(जन्मदिन 31 जुलाई पर विशेष) प्रेमचंद हिंदी पत्रकारिता के क्षितिज पुरूष थे।अपने लेखन में समाज के यथार्थ को लिखा है और यही एक साहित्यकार की जिम्मेदारी भी है। लेकिन समाज के यथार्थ को लिखते हुए प्रेमचंद ने कभी राष्ट्रीय अस्मिता का अनादर नहीं किया। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय साहित्यकारों, पत्रकारों में से थे, जिन्होंने असहमति का साहस और सहमति का विवेक विकसित करने के लिए समाज की विसंगतियों की पहचान की , साथ ही जनशक्ति को संगठित करने के लिए पत्रकारिता की उज्ज्वल मशाल भी जलाई। मौजूदा समय में प्रेमचंद की प्रासंगिकता और अधिक है। प्रेमचंद जब साहित्य की विभिन्न विधाओं -कहानी, उपन्यास, नाटक और दूसरी विधाओं में लिख रहे थे, देश अंग्रेजी दासता के खिलाफ एकजुट होकर लड़ रहा था। प्रेमचंद उस लड़ाई में कलम को हथियार बनाकर लड़ रहे थे। उस समय देश के नेताओं की तरह लेखक भी स्वतंत्रता पश्चात के भारत का स्वप्न देखते हुए यह सोच रहे थे कि अंग्रेजों से स्वाधीनता हासिल करने के बावजूद देश को बहुत सी समस्याओं से जूझना है। उन समस्याओं पर अगर अभी से विचार नहीं किया गया तो स्वाधीनता के बाद वे और विकाराल हो जाएंगी और देश गर्त में चला जाएगा। अंग्रेजों ने भारतीय समाज के पारस्परिक सौहार्द वाले स्वरूप को हिंदू-मुस्लिम के बीच फूट डालो और राज करो की नीति से पहले ही छिन्नभिन्न कर दिया था और उपर से भारतीय समाज की पहले से चली आ रही विभेदात्मक कुरीतियां उस ताने-बाने को और खत्म करने में लगीं थीं। इसलिए यह बहुत जरूरी था कि समाज को गहराई से शिक्षित किया जाए, जिससे आगे आने वाले समय की चुनौतियां का ठीक ढंग से मुकाबला किया जा सके। इसीलिए हम देखते हैं कि प्रेमचंद अपने समूचे साहित्य में लगातार समाज बदलने की बात कहते हैं और ऐसे पात्रों की रचना करते हैं जो भावी समाज के नायक हो सकते हैं। मुंशी प्रेमचंद ने इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए रचनात्मक लेखन के साथ पत्रकारिता भी की। प्रेमचंद ने आज से एक सौ बीस साल पहले (1905) जमाना में स्वदेशी का प्रचार कैसे बढ़ सकता है, शीर्षक से लंबी टिप्पणी लिखी थी। वह टिप्पणी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, क्योंकि स्वदेशी का अलख जगाने वाले और समाजवाद को ओढ़ने-बिछोने वाले, दोनों बराबर दूरी पर खड़े हैं, इसलिए खुली अर्थव्यवस्था और विनिवेश का अश्वमेघ जारी है। प्रेमचंद की पत्रकारिता इस अश्वमेघ के खिलाफ ललकार है। सांप्रदायिकता के खिलाफ तो वह शुरू से रहे ही। प्रेमचंद की पत्रकारिता की चर्चा कम हुई है। वे तीन दशक तक वह पत्रकारिता जगत में छाए रहे। स्वदेश, आज, मर्यादा आदि कपत्रों से वह संबद्ध रहे और असहयोग आंदोलन के जमाने में स्तंभकार के रूप में प्रसिद्ध थे। प्रेमचंद ने सक्रिय राजनीति में हिस्सा नहीं लिया, लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन में उनका योगदान किसी भी राजनेता से कम नहीं है। अपने समय की राजनीतिक घटनाओं पर प्रेमचंद की जागरूक निगाह बराबर बनी रही और उन घटनाओं पर वह निरंतर निर्भीक संपादकीय टिप्पणियां लिखते रहे। स्वराज और साम्राज्यवादी शोषण के सवाल पर उनका चिंतन अपने समय के राष्ट्रीय नेतृत्व से काफी आगे था। जिस दिन से भारतीय बाजार में विलायती माल भर गया, भारत का गौरव लूट गया, इस बात की प्रेमचंद ने न केवल पहचान की, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ अनवरत संग्राम भी किया। स्वराज मिलकर रहेगा (मई 1931) दमन की सीमा (अप्रैल 1932), काले कानूनों का व्यवहार (जनवरी 1933), शक्कर पर एक्साइज ड्यूटी (जुलाई 1933), कोढ़ पर खाज (जून 1935) जैसे शीर्षक से लिखी गई