति रूपी ट्रस्ट के नाम कर दी। जिससे 14 वर्षों तक संस्था का खर्च चलता रहा। इस समिति रूपी ट्रस्ट का नाम आगे चलकर प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय हुआ। मम्मा यानि राधे सर्व गुणों की खान और मानवीय मूल्यों की विशेषताओं से सम्पन्न थीं। मम्मा ने कभी किसी को मौखिक शिक्षा नहीं दी, बल्कि अपने जीवन के अनुभव से प्रेरणा दी। इसी से दूसरे के जीवन में परिवर्तन आ जाता था। मम्मा के सामने चाहे कितना भी विरोधी, क्रोधी, विकारी, नशेड़ी आ जाता, परन्तु मम्मा की पवित्रता, सौम्यता व ममतामयी दृष्टि पाते ही वह शांत हो जाता और मम्मा के कदमों में गिर जाता था। मम्मा की सत्यता, दिव्यता व पवित्रता की शक्ति ने लाखों कन्याओं के लौकिक जीवन को अलौकिकता में परिवर्तित कर दिया और उन कन्याओं ने अपना सीमित परिवार त्याग कर विश्व को अपना परिवार स्वीकार करके विश्व की सेवा में त्याग व तपस्या द्वारा जुटकर प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय के प्रति अपना जीवन समर्पित किया। मम्मा ने अपने जीवन के अनुभव से बहुत बड़ी सीख दी कि अपने जीवन को सफल बनाने के लिए व विश्व सेवा के लिए बीस नाखूनों की शक्ति लगा दो, तो सफलता अवश्य आपके हाथ आ जायेगी। मम्मा बहुत कम बोलती थीं और दूसरों को भी कम बोलने का इशारा करती थीं। उनका मानना था कि अधिक बोलने से हमारी शक्ति नष्ट हो जाती है। अपने ज्ञान, योग, पवित्रता के बल से विश्व की सेवा करते हुए मम्मा मां जगदम्बा सरस्वती ने 24 जून 1965 को अंतिम सांस लेते हुए अपने नश्वर शरीर का त्याग कर दिया और आत्म स्वरूप में परमात्मा की गोद ले ली। मम्मा की भूमिका ज्ञान यज्ञ में विशिष्ठ रही और यह भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो गयी जब 1950 में ओम मंडली, माउन्ट आबू में बस गयी। तब सम्पूर्ण भारत में सेवायें विस्तार को पाने लगीं। मम्मा ने सेवा पर जा कर अनेक नये- नये सेवाकेन्द्रों की स्थापना की। मम्मा ब्रह्माकुमारीज यज्ञ की अर्थ व्यवस्थापक थीं इसलिए वह मितव्यवता एवं उपयोगिता का संतुलन रखती थीं ,लेकिन उन्होंने कभी यज्ञ में आहुति को कम नही होने दिया ,तभी तो यह यज्ञ आज भी अनवरत जारी है। (लेखक आध्यात्मिक चिंतक व वरिष्ठ पत्रकार है) (यह लेखक के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है) .../ 23 जून /2025