राज्य
11-Aug-2025
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कोरबा (ईएमएस) हमारा स्वतंत्रता आंदोलन हमारे समृद्ध और गौरवशाली इतिहास का एक अहम् हिस्सा है, लेकिन असंख्य ऐसे नि:स्वार्थ, साहसी स्वतंत्रता सेनानी भी रहे हैं, जिनका योगदान उजागर नहीं हुआ या जिनकी अनदेखी की गई। इन भूले-बिसरे नायकों को याद किए बिना भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की कहानी को पूर्ण रूप नहीं दिया जा सकता। अगर हम देश के उन महान सपूतों और वीरांगनाओं का स्मरण नहीं करते, तो भारत की स्वतंत्रता के अमृत काल का जश्न अधूरा है, जिनकी वजह से हम स्वतंत्र हैं। आजादी की लड़ाई का इतिहास क्रांतिकारियों के त्याग और बलिदान के अनगिनत कारनामों से भरा पड़ा है। क्रांतिकारियों की सूची में ऐसा ही एक नाम है खुदीराम बोस का, जो शहादत के बाद इतने लोकप्रिय हो गए कि नौजवान एक खास किस्म की धोती पहनने लगे जिनकी किनारी पर ‘खुदीराम’ लिखा होता था। आज ही के दि‍न, 11 अगस्त 1908 को खुदीराम बोस देश की आजादी के लि‍ए शहीद हुए थे। आइए, उनकी वीर गाथा के बारे में जानें और उन्‍हें याद करें। कुछ इतिहासकार उन्हें देश के लिए फांसी पर चढ़ने वाला सबसे कम उम्र का देशभक्त मानते हैं। खुदीराम का जन्म 3 दिसंबर 1889 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में त्रैलोक्यनाथ बोस के घर हुआ था।खुदीराम को आजादी हासिल करने की ऐसी लगन लगी कि 9वीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़कर वे स्वदेशी आंदोलन में कूद पड़े। इसके बाद वे रिवॉल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और ‘वंदेमातरम्’ लिखे पर्चे वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में चले आंदोलन में भी उन्होंने बढ़-चढ़कर भाग लिया। उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के चलते 28 फरवरी 1906 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन वे कैद से भाग निकले। लगभग 2 महीने बाद अप्रैल में वे फिर से पकड़े गए। 16 मई 1906 को उन्हें रिहा कर दिया गया। 6 दिसंबर 1907 को खुदीराम ने नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया, परंतु गवर्नर बच गया। सन् 1908 में खुदीराम ने दो अंग्रेज अधिकारियों वाट्सन और पैम्फायल्ट फुलर पर बम से हमला किया लेकिन वे भी बच निकले। खुदीराम बोस मुजफ्फरपुर के सेशन जज किंग्सफोर्ड से बेहद खफा थे, जिसने बंगाल के कई देशभक्तों को कड़ी सजा दी थी। उन्होंने अपने साथी प्रफुल्लचंद चाकी के साथ मिलकर किंग्सफोर्ड को सबक सिखाने की ठानी। दोनों मुजफ्फरपुर आए और 30 अप्रैल 1908 को सेशन जज की गाड़ी पर बम फेंक दिया लेकिन उस गाड़ी में उस समय सेशन जज की जगह उसकी परिचित दो यूरोपीय महिलाएं कैनेडी और उसकी बेटी सवार थीं। किंग्सफोर्ड के धोखे में दोनों महिलाएं मारी गईं, जिसका खुदीराम और प्रफुल चंद चाकी को काफी अफसोस हुआ। अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लगी और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया। अपने को पुलिस से घिरा देख प्रफुल चंद चाकी ने खुद को गोली से उड़ा लिया जबकि खुदीराम पकड़े गए। मुजफ्फरपुर जेल में 11 अगस्त 1908 को उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। उस समय उनकी उम्र सिर्फ 19 साल थी। देश के लिए शहादत देने के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हो गए कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे। इतिहासवेत्ता शिरोल ने लिखा है- ‘बंगाल के राष्ट्रवादियों के लिए वह वीर शहीद और अनुकरणीय हो गया। विद्यार्थियों तथा अन्य लोगों ने शोक मनाया। कई दिन तक विद्यालय बंद रहे और नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे जिनकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था।’ कैसे पड़ा खुदीराम नाम.? खुदीराम बोस के जन्म से पहले उनके दो भाइयों की बीमारी की चलते मृत्यु हो गई थी। ऐसे में उनके डरे हुए माता-पिता ने अपने तीसरे बेटे की जान बचाने के लिए एक टोटका अपनाया, जिसमें बड़ी बहन ने चावल के बदले खुदीराम को खरीद लिया। बंगाल में चावल को खुदी कहा जाता था, यही वजह रही कि उनका नाम खुदीराम पड़ गया। देखा जाए तो धोती पहनने वाले खुदीराम कम उम्र में ही देश में अपनी छाप छोड़ गए। उनकी शहादत के बाद बड़े स्तर पर धोती पहनने का चलन चल पड़ा। बता दें कि बंगाल के कई बुनकर आज भी खुदीराम लिखी धोतियां तैयार करते है। 11 अगस्त / मित्तल