- जब कानून नहीं, तो किसके पास अधिकार? भारतीय लोकतंत्र में नागरिकता सिर्फ एक कानूनी दर्जा नहीं है। एक पहचान है, जो व्यक्ति को संविधान प्रदत्त अधिकारों, जिम्मेदारियों और गरिमा से जोड़ती है। जब यह अधिकार सरकार की मनमर्जी पर टिक जाए। अदालतें भी अलग-अलग राय देने लगें। तब सवाल उठता है, इस देश में जन्म लेने और नागरिकता के लिए सरकार के भरोसे रहना पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मदन बी. लोकुर की पुस्तक समीक्षा में इस संकट की तस्वीर सामने आई है। जो हमें सोचने को मजबूर करती है, भारतीय नागरिकता अब सरकार की दया’ पर निर्भर होगी। जस्टिस लोकुर ने अपनी किताब में असम एनआरसी, विदेशी ट्रिइब्यूनल्स और नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) जैसे मुद्दों पर गहराई से मंथन किया है। उनका तर्क है, नागरिकता जैसे मौलिक अधिकार को तय करने की कोई ठोस, पारदर्शी और समान मानक नहीं हैं। न्यायपालिका परस्पर विरोधी निर्णय दे रही है। यह स्थिति संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों और लोकतंत्र की आत्मा के लिए बडा घातक है। एक ही प्रकार के मामले में गुवाहाटी हाईकोर्ट ने नागरिक को विदेशी ठहरा दिया। सुप्रीम कोर्ट में उन्हीं तथ्यों पर उसे ‘भारतीय’ माना। ऐसे में यह सवाल जरूरी हो जाता है, क्या नागरिकता अब कोई ठोस संवैधानिक अधिकार है। अथवा सरकारों की मनमर्जी का औजार बन गया है। न्यायमूर्ति की पुस्तक में स्पष्ट संकेत है, राज्य अब नागरिक के प्रति जवाबदेही के स्थान पर नागरिक से ही प्रमाण मांग रहा है। निर्धन किसान, महिला, गरीब परिवार जो झुग्गी झोपड़ी में रहते हैं, बिना पढ़े लिखे हैं। एक बाढ़ में सब कुछ खो देते हैं। नागरिकता साबित करने के लिए सरकारी दस्तावेज़ एवं प्रमाण जुटाने के लिए दर-दर भटकता फिर रहा है। यह प्रशासनिक ही नहीं, नैतिक रूप से संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक विफलता है। नागरिकता की यह राजनीति सरकारी हिंसा है। जिसमें एक वर्ग को संदिग्ध, अवैध और ‘अन्य’ के रूप में चिह्नित कर प्रताड़ित किया जा रहा है। जस्टिस लोकुर ने अपनी पुस्तक में जिस तरह की चिंता व्यक्त की है। भारत में नागरिकता से जुड़े कानून जैसे नागरिकता अधिनियम, 1955 पुरानी पड़ चुकी है। राजनीतिक उद्देश्य साधने के लिए कानून की मनमाफिक व्याख्या की जा रही है। सीएए 2019 मे विशेष रूप से धर्म के आधार पर नागरिकता देने की बात करता है। यह संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता पर सीधा प्रहार है। इससे न सिर्फ मुसलमानों और अल्प संख्यकों की नागरिकता को लेकर डर फैला है। नागरिकता की धारणा भी धार्मिक पहचान में सिमट गई है। विभिन्न न्यायालयों में 1500 से अधिक नागरिकता के प्रकरणों में अलग-अलग निर्णय आए हैं। यह सभी निर्णय एक दूसरे के खिलाफ हैं। न्यायपालिका को नागरिकता जैसे मूलभूत अधिकार पर संवैधानिक दृष्टिकोण और त्वरित न्याय को अपनाना होगा। वर्तमान स्थिति को देखते हुए भारत मे राष्ट्रीय नागरिकता आयोग की आवश्यकता है। जो राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त होकर संविधान के अनुसार निष्पक्ष एवं पारदर्शी ढंग से नागरिकता तय करे। ‘नागरिकता’ कोई उपकार नहीं, यह प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध नागरिक होने का मौलिक अधिकार है। इसे प्रमाणित करने की ज़िम्मेदारी सरकार की है। जन्म तो भगवान की मर्जी से होता है। मां-बाप और जन्म लेने वाले को अधिकार नहीं होता है। वह किसको अपना बाप चुने। किस कुल और किस धर्म में जन्म ले। जहां जन्म लेता है, वह कर्म के आधार पर ईश्वर की मर्जी से जन्म लेता है। जन्मभूमि पर 84 लाख योनियों के जीवों का जन्मसिद्ध अधिकार है। जस्टिस लोकुर की किताब ने भारतीय लोकतंत्र, न्यायपालिका, धार्मिक और सामाजिक अस्थिरता, राज्य की मंशा और नागरिकों की असुरक्षा पर गंभीर मंथन किया है। अगर नागरिकता का आधार भरोसे के स्थान पर भय बनकर रह जायेगा? भारत से जाकर विदेशी नागरिकता लेने वाले जिस तरह पैसे के बल पर विदेशों में नागरिकता ले रहे हैं। ठीक उसी तरह अब भारतीय नागरिक बने रहने के लिए भारत की भ्रष्ट व्यवस्था के तहत जिनके पास पैसा है। वही भारत के नागरिक रह पायेगा? भारत में अब जन्म के साथ नागरिक अधिकार नहीं रहा। उदाहरण स्वरूप जिस तरह से बांग्ला भाषी भारतीय नागरिकों के साथ अन्य राज्यों में हो रहा है। उन्हें विदेशी नागरिक मानकर बंग्ला देश में खदेड़ा जा रहा है। वह इसका प्रमाण है। यदि यही स्थिति रही तो भारत में संघीय व्यवस्था पर भी आधात है। जो नये विभाजन की जमीन तैयार कर रहा है। यह चिंता का विषय है। ईएमएस / 28 जुलाई 25