-कोर्ट को जेंडर समानता पर काम करने की क्यों है जरूरत नई दिल्ली,(ईएमएस)। सुप्रीम कोर्ट में महिलाओं के अपर्याप्त प्रतिनिधित्व पर सवाल उठते रहे हैं। 1989 से अब तक केवल 11 महिला जज हुई हैं। कॉलेजियम की सिफारिशों में वरिष्ठता को महत्व दिया जाता है, लेकिन महिलाओं की वरिष्ठता को अक्सर अनदेखा किया जाता है। वहीं अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट की दिवंगत न्यायमूर्ति रूथ बेडर गिन्सबर्ग से सवाल पूछा गया था कि वह कब इस बात पर विचार करेंगी कि देश के शीर्ष न्यायालय में महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व हो। उन्होंने इस सवाल का जवाब देते हुए कहा, जब सभी नौ सीटों पर महिलाएं होंगी, तभी सही प्रतिनिधित्व होगा। उनकी यह टिप्पणी विवादित तो थी, लेकिन तर्क गलत नहीं था। उनका तर्क था, कि सभी 9 सीटों पर पुरुषों थे। तब उनसे यह सवाल क्यों नहीं पूछा गया। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक भारत की बात की जाए तो 1950 से 1989 तक सुप्रीम कोर्ट में केवल पुरुष ही जज थे। 1989 से अब तक केवल 11 महिला जज हुई हैं, जो कुल जजों का करीब 4 फीसदी हैं। 2027 में जस्टिस नागरत्ना 36 दिनों के लिए भारत की पहली महिला चीफ जस्टिस बनेंगी। कॉलेजियम की सिफारिश में वरिष्ठता को महत्व दिया जाता है, लेकिन यह हमेशा सही नहीं होता। न्यायमूर्ति पंचोली की हालिया विवादास्पद पदोन्नति के खिलाफ एक तर्क था कि उनकी नियुक्ति कई महिला न्यायाधीशों की वरिष्ठता के बावजूद की गई थी। हाईकोर्ट में केवल 14 फीसदी महिला जज हैं। कई कोर्ट में तो एक भी महिला जज नहीं है। ऐतिहासिक भेदभाव, काम करने का खराब माहौल और तरक्की की कम संभावना इसके कारण हैं। इस स्थिति को बदलने के लिए भर्ती, पदोन्नति और बार से सीधे पदोन्नति में जानबूझकर हस्तक्षेप की जरुरत है। आज तक केवल 10 वकीलों को सीधे सुप्रीम कोर्ट का जज नियुक्त किया गया विश्व स्तर पर, बार उच्च न्यायपालिका तक पहुंचने का एक आसान रास्ता है, लेकिन भारत में, वकीलों की तुलना में हाईकोर्ट के जजों को प्राथमिकता दिए जाने के कारण शीर्ष न्यायालय में पहुंचने वाली महिलाओं की संख्या में उल्लेखनीय कमी आई है। आज तक केवल 10 वकीलों को ही सीधे सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश नियुक्त किया गया है, जिनमें से केवल एक महिला रही है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि बार और निचली न्यायपालिका में महिलाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। महिलाओं को जानबूझकर अधिकारपूर्ण पदों पर रखे बिना, ज़मीनी स्तर पर बदलाव स्थायी नहीं होंगे। वरिष्ठता के अलावा, योग्यता, ईमानदारी और विविधता भी वे अन्य मानदंड हैं जिन्हें कॉलेजियम अपनी चयन प्रक्रिया के लिए रिलेवेंट मानता है। कॉलेजियम काबिलियत, ईमानदारी और विविधता को भी देखती है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि वे इसे कैसे तय करते हैं। खासकर इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का रिकॉर्ड अच्छा नहीं रहा है। वहां महिलाओं, दलितों और अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है। हालांकि न्यायमूर्ति गिन्सबर्ग का एक महिला-प्रधान न्यायालय का सपना, चाहे अमेरिका में हो या भारत में, साकार होने की संभावना नहीं है, लेकिन क्या यह इतना अकल्पनीय होना चाहिए कि न्यायालय समाज के सभी वर्गों का आनुपातिक रूप से प्रतिनिधित्व करे? योग्यता के तर्क को सामने लाने से पहले, न्याय प्रदान करने की प्रकृति को समझना अहम है। वहीं पूर्व सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा था कि लोग तभी न्यायपालिका पर भरोसा करेंगे जब वे न्याय करने वालों में खुद को देखेंगे। कॉलेजियम के डेटा से पता चलता है कि क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व को महत्व दिया जाता है, लेकिन महिलाओं के प्रतिनिधित्व को केवल कागजों पर ही देखा जाता है। कॉलेजियम के डेटा से पता चलता है कि वे क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व को तो ध्यान में रखते हैं, लेकिन महिलाओं के प्रतिनिधित्व को उतना महत्व नहीं देते। 2021 के बाद से सुप्रीम कोर्ट में कोई भी महिला जज नहीं बनी है। पूर्व सीजेआई चंद्रचूड़ के कार्यकाल में 17 जजों की नियुक्ति हुई थी, लेकिन उनमें से एक भी महिला नहीं थी। हाईकोर्ट में न्यायमूर्ति के रूप में प्रस्तावित 168 नामों में से केवल 27 महिलाएं थीं। यह उस अदालत की ओर से है जिसने निचली न्यायपालिका और संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर चिंता व्यक्त की है, और यहां तक कि बार एसोसिएशनों में भी महिलाओं के लिए आरक्षण अनिवार्य कर दिया है। न्यायालय इन तथ्यों और स्थिति की तात्कालिकता से भली-भांति परिचित है और ऐसा वह कई बार कह चुका है, लेकिन जब तक वह अपनी ही सुंदर बयानबाजी पर अमल नहीं करता, तब तक वह केवल अपनी ही प्रतिष्ठा, कार्यकुशलता और अंततः अपनी ईमानदारी को ही कमजोर करता है। सुप्रीम कोर्ट को यह सब पता है। वे कई बार महिलाओं के प्रतिनिधित्व की बात भी करते हैं, लेकिन जब तक वे अपनी ही बयानबाजी पर अमल नहीं करेंगे, तब तक कुछ नहीं होगा। सिराज/ईएमएस 11 सितंबर 2025