सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में पटना हाईकोर्ट का आदेश किया रद्द नई दिल्ली,(ईएमएस)। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी मामले में बिना शक के केस साबित करने के लिए सिद्धांत को हल्के तरीके से लागू कर आरोपी को बरी करने के तरीके पर ऐतराज जताया है। कोर्ट ने कहा कि साक्ष्यों में मामूली विरोधाभासों को इस स्तर तक नहीं बढ़ाया जा सकता कि उसे उचित संदेह मानकर आरोपी को बरी कर दिया जाए। जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की बेंच ने एक सितंबर को दिए आदेश में पटना हाईकोर्ट का वह आदेश रद्द कर दिया जिसमें हाईकोर्ट ने पॉक्सो एक्ट के तहत नाबालिग से दुष्कर्म के दोषी ठहराए गए आरोपियों को अभियोजन पक्ष के बयान में मामूली असंगतियों और विरोधाभासों के आधार पर बरी कर दिया था। कोर्ट ने कहा कि यह पूरे सिस्टम की विफलता है जब कोई अपराधी और वह भी जघन्य सेक्सुअल अपराध का अपराधी सिर्फ प्रक्रियागत नियमों की गलत व्याख्या से पीड़िता को उलझाकर कानून की पकड़ से बच निकलता है, जबकि पीड़िता को इसकी न तो जानकारी होती है। हाईकोर्ट ने अभियुक्तों को बरी करते समय पीड़िता की उम्र, घटना का समय, गर्भावस्था और गर्भपात का प्रमाण, आरोप तय करने में खामियां और मुकदमे की वैधता जैसे बिंदुओं पर विसंगतियों का हवाला दिया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इनमें से कोई भी आधार टिकाऊ नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि पीड़िता की उम्र 12 से 15 साल के बीच बताई गई थी, लेकिन पाक्सो के लिए केवल यह साबित करना पर्याप्त है कि पीड़िता 18 साल से कम उम्र की थी। तारीख और समय याद रखने में छोटी भूलें लगातार गवाही और मेडिकल एविडेंसको अविश्वसनीय नहीं बनातीं। सुप्रीम कोर्ट ने गर्भावस्था और गर्भपात संबंधी रिकॉर्ड को खारिज करने को बेमतलब बताया और नोट किया कि कई मेडिकल और कानूनी दस्तावेज दोनों की पुष्टि करते हैं। जहां तक दोष के लिए आरोप का सवाल है तो इससे अभियुक्त को कोई पूर्वाग्रह नहीं हुआ। संयुक्त मुकदमे के मामले में कोर्ट ने साफ कहा कि केवल अनियमितता से बरी नहीं किया जा सकता जब तक कि उससे अन्याय या न्याय में विफलता साबित न हो। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उचित संदेह, गंभीर, तार्किक और साक्ष्यों पर आधारित होना चाहिए, न कि तुच्छ विरोधाभासों पर बरी किया जाना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि इस मानक का गलत प्रयोग दोषियों को सजा से बच निकलने देता है और इससे समाज का न्याय व्यवस्था पर विश्वास कमजोर होता है। फैसले में कहा गया है कि संदेह से परे प्रमाण के सिद्धांत को अक्सर अभियोजन पक्ष के किसी भी छोटे-मोटे संदेह का मतलब समझ लिया जाता है। अक्सर देखा गया है कि मामूली असंगतियों और विरोधाभासों को उचित संदेह मानकर बरी कर दिया जाता है। उचित संदेह वह है जो अभियोजन की कहानी को असंभव बना दे और कोर्ट को सबूतों के किसी वैकल्पिक संस्करण की संभावना पर विश्वास दिलाए। यह गंभीर और कारणयुक्त संदेह होना चाहिए। इस सिद्धांत की नीव यह है कि कोई निर्दोष उस अपराध की सजा न पाए जो उसने किया ही नहीं, लेकिन इसका उल्टा पहलू यह भी है कि गलत प्रयोग के कारण असली अपराधी भी कानून की पकड़ से बच जाते हैं। सिराज/ईएमएस 17सितंबर25 ------------------------------------