उत्तराखंड की राजनीति में हाल ही में पूर्व वन मंत्री हरक सिंह के बयान ने, राजनीतिक हल्कों, उत्तराखंड की राजनीति और ईडी के अधिकारियों को झकझोर दिया है। पूर्व मंत्री हरक सिंह रावत ने भारतीय जनता पार्टी पर और सरकार पर गंभीर आरोप लगाए हैं। उन्होने स्वयं को भी दोषी ठहराते हुए कहा,खनन माफियाओं से मिली चंदे की रकम से भाजपा में करोड़ों की एफडी बनी है। रावत के शब्दों में,“ईडी ईमानदारी से जांच करे, तो पूरी भाजपा कैबिनेट जेल में होगी। सवाल यह है कि इतना बड़ा दावा करने के बाद भी प्रवर्तन निदेशालय की ओर से कोई जांच क्यों शुरू नहीं की है। यह पहला मौका नहीं है, जब किसी पूर्व मंत्री या नेता ने भ्रष्टाचार के ऐसे गंभीर आरोप लगाए हों। भारतीय राजनीति का यह एक कड़वा सच बन चुका है, सत्ता में रहते हुए नेता चुप रहते हैं, कुर्सी से हटने के बाद इस तरह के आरोप लगाते हैं। हरक सिंह रावत का मामला दूसरा है। उनके खिलाफ ईडी जांच कर रहा है। इनके मेडीकल कॉलेज और भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच ईडी कर रही है। ऐसी स्थिति में उनके बयान के आधार पर जांच करना ईडी के लिए जरूरी हो जाता है। दिल्ली शराब घोटाले में ईडी ने बयान के आधार पर ही जांच कर, आरोपियों को जेल भेजा था। हरक सिंह रावत स्वयं कई मामलों में जांच के घेरे में हैं। उनका यह बयान हल्के में नहीं लिया जा सकता है। रावत का बयान सीधे तौर पर सत्तारूढ़ दल की कार्यप्रणाली और वित्तीय पारदर्शिता, चंदा लेकर ठेके देने और सरकार के कामकाज पर सवाल खड़ा करता है। इस मामले में ईडी की चुप्पी सबसे बड़ा सवाल खड़ा करती है। किसी विपक्षी दल के नेता पर ऐसे आरोप लगते है, तो तुरन्त छापेमारी, गिरफ्तारी और पूछताछ की खबरें सामने आ जाती हैं। जब आरोप सत्ता से पक्ष से जुड़े हों, तो एजेंसी की निष्क्रियता से जनता के मन में जांच एजेंसी की निष्पक्षता और पारिदर्शिता को लेकर शंका पैदा होने लगी है। लोकतंत्र में जांच एजेंसियों की भूमिका, निष्पक्ष और पारदर्शी होनी चाहिए। अन्यथा कोई उन पर भविष्य में कोई भरोसा नहीं करेगा। जाँच एजेंसियां राजनेताओं और राजनीति के बोझ तले दबकर अपनी प्रामाणिकता खो देंगी, वर्तमान में यही होते हुए दिख रहा है। यह सही है कि हरक सिंह रावत दूध के धुले नहीं हैं। इसका अर्थ यह भी नहीं है, उनके आरोपों को नजरअंदाज कर दिया जाए। ईडी जब उनकी संपत्ति की जांच कर रही है। यदि वह दोषी हैं ,तो उन्हें भी सज़ा मिलनी जो आरोप और सबूत उन्होंने भाजपा सरकार के खिलाफ दिये हैं। उनकी भी जांच होनी चाहिए, जांच में आरोप सच साबित होते हैं। तो जांच एजेंसियों को कार्यवाही भी करनी चाहिए। तभी जाकर जाँच एजेंसी, लोकतंत्र और शासन की विश्वसनीयता बढेगी। अन्यथा जांच एजेंसी और सरकार पर आम जनता का विश्वास कम होगा। लोकतांत्रिक व्यवस्था जाँच एजेंसी की इस भूमिका से गहरा आघात होगा। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता का यह अधिकार है, उसे सच का पता चले। लोकतांत्रिक व्यवस्था में कानून का राज हो। चाहे वह पूर्व मंत्री हो, या वर्तमान मुख्यमंत्री, मंत्री, शासन एवं प्रशासन पर बैठा हुआ अधिकारी हो, न्याय पालिका के जज हों। संवैधानिक संस्थाओं में उच्च पदों पर बैठे हुए लोग हों, अथवा सामान्य नागरिक हो। संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था में कानून सबके लिए समान है। सभी के बीच में समानता के साथ कार्यवाही होनी चाहिए। जांच एजेंसियां निष्पक्ष होकर कार्रवाई करें, अपने अधिकार और कर्तव्यों का सही ढंग से पालन करें सरकार और अन्य किसी दवाब में नहीं आएं, तो दूध का दूध और पानी का पानी होने में देर नहीं लगेगी। हरक सिंह रावत का यह सार्वजनिक बयान महज़ एक राजनीतिक आरोप मानकर झूठला दिया जाएगा? पिछले कुछ वर्षों से जांच एजेंसी के ऊपर इसी तरह के आरोप और अविश्वास समय-समय पर देखने को मिलता है। जांच एजेंसी के बारे में सुप्रीम कोर्ट भी कभी तोता कभी बिल्ली और न जाने क्या-क्या कहा जाने लगा है। जो सरकार में बैठा होता है, वह जांच एजेंसियों का उपयोग अपने मनमाने ढंग से करना चाहता है। जांच एजेसियों के जो अधिकारी हैं। वह सरकार के दबाव में काम करते हुए नजर आते हैं। कोर्ट में यह प्रमाणित होने के बाद भी जिम्मेदार अधिकारियों पर यदि कोई कार्यवाही नहीं होती है। न्यायालय उन्हें दंडित नहीं करती हैं। इसमें न्यायपालिका की भूमिका न्याय के सिद्धांत में अपने कर्तव्यों का पालन उस तरह से नहीं करती है: जैसे उसे करना चाहिए। जब तक दोषी गैर जिम्मेदार और लापरवाह अधिकारियों और कर्मचारियों को न्यायपालिका दंडित नहीं करेगी। तब तक यही खेल चलता रहेगा। सरकार के मुख्य पदों पर बैठे हुए लोग इसी तरह से कानून के राज को अंगूठा दिखाते रहेंगे। विपक्षी इसी तरह से प्रताड़ित होते रहेंगे। बहुमत का आधार सत्ता में बने रहने को मान लिया गया है। भ्रष्ट लोगों को भी सत्ता बनाए रखने के लिए सत्ता में शामिल कर लिया जाता है। इसमें नैतिकता और अनैतिकता का कोई मतलब नहीं है। ऐसी स्थिति में भ्रष्टाचार पर नियंत्रण लगेगा? भ्रष्टाचार खत्म करने के सपने जरूर देखे जा सकते हैं। वास्तविक रूप से धरातल में देखने को नहीं मिलेंगे। समरथ को नहीं दोष गुसाईं जब तक सत्ता की ताकत है। तब तक उन पर कोई कार्यवाही नहीं होगी। राजनेताओं, अधिकारियों, न्यायपालिका के जजों में आपस की संगामित्ती देखने को मिल रही है। जिसके कारण इसी तरह से आम आदमी के हितों पर कुठराघात होता रहेगा? इसे एक तरह से लोकतंत्र के जरिए राजतंत्र स्थापित किए जाने के मार्ग के रूप में भी देखा जा सकता है। वर्तमान संदर्भ में यही कहा जा सकता है। ईएमएस /23 अगस्त 25