भारत के विभाजन की भूमिका तभी बन चुकी थी, जब आजादी से पूर्व कांग्रेस द्वारा यह कहा गया कि जब तक स्वतंत्रता संग्राम में मुसलमान का सहयोग नहीं मिलेगा, तब तक आजादी संभव नहीं। दरअसल यही वह सोच है जिसने एक विध्वंसकारी योजना को बाद में फलीभूत किया और भारत आजाद होने से पहले ही दो हिस्सों में विभाजित हो गया। आखिर तो मुसलमान इसी देश का नागरिक था और है भी। भारत को आजादी दिलाने की तड़प जितनी हिंदुओं में थी, स्वाभाविक है उतनी ही मुसलमानों के मन में भी रही होगी। जाहिर है, जब दो भाइयों के,साझा घर पर हमला हुआ था तो उन्हें स्वाभाविक रूप से एक साथ दुश्मनों से लोहा लेना ही था। लेकिन कांग्रेस के नेताओं द्वारा यह संदेह प्रकट किया जाना कि यदि भारत की आजादी सुनिश्चित करनी है तो मुसलमान को इसके लिए मनाना होगा! तो क्या कांग्रेस यह मान चुकी थी कि देश का तत्कालीन मुसलमान भारत की आजादी के लिए अंग्रेजों से लड़ने को तैयार नहीं था? और वह वतन से गद्दारी कर रहा था! इससे स्पष्ट हो जाता है कि भारत का विभाजन तत्कालीन भावावेश का परिणाम नहीं था, बल्कि यह एक सोची समझी सुनियोजित साजिश का हिस्सा था। वह साजिश जिसे साकार करने के लिए एक विदेशी व्यक्ति ने कांग्रेस की नींव रखी। यह भी काबिले गौर है कि बड़े ही आश्चर्यजनक ढंग से कांग्रेस को और कांग्रेस में भी खासकर नेहरू परिवार को देश की आजादी का श्रेय मिलता चला गया। जबकि आजादी के लिए फांसी के फंदों पर झूल गए, अंग्रेजों द्वारा गोलियों से भून दिए गए, युद्ध के मैदान में अंग्रेजों से लोहा लेते हुए शहीद हो गए हजारों स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को एक प्रकार से पूरी तरह भुला दिया गया। संदेह इसलिए भी गहरा है, क्योंकि भारत को आजाद करने के लिए उस वर्ग के व्यक्ति द्वारा कांग्रेस का गठन किया गया जो तत्कालीन सत्ता धारी अंग्रेजों की जमात से ही आता था। शोध का विषय है कि एक अंग्रेज को ऐसी क्या पड़ी थी, जो उसने एक ऐसे संगठन की रचना कर डाली जो उसी के समाज और वर्ग के खिलाफ लड़ाई लड़ने जा रहा था। जाहिर है यह एक साजिश थी, जिसके तहत अंग्रेजों द्वारा यह साबित किया जाना था कि वे लोग रानी लक्ष्मीबाई, सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, वीर सावरकर या सुभाष चंद्र बोस आदि की आक्रामकता से डर कर नहीं भाग रहे, बल्कि गोरों का मन कांग्रेस के अहिंसक आंदोलन से पसीज गया, इसलिए त्याग स्वरूप राज पाट छोड़कर वापस इंग्लैंड लौट गए। लेकिन भारत पर राजपाट करना केवल हमें आता है, यह साबित करने के लिए आजादी के ठीक पहले विभाजन की लकीर खींचकर अराजकता के हालात निर्मित किए गए। विश्व स्तर पर यह संदेश पहुंचाने के लिए ही देश के विभाजन की तैयारियां उसकी आजादी से पहले पूरी कर दी गईं। इससे यह बात पुनः एक बार पुष्ट हुई कि आजादी में मुसलमान के अनिवार्य सहयोग की भेदभावपूर्ण बात ऐसे ही नहीं कही गई थी। बल्कि पूरी