टिप्पणियां उनकी उपनिवेशवाद विरोधी चेतना के प्रमाण हैं। सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रथम चरण में जब राष्ट्रवादी चिंतन अपने उभार पर था, तब ब्रिटिश सरकार ने 1910 के प्रेस ऐक्ट की धाराओं को पुनर्जीवित कर, बल्कि पहले की अपेक्षा और अधिक बर्बर बनाकर न्यू इंडियन प्रेस आर्डिनेंस, 1930 पास किया, तो इस सरकारी दमन नीति का तीव्र विरोध सबसे पहले प्रेमचंद ने किया। उन्होंने लिखा, स्वेच्छाचारी सरकारों की बुनियाद पशुबल पर होती है। वह हर एक अवसर पर अपना पशुबल दिखाने का तैयार रहती है... यह बिलकुल नया अविष्कार है और इसके लिए इंग्लैंड और भारत, दोनों ही सरकारों की जितनी प्रशंसा की जाए, वह थोड़ी है। अब न कानून की जरूरत है न व्यवस्था की, काउंसिलें और असेंबलियां सब व्यर्थ, अदालतें और महकमें सब फिजूल। डंडा क्या नहीं कर सकता- वह अजेय है, सर्वशक्तिमान है। प्रेमचंद का हंस भी इस सरकारी दमन का शिकार हुआ और अपनी विरोधी चेतना की कीमत उन्हें पत्र बंद कर देने के रूप में चुकानी पड़ी। उन्होंने स्वयं जागरण जैसे अखबार निकाले और समय-समय पर राष्टीय, अंतर्राष्टीय विषयों पर संपादकीय और आलेख लिखे। अगर प्रेमचंद के इस प्रकार के लेखन का गहराई से विष्लेषण किया जाए तो आपको जानकर आश्चर्य होगा कि बहुत छोटी-छोटी घटनाओं पर भी उनकी नजर कितनी तेज होती थीं कि आज भी उनको पढ़ने पर समाज का आइना नजर आतीं हैं। आज हमारा सामाजिक तानाबाना किस कदर तितरबितर होता जा रहा है और धर्म, जाति, प्रदेश, भाषा और ना जाने कितने आधारों पर समाज विभाजित होता जा रहा है। ऐसे में हम जब प्रेमचंद के विचारों से गुजरते हैं तो हमें पता चलता है कि आजादी के 78 साल गुजरने के बाद भी हम वहीं खड़े हैं, बल्कि यूं कहें कि प्रेमचंद के निधन के 89 बरस बाद भी हालात वहीं के वहीं हैं। अप्रेल, 1931 में स्वार्थांधता की पराकाष्ठा शीर्षक अपनी एक टिप्पणी में प्रेमचंद ने एक घटना का उल्लेख किया है कि उत्तर प्रदेश के एक नगर में सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाने के उद्देष्य से एक मुस्लिम गुंडा कुरान शरीफ का एक पृष्ठ फाड़कर उसमें विष्ठा भरकर मस्जिद में फेंकने का प्रयास करते हुए पकड़ा जाता है और लोग उसकी जमकर मरम्मत करते हैं। प्रेमचंद लिखते हैं, इससे पता चलता है कि धार्मिक आघात पहुंचाकर किस भांति हिंदू-मुस्लिम विरोध की आग भड़काई जा सकती है। यह तो कल्पना ही न की जा सकती थी कि किसी मुसलमान ने यह हरकत की होगी, हिंदू ही पर शुबहा होता और हिंदुओं से बदला लेने की चेष्टा की जाती। हम स्वार्थांध होकर इतने नीचे गिर सकते हैं! अब आप आज के परिदृष्य पर नजर डालिए, इस प्रकार की कितनी घटनाएं हमारे सामने हैं? आज हमारे समाज इस प्रकार के गुंडा तत्व किस कदर हावी हो गए हैं? प्रेमचंद ने उस समय जिस प्रकार एक घटना का प्रतिकार किया था, आज हमारे लोगों में उस प्रकार के साहस का घोर अभाव दिखाई देता है। प्रेमचंद हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे और दोनों समुदायों के बीच फैली कई भ्रांतियों का उन्होंने अपने कई लेखों में निराकरण करने का प्रयास किया। उनका हिंदू-मुस्लिम एकता शीर्षक लेख इस्लाम के प्रचार के कारणों की तथ्यात्मक पड़ताल करते हुए हिंदू धर्म के बीच फैली असंख्य विसंगतियों को इसका मूल मानता है। इस लेख में प्रेमचंद गोमांस भक्षण, शिखा-धारण, उर्दू-हिंदी विवाद, पोषाक का सांप्रदायिक विभाजन, जातिवाद, छूआछूत आदि तमाम समस्याओं पर विचार करते हैं। एक अन्य लेख में वे अंग्रेज सरकार की सांप्रदायिक नीतियों की जबर्दस्त खिलाफत करते हुए कहते हैं, हमें यह दिखाना है-कि तुम चाहे हमें कितने ही टुकड़ों में बांटो, हम