भारतीय लोकतंत्र की आत्मा उसकी विविधता, समानता और न्यायप्रिय व्यवस्था में बसती है। पिछले कुछ वर्षों में लोकतंत्र की आत्मा एकाधिकार के खतरनाक रोग से ग्रसित हो चुकी है। क्रोनी पूंजीवाद वह स्थिति है, जब सत्ता और पूंजी का गठजोड़, नीति निर्धारण से लेकर संसाधनों के वितरण लोक तांत्रिक मूल्यों को दरकिनार कर सरकार के सहारे पूंजीवाद खड़ा हो जाता है। भारत में यह बीमारी धीरे-धीरे नहीं, बल्कि योजनाबद्ध तरीके से बड़ी तेजी के साथ फैलाई गई है। बड़े उद्योग पतियों और पूंजीपतियों को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है। जब सत्ता कुछ हाथों में कैद हो जाती है। ऐसी स्थिति में लोकतंत्र की परिभाषा बदल जाती है। सत्ता जब तक एक व्यक्ति के इशारे पर संचालित होने लगती है। उस समय कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका पर भी एक व्यक्ति का नियंत्रण हो जाने से जिस तरह की स्थिति 1975 में आपातकाल के समय बनी थी। कमोवेश वहीं स्थिति वर्तमान में देखने को मिल रही है। आम नागरिक विशेषकर गरीब, किसान, मजदूर, आदिवासी एवं मध्यम वर्ग हाशिए पर धकेल दिए गया है। किसानों की ज़मीन विकास के नाम पर जबरन अधिग्रहित की जा रही हैं। जंगलों में रहने वाले आदिवासियों को उनकी पारंपरिक ज़मीन से उजाडा जा रहा है। यह सब तथाकथित ‘विकास’ के नाम पर किया जा रहा है। सच्चाई यह है, यह विकास कुछ गिने-चुने औद्योगिक घरानों की तिजोरी भरने का माध्यम बन गया है। इसमें केंद्र एवं राज्य सरकारों का समर्थन और मिली भगत है। लोकतंत्र का उद्देश्य जहां सभी को समान अवसर और समान अधिकार देने का था। आज केंद्र एवं राज्य सरकारें दो तरह के नियम बनाती हैं। दो तरह की नीति का निर्माण करती हैं। एक गरीबों के लिए होती है। एक पूंजीपतियों के लिए होती है। केंद्र एवं राज्य सरकारों में पूंजीपतियों के हित सर्वोपरि हो गए हैं। राजनीतिक रसूखदारों और पूंजी पतियों की मिलीभगत से गरीबों की आवाज़, सरकार और प्रशासन द्वारा दबाई जा रही है। अब इस खेल में कहीं ना कहीं न्यायपालिका की भी भूमिका दिखने लगी है। न्यायपालिका में भी गरीबों के लिए अलग और अमीरों के लिए अलग नियम और निर्णय देखने को मिल रहे हैं। आम आदमी और मध्यम वर्ग को न तो समय पर न्याय मिल पाता है। न ही सरकारी योजनाओं का लाभ मिल पाता है। उनके भाग्य में केवल चक्कर काटना, तारीख पर तारीख लिखा रहता है। जब सरकारें नीतियां बनाती हैं। उस समय सिर्फ कॉरपोरेट लॉबी से सरकार और उनके अधिकारी सलाह लेते हैं। मजदूर संगठनों, किसान यूनियनों और जिस वर्ग के लिए कानून बनाए जाते हैं, उनको दरकिनार किया जा रहा है। यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर सीधा प्रहार है। मीडिया और डिजिटल प्रचार-तंत्र के ज़रिए आम जनता को भ्रमित किया जाता है। सही सूचानाएं आम आदमी तक नहीं पहुंच रही है। असली मुद्दों, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी और सामाजिक सुरक्षा से ध्यान हटाने के लिए तरह-तरह के प्रयास किए जाते हैं। पिछले एक दशक में एक पूरी पीढ़ी असमानता और अन्याय के माहौल में बड़ी हो रही है।उसे तरह-तरह की अफीम धर्म राष्ट्रीयता और सपनों के रूप में पिलाई जा रही है। तरह-तरह की नशे में उद्दलित युवा पीढ़ी अपने अच्छे और बुरे का ज्ञान नहीं रहा। ऐसी स्थिति में भारतीय संविधान और लोकतंत्र की जड़ें खोखली होने लगी हैं। अब वक्त आ गया है, क्रोनी पूंजीवाद के इस घातक गठजोड़ पर लगाम लगाई जाए। लोकतंत्र को केवल चुनावी प्रक्रिया तक सीमित नहीं किया जा सकता। चुनाव की निष्पक्षता तथा सभी राजनीतिक दलों को एक समान अवसर मिले। सभी राजनैतिक दल जनता तक अपनी बात जा सकें। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन सेशन ने इसका ध्यान रखा था। नीति निर्माण में जब तक सभी वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित नहीं होगी। गरीबों तथा मध्यम वर्ग की आवाज़ को शासन और प्रशासन में जगह नहीं मिलेगी। भारत का लोकतंत्र दिखावटी ढांचा ही बना रहेगा। असली ताकत सत्ता में बैठे हुए लोगों और पूंजीपतियों के हाथ में है। 1975 में आपातकाल के रूप में सत्ता की ताकत को के भारत की जनता ने 21 माह देखा था। कुछ उसी तरह के हालात क्रोनि पूंजीवाद के चलते पिछले एक दशक मैं आम जनता और मध्यम वर्ग को देखना पड़ रहे हैं। वर्तमान समय में सांसद और विधायक भी अपनी बात सांसद और विधानसभा में नहीं रख पा रहे हैं। इससे ज्यादा खराब स्थिति और क्या होगी। जनता को अपनी लड़ाई लड़ने के लिये स्वयं आगे आना होगा। ईएमएस/ 03 जुलाई 25