तरह सोच समझकर अवसरवादी मुसलमान नेताओं की सोई हुई महत्वाकांक्षाओं को जगाया गया था। क्योंकि तत्समय कुछ पद लोलुप मुस्लिम नेताओं का यह तर्क था कि अंग्रेजों ने जब भारत में कब्जा जमाया तब भारत की बादशाहत दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह जफर के पास थी। अतः अंग्रेजों को इंग्लैंड जाने से पहले सरकार मुगलों के वंशजों के हवाले करनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं हुआ तो मुस्लिम मजहब के नाम पर एक अलग देश की मांग करेंगे। वही हुआ, जब आजादी की बेला आई तो मुस्लिम लीग की ओर से दावा पेश हो गया। दावा यह कि आजादी हमारे सहयोग के बगैर संभव ही नहीं थी। अतः देश का प्रधानमंत्री हमें (मोहम्मद अली जिन्ना को) बनाया जाए वरना हमें हमारे मजहब के हिसाब से अलग मुल्क दे दिया जाए। येन-केन प्रकारेण सरकार पर कब्जा जमाने की जद्दोजहद में उलझी कांग्रेस द्वारा यह मांग मान लिए जाने से हालात कुछ ऐसे बिगड़े कि भारत आजाद बाद में हुआ, उसके टुकड़े पहले कर दिए गए। नतीजतन अखंड भारत में अफरा तफरी मच गई। आजादी की खुशी काफूर हो गई। अवसरवादी और विभाजनकारी नेताओं के इशारे पर एक वर्ग के लोग खून के प्यासे होते चले गए। तत्समय ही अस्तित्व में आई सीमा रेखा के उस पार से ट्रेनों में भर भर कर लाशों के ढेर आते दिखाई देते थे। शवों की अधिकता इतनी थी कि उनका विधि विधान अनुसार अंतिम संस्कार करना भी संभव नहीं दिखता था। लेकिन दोनों तरफ के तत्कालिक नेतागण सरकार बनाने की तैयारियों में मशगूल बने रहे। तत्समय विभाजन केवल जमीनों का नहीं, जीवन, मंदिर, परिवार संस्कृति और सभ्यता का भी हुआ। धार्मिक आधार पर हिंदुओं के नरसंहार किए गए। लाहौर से ढाका तक हिंदू बस्तियां उजाड़ दी गईं । महिलाओं संग बलात्कार हुए तथा लाशों से भारी ट्रेनें सरहद पार से खंडित भारत की ओर आती चली गई। पहले आजादी का श्रेय हासिल करने और फिर आजाद भारत की सरकार पर कब्जा जमाने की अति महत्वपूर्ण महत्वाकांक्षाएं पाले हुए तत्कालीन कांग्रेस एवं मुस्लिम लीग के नेताओं की नाजायज करतूतों का ही परिणाम है कि देश तो विभाजित हुआ ही, आज भी भारतीय परिवेश में इस विभाजनकारी लकीर को अस्तित्व में बनाए रखा गया है। इसी का परिणाम है कि भारत के विभिन्न भागों में आज भी फूट डालो राज करो की नीति पर काम हो रहा है। इसी विभाजन कारी नीति का परिणाम है कि अभी भी लोगों को हिंदू मुसलमान के नाम पर बांटा जाता है। उससे भी जी नहीं भरा तो जात-पांत के नाम पर फसाद खड़े किए जाते हैं। देश के नागरिकों को 14 अगस्त 1947 के विभाजन (विनाशक) दिवस से सीख लेते हुए एकता का परिचय देने की आवश्यकता है। जरूरत इस बात की भी है कि देर से ही सही, देश के विभाजन की मांग उठाने वालों और सत्ता की खातिर उस मांग को मान लेने वाली ताकतों को पहचाना जाए। ताकि भविष्य में फिर कभी हमें 14 अगस्त जैसे हालातो का सामना न करना पड़ जाए। ईएमएस/13/08/2025