परवाह नहीं करते। हम एक राष्ट्र हैं। इस भेद-नीति से हमारी राष्ट्रीयता को कुचलना संभव नहीं है। प्रेमचंद 1933 में राहु के शिकार एक संपादकीय टिप्पणी में व्यंग्य करते हुए वे लिखते हैं, साल में दो-चार बार सूर्य और चंद्र पर राहु के हमले होते हैं, पर जिन पर हमले होते हैं, उनका तो बाल भी बांका नहीं होता, हां, सौ दो सौ आदमियों पर उनका क्रोध उतर जाता है। जिस पेट में सूर्य और चंद्र को निगल जाने की शक्ति है... वह सौ दो सौ को ही निगलकर संतोष कर लेता है, यह उसकी भलमनसी है। ग्रहण स्नान और सोमवती स्नान और लाखों तरह के स्नानों की बला हिंदुस्तान के सिर से कभी टलेगी भी या नहीं, समझ में नहीं आता। आज भी संसार में ऐसे अंधविष्वास की गुंजाइश है तो भारत में। प्रेमचंद की इस टिप्पणी को देखें और आज के हालात देखें, ऐसा नहीं लगता कि हम उसी युग में जी रहे हैं। हम जानते हैं, लेकिन प्रेमचंद जो लिखते हैं, वह आज के समाज पर भी लागू होता है। लाखों आदमी अपनी गाढे पसीने की कमाई खर्च करे, धक्के खाकर, पशुओं की भांति रेल में लादे जाकर, रेले में जानें गंवाकर, नदी में डूबकर स्नान करते हैं केवल अंधविश्वास में पड़कर। अजमेर में महर्षि दयानंद के निर्वाण की अर्धशती का आयोजन होना था। उस अवसर पर किए जाने वाले बहुत सारे खर्चों को लेकर मुंशी प्रेमचंद ने बहुत तल्ख टिप्पणी की थी। उन्होंने लिखा, हमें ज्ञात हुआ है कि वहां हवन में दस हजार खर्च करने का निश्चय किया गया है। देश में जब ऐसी आर्थिक दषा फैली हुई है कि करोड़ों मनुष्यों को एक वक्त सूखा चना भी मयस्सर नहीं, दस हजार का घी और सुगंध जला डालना न धर्म है, न न्याय। हम तो कहेंगे, यह समाज के प्रति अपराध है। क्या इस रूपये का इससे अच्छा कोई खर्च न निकाला जा सकता था?... धार्मिकता भी खास हालात में आपत्तिजनक हो जाती है। ।हमारा समाज भी बहुत असहिष्णु हो गया है, वह न तो आलोचना बर्दाश्त करता है और न ही आलोचक। एक समय था जब हिंदुओं के लिए विदेष यात्रा को पाप माना जाता था। इस किस्म के पाखण्डों के बारे में प्रेमचंद लिखते हैं, इसी पाखण्ड ने और इन्हीं पाखण्डियों ने भारत को चौपट किया और आज भी उनका वैसा ही पाखण्ड राज है। प्रेमचंद ने हिंदू समाज के वीभत्स दृष्य शीर्षक से तीन लेखों की एक शृंखला लिखी थी। इस लेखमाला में उन्होंने सबसे पहले हिंदू समाज में शवदाह प्रथा को लेकर कई गंभीर सवाल किये हैं। वे पूछते हैं कि हिंदू समाज में लाशों की ऐसी दुर्गति क्यों होती है? ऐसा लगता है जैसे मरने वाले के साथ किसी का कोई रिश्ता ही नहीं बचा, सब जल्द से जल्द जलाने और मुर्दे को कसकर बांधके भाग ले जाने को तैयार रहते हैं। प्रेमचंद इसी के साथ मृत्यु के साथ किए जाने वाले तमाम कर्मकांडों की तीखी आलोचना करते हुए प्रस्तावित करते हैं कि इसमें बदलाव होना चाहिए, तभी हम मृतात्मा के प्रति सच्चे मन से अपनी श्रध्दा व्यक्त कर सकेंगे। दूसरे लेख में प्रेमचंद ढोंगी साधुओं पर प्रहार करते हैं। वे लिखते हैं कि जिस देष पर एक करोड़ मूसलचंदों के भरण-पोषण का भार हो, वह न कंगाल रहे तो दूसरा कौन रहे! इसी प्रकार प्रेमचंद तीसरे लेख में मंदिरों को लेकर चिंता प्रकट करते हैं। मंदिरों की आड़ में होने वाले विभिन्न किस्म के पाखण्डों, भ्रष्टाचार और तमाम बुराइयों की वे जबर्दस्त आलोचना करते हैं। वे लिखते हैं, देश की दशा को भली-भांति देखते हुए, धर्म के आडम्बरों, उसकी रूढ़ियों और राक्षसी नियमों से मुक्त करके ही वे अपना, अपने धर्म का, अपने समाज तथा अपने द्वेष का सबसे बड़ा हित कर सकेंगे और जनता के दिलों में ऊंचा स्थान प्राप्त कर सकेंगे। (यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है) .../ 30 जुलाई /2025