भारत, एक लोकतांत्रिक राष्ट्र होने के नाते, नीति निर्माण और प्रशासनिक निर्णयों में जनहित, पारदर्शिता और राष्ट्रीय स्वायत्तता को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है। हाल के वर्षों में, केंद्र और राज्य सरकारों ने विभिन्न परियोजनाओं और विभागों में वैश्विक परामर्शदाता फर्मों को शामिल करना शुरू कर दिया है। इनमें KPMG, Ernst & Young (EY), PricewaterhouseCoopers (PwC), Deloitte और Accenture जैसी अनेकों बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ प्रमुख रूप से कार्यरत हैं। इन फर्मों से सरकारों को मानव संसाधन, आधुनिक प्रबंधन पद्धतियों, अनुभव और तकनीकी विशेषज्ञता का लाभ लेना है लेकिन इनकी भागीदारी ने कई गंभीर नीतिगत और लोकतांत्रिक जोखिम उत्पन्न किये हैं। आज-कल वित्तीय मैनेजमेंट, व्यवस्था प्रबंधन, डिजिटल गवर्नेंस, शहरी विकास, ऊर्जा और आईटी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की संवेदनशील प्रोजेक्ट स्ट्रेटेजी एवं अन्य जानकारियां न केवल प्रशासनिक दृष्टि से बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और आर्थिक संप्रभुता के दृष्टिकोण से संवेदनशील डाटा सीधे इन विदेशी फर्मों को मिल रहा है। क्योंकि सिविल सेवा के अधिकारियों की भ्रष्ट कार्यप्रणाली ने इन विदेशी फ़र्मों को प्रशासनिक लाभ देते हुए शासन के अंदर पैठ बनाने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सरकारों के स्वयं के संस्थों जैसे सुशासन आयोग, नीति आयोग, लोक सेवा प्रबंधन जैसी संस्थाओं के होते हुये आउट सोर्स और ईआरपी के द्वारा इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने सरकारों को आंकड़ों की बाजीगरी कर जकड़ना शुरू कर दिया है। कई वरिष्ठ सिविल सेवा के अधिकारी सेवानिवृत या नौकरी छोड़ इन्ही विदेशी फार्मों के लिये काम कर रहे है और अपने प्रभाव का उपयोग कर सरकारों में विदेशी फार्मों की इंट्री करवा रहे है। *नीति निर्माण पर बाहरी प्रभाव* विदेशी फर्में नीति निर्माण और रणनीतिक निर्णयों में प्रभाव डालती हैं। उनका दृष्टिकोण सामान्यतः वैश्विक कॉर्पोरेट मानकों पर आधारित होता है, जो हमेशा भारतीय परिस्थितियों और सामाजिक-सांस्कृतिक आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं होता। परिणामस्वरूप, नीति निर्माण पर विदेशी निवेशकों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अप्रत्यक्ष प्रभाव बढ़ता है। *लोकतांत्रिक प्रक्रिया और जवाबदेही* लोकतंत्र का मूल सिद्धांत है कि नीतियाँ जनता और उनके निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से बनें। विदेशी परामर्शदाता का हस्तक्षेप इस प्रक्रिया में जनप्रतिनिधियों की भूमिका को सीमित करता है। इसके अतिरिक्त, जवाबदेही की समस्या भी उत्पन्न होती है। परामर्शदाता फर्में सीधे जनता के प्रति उत्तरदायी नहीं होतीं, जिससे नीति निर्माण में पारदर्शिता और लोकतांत्रिक जवाबदेही कमजोर हो सकती है। नीतिगत उपनिवेशवाद विदेशी फर्मों से “नीतिगत उपनिवेशवाद (Policy Colonialism)” को ही बढ़ावा मिल रहा जिसमें नीतियां विदेशी दृष्टिकोण और वैश्विक हितों पर आधारित होती हैं। स्थानीय विशेषज्ञता और क्षमता निर्माण को हीन भावना से देखने के कारण स्वयं की स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता प्रभावित होती है और स्थानीय थिंक टैंक, अकादमिक संस्थान और भारतीय विचारों के अवसर सीमित हो रहे हैं। *विदेशी ही क्यों? स्वदेशी संस्थाओं को प्राथमिकता मिले* भारत में सरकारी तथा स्वशासी, अनेक योग्य संस्थान और शोध संगठन उपलब्ध हैं, जो नीति परामर्श में सक्षम हैं। IIMs, IITs और अन्य राष्ट्रीय विश्वविद्यालय नीति और प्रबंधन परामर्श प्रदान करते रहे हैं। NITI Aayog, TERI और NCAER जैसी संस्थाएं राष्ट्रीय नीति निर्माण में उच्च स्तर की विशेषज्ञता रखती हैं। निजी क्षेत्र में कई भारतीय परामर्शदाता कंपनियां और स्टार्टअप्स किफायती, स्थानीय दृष्टिकोण वाली और प्रभावी सेवाएँ प्रदान कर सकते हैं। विदेशी परामर्शदाता फर्मों की विशेषज्ञता उपयोगी हो सकती है। किंतु लोकतांत्रिक और राष्ट्रीय दृष्टि से स्वदेशी कंपनियों और संस्थाओं को प्राथमिकता देना अधिक तार्किक और सुरक्षित है। मध्य प्रदेश ही नहीं, पूरे भारत में नीति निर्माण का आधार स्थानीय आकांक्षाएं, राष्ट्रीय हित और स्वदेशी विशेषज्ञता होना चाहिए। यही मार्ग सुरक्षित, आत्मनिर्भर और लोकतांत्रिक भारत की दिशा में सही कदम है। (लेखक वैज्ञानिक एवं सामाजिक विचारक हैं) ईएमएस/06/09